नौकरों का जीवन दिखाती नई फिल्म
२२ अगस्त २०१२मध्यवर्गीय फिल्म दर्शकों को निश्चित ही बेचैनी होगी जब पर्दे पर घरेलू नौकरों के साथ होने वाले सीन एक एक कर पर्दे पर उघाड़े जाएंगे.
डेल्ही इन ए डे एक आदर्शवादी ब्रिटिश यात्री की कहानी है जो भारत आता है और अपने को एक अमीर परिवार में फंसा पता है जहां के नौकरों को कम पैसे दिए जाते हैं. उन्हें अकसर अपमानित किया जाता है और हल्के में लिया जाता है.
परिवार के ताने, डांट के बीच काम करने वाले ये नौकर हर दिन घंटो खाना पकाने से लेकर कपड़े धोने और साफ सफाई तक हर काम करते हैं.
निर्देशक प्रशांत नायर कहते हैं कि उनकी फिल्म में तेजी से बदलने वाले देश में हकीकत पर रोशनी डालती इस फिल्म के कई पल काफी मजेदार हैं. एएफपी समाचार एजेंसी से बातचीत में प्रशांत ने कहा, "अमीर लोग नौकर रखते हैं और चाहते हैं कि वे सब करें. उन्हें ताने देने, डांटने में मालिकों को मजा आता है और कई बार उन पर चोरी के भी आरोप लगते हैं. घरेलू नौकरों पर ही सबसे पहले चोरी का अंदेशा होता है."
नौकरों के साथ व्यवहार और समाज में उनकी स्थिति सब जानते हैं, सब महसूस करते हैं, लेकिन इसमें सालों साल कोई बदलाव नहीं आता. प्रशांत कहते हैं, "मैं दिखाना चाहता हूं कि नौकर का इकलौता उद्देश्य अपने मालिक को खुश करना होता है. जबकि रोजमर्रा में वह असुरक्षा के डर में जी रहे होते हैं, इस डर में कि एक छोटी सी गलती के कारण उन्हें कभी भी निकाला जा सकता है."
भारत में पैदा हुए और पैरिस में रह रहे प्रशांत कहते हैं कि नौकर और मालिक के बीच का अंतर तेजी से बढ़ता जा रहा है क्योंकि पारंपरिक बंधन टूट रहे हैं. साथ ही भारतीय शहरों में बाहर से आने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और बड़े परिवार लगातार टूट रहे हैं.
अधिकतर नौकर बिहार और उत्तर प्रदेश के गरीब युवा होते हैं जिन्हें 1,200 रुपये महीने में काम पर रखा जाता है. अक्सर उन्हें रहने के लिए घर में एक अलग कमरा भी दिया जाता है.
नई दिल्ली के रईस इलाके में बने एक बंगले में फिल्म घूमती है. नायर की फिल्म का केंद्र एक ब्रिटिश नागरिक है जिसकी आध्यात्मिक यात्रा का सपना चोरी हुए पैसे की गड़बड़ी में चूर चूर हो जाता है.
नई दिल्ली में श्रमिक संगठन के लिए काम करने वाले रामेन्द्र कुमार को उम्मीद है कि इस फिल्म से घरेलू कामगारों के लिए बेहतर कानूनी सुरक्षा का उनका अभियान मजबूत होगा. यह फिल्म शुक्रवार को देश भर के 65 सिनेमाघरों में दिखाई जाएगी. कुमार कहते हैं, "फैक्ट्री में काम करने वाला मजदूर मालिक के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकता है या पेंशन और दूसरे लाभ ले सकता है. लेकिन घरेलू मजदूर ऐसी कोई मांग नहीं कर सकता. उनके अधिकारों के लिए कोई कानून ही नहीं है. डोमेस्टिक वर्कर की रक्षा का कोई कानून नहीं. उन्हें अपने मालिकों की दया पर रहना पड़ता है और कई मालिक नौकरों का शोषण का करने का कोई मौका नहीं छोड़ते."
2010 से अभी तक नई दिल्ली में उनके संगठन ने 400 शिकायतें दर्ज की हैं. इन घरेलू मजदूरों का कहना है कि उनकी पिटाई होती है या फिर सब्जी ज्यादा पक जाने पर उन्हें बुरा भला कहा जाता है या ज्यादा सोने, प्लेट धोना भूलने पर उन्हें ताने दिए जाते हैं.
राजधानी में हाल ही में एक घटना सामने आई थी जिसमें डॉक्टर दंपत्ति को गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उन्होंने 13 साल की नौकर को घर में बंद कर रखा था और वह थाईलैंड घूमने चले गए.
नायर का कहना है कि इस तरह का व्यवहार पूरे भारत में देखा जा सकता है. कई परिवार रईसी में रहते हैं और अपने नौकरों का शोषण करते हैं. "एक ओर तो अमीर खुद को इतना विनम्र और शालीन दिखाते हैं वहीं घर पर उनका स्वर एकदम बदला हुआ होता है."
एएम/एमजी (एएफपी)