1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

रईसी की चारदीवारी में जुल्म की दास्तान

२३ अगस्त २०१२

भारत के बड़े शहरों में नए रईसों की बाढ़ सी आई है. उनकी कोठियों को आम लोग रास्ते की पहचान बना देते हैं. लेकिन रईसी की चारदीवारियां भीतर हो रहे अत्याचार और शोषण को आम नजरों से छुपा देती हैं.

https://p.dw.com/p/15vXh
तस्वीर: DW

बचपन से अब तक 20 से ज्यादा देशों में रह चुके प्रशांत नायर हिंदी सिनेमा में हाथ आजमा रहे हैं. उनकी फिल्म डेल्ही इन ए डे विदेश की में कई फिल्म समारोह में जबर्दस्त सुर्खियां बटोर चुकी हैं. अब फिल्म भारत में रिलीज हो रही है. प्रशांत के मुताबिक फिल्म नई दिल्ली जैसे शहर की एक कड़वी लेकिन सच्ची कहानी बयान करती है. श्टुटगार्ट फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट न्यू डॉयरेक्टर का सम्मान पा चुके प्रशांत नायर से डॉयचे वेले की खास बातचीत.

डॉयचे वेलेः प्रशांत आपने डेल्ही इन ए डे फिल्म बनाई है. फिल्म क्या कहती है?

प्रशांतः फिल्म दक्षिण दिल्ली में हाल फिलहाल रईस बने लोगों का जीवन दिखाती है. खास तौर पर हमने यह दिखाया है कि ये रईस अपने यहां काम करने वाले से कैसा व्यवहार करते हैं. जैसी बातें मुझ तक पहुंचीं उसके बाद यह साफ हो गया था कि इसमें अपनी तरफ से गढ़ने के लिए कुछ नहीं है. मुझे ये बातें ऐसे व्यक्ति से पता चली जो भारत में नहीं रहता है. वो बाहर रहा लेकिन बीच में भारत जाकर उसने काफी वक्त बिताया. उसका देखने का नजरिया अलग है. वह उन चीजों को देख पाए जिन्हें आमतौर पर भुला दिया जाता है. पहले मैं डॉक्यूमेंट्री बनाना चाहता था, लेकिन जब मुझे लगा कि मैं ऐसे लोगों तक पहुंच सकता हूं तो फिर महसूस हुआ कि हकीकत के बेहद करीब एक फिल्म बनाई जा सकती है. ऐसी फिल्म जो इस तरह के घरों में क्या हो रहा है ये बताए. फिल्म में तीखा व्यंग्य और हास्य भी है. मुझे उम्मीद है कि फिल्म इस अहम मुद्दे पर बहस करा सकेगी.

प्रशांत आपने फिल्म बनाई, लेकिन उससे अलग आपके क्या अनुभव हैं?

फिल्म बनाने के लिए हमें काफी रिसर्च करनी पड़ी. हमें कई घरों में जाना पड़ा. जब हम 25-30 घरों में गए तो अंतर साफ दिखाई पड़ा. जिस तरह कर्मचारी रहते हैं और मालिक रहते हैं, उसमें बड़ा फर्क दिखा. कभी कभार मालिकों के बार में रखी एक व्हिस्की की बोतल की कीमत उन सारे कर्मचारियों के रहन सहन पर किये जा रहे खर्च से ज्यादा होती है. रिसर्च और प्रोडक्शन से पहले हमने ऐसा काफी कुछ देखा कि लगा कि इस पर तो फिल्म बनाने की जरूरत है.

Indien Film Filmszene Delhi in a day
डेल्ही इन ए डे का एक दृश्यतस्वीर: nomadproductions.tv

ग्रामीण भारत में समाजिक असमानता पर तो काफी फिल्में बन चुकी हैं. लेकिन भारत के शहरों में भी यह असमानता है. ऐसे लोग जो कभी कभार दान देते हैं, सामाजिक और राजनीतिक रूप से बहुत सक्रिय हैं, उनके इर्दगिर्द फैली असमानता पर ज्यादा फिल्में नहीं बनी हैं. इस पर ध्यान ही नहीं दिया जाता. हम खुश हैं कि बनाने से पहले ही हमें पता चल गया था कि ऐसी फिल्म बनाने की जरूरत है.

फिल्म शूट करते समय क्या कोई चौंका देने वाली बात भी सामने आई?

पैसे की ही बात करें तो हैरान कर देने वाली असमानता है. दुनिया में शायद ही इस तरह की असमानता कहीं और दिखती है. अन्य जगहों पर शायद लोगों को ऐसा लगता है कि जो पैसा उनके पास है उससे वे दूसरे लोगों की मदद कर सकते हैं लेकिन अपनी फिल्म में मैंने जो घर दिखाए हैं, वहां ऐसा बिल्कुल नहीं है. उनके पास पैसा है लेकिन वे पैसा उन लोगों पर खर्च नहीं करते जो उनकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हैं.

एक बात मुझे और परेशान करती है. यह है कायदा कानून. कई सालों से मेरा भारत आना जाना लगा रहता है. मैं देखता हूं कि भारत में नौकर कहे जाने वाले लोगों के साथ ठीक व्यवहार नहीं होता. उनके स्वाभिमान और सम्मान के लिए कोई जगह ही नहीं है. इस बारे में बहुत कम नियम हैं. यूनियन की बात तो भूल जाइये, इस के लिए कोई नियामक भी नहीं है. मैंने मालिक नौकर के रिश्ते में अपराध देखा है, अशिष्टता देखी है. मार पीट भी होती है. कोई इस बारे में कुछ कर ही नहीं सकता. और तो और यह ऐसा विषय है जिस पर ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया जाता. इसी ने मुझे फिल्म बनाने की प्रेरणा दी.

कुछ अपने बारे में भी बताइए. फिल्म बनाने से पहले आप क्या कर रहे थे?

मैं एक इंजीनियर रह चुका हूं लेकिन फिल्म और साहित्य मुझे हमेशा से पंसद रहा. इंटरनेट की शुरूआत के समय मैं यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएट हुआ. मैं इंटरनेट की राह में चला गया और पैरिस में एक कंपनी खड़ी की. सोशल मीडिया पर काम किया. 10-11 साल काम करने के बाद लगा कि समय बीत रहा है. इसके बाद मैंने तय किया कि मुझे अपने सपने को पूरा करना चाहिए. मैंने फिल्म उद्योग के कुछ लोगों से बात की. सबने कहा कि सीखने का सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है कि आप काम करना शुरू कर दें. ज्यादा मत सोचो, बस फिल्म बनाना शुरू कर दो. ऐसे ही तुम सीख जाओगे. मैंने यही किया.

Indien Film Plakat Delhi in a day
तस्वीर: nomadproductions.tv

पहली फिल्म बनाते समय कैसी दिक्कतें आई.

मैं कई देशों में रह चुका हूं. भारत आना जाना लगा रहता था लेकिन भारत में कभी लंबे समय तक रहा नहीं. हिंदी में फिल्म का निर्देशन करना भी एक चुनौती थी. ऊपर से भारत में काम बहुत अलग तरीके से होता है. अच्छी बात ये रही कि हमारे पास बहुत प्रतिभाशाली अभिनेता थे, जैसे कुलभूषण खरबंदा और विक्टर बैनर्जी. टीम भी बहुत अनुभवी थी. उन्होंने मेरी राह आसान की लेकिन ये चुनौती भरा तो है ही. हर किसी के लिए नए क्षेत्र में जाकर कुछ करना मुश्किल तो होता ही है.

प्रशांत आगे की आपकी क्या योजनाएं हैं.

डेल्ही इन ए डे के अलावा मैं बॉलीवुड के एक प्रोजेक्ट के लिए लिख रहा हूं. यह बॉलीवुड की पहली वैम्पायर फिल्म होगी. इसके अलावा मैं अपनी फीचर फिल्म पर भी काम कर रहा हूं. फिल्म का नाम अमेरीका है. फिल्म गैरकानूनी ढंग से दूसरे देशों में बसने वाले लोगों के ऊपर है.

इंटरव्यूः ओंकार सिंह जनौटी

संपादनः निखिल रंजन

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

और रिपोर्टें देखें