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भारत में गर्भपात: कानून और अमल के बीच की खाई पाटने की कोशिश

सीरत चब्बा
१९ नवम्बर २०२१

भारत ने जब पहली बार साल 1971 में गर्भपात कानून पारित किया, तो यह दुनिया के सबसे प्रगतिशील कानूनों में से एक था. पचास साल में एक संशोधन के बाद, देश अधिकार-आधारित गर्भपात देखभाल के लिए संघर्ष कर रहा है.

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Symbolbild: Leihmutterschaft
महिला अधिकार संगठनों का कहना है कि नया कानून पर्याप्त नहींतस्वीर: picture-alliance/dpa/D. Fiedler

शिल्पा (बदला हुआ नाम) को पता चला कि वह 21 साल की उम्र में गर्भवती थी. उसने कुछ ही समय पहले भारत की व्यावसायिक राजधानी मुंबई के एक कॉलेज में स्नातक पाठ्यक्रम में दाखिला लिया था. एक बड़े शहर में परेशान और अकेली, शिल्पा ने पास के एक अस्पताल में स्त्री रोग विशेषज्ञ से मिलने का समय लिया और एक ऑटो-रिक्शा से वहां चली गई. उसे बहादुरी के साथ जिस पहले सवाल का उत्तर देना था, वह था, "क्या आप विवाहित हैं?” भारत के कई हिस्सों में यह सवाल तब पूछा जाता है जब डॉक्टर यह जानना चाहता है कि क्या वह व्यक्ति सेक्स का अभ्यस्थ है. चूंकि यहां विवाह पूर्व सेक्स वर्जित है.

चिकित्सीय परामर्श लेते हुए गर्भावस्था के आठ महीने बाद, शिल्पा अपनी पहली नौकरी के लिए बंगलुरू चली गई. कुछ हफ्ते बाद, उसे अलग-अलग नंबरों से फोन आने लगा. कई पुरुषों ने उसे अलग-अलग समय पर फोन किया, दिन में भी और रात में भी. और उससे अजीबोगरीब सवाल पूछने लगे, जैसे ‘क्या तुमने अपने बच्चे को मार डाला?' ‘क्या आपका पति है?' ‘क्या आप अन्य पुरुषों के साथ सो रही हैं?'

दरअसल, शिल्पा की कॉल डीटेल्स लीक हो गई थीं या तो पहले अस्पताल से या फिर स्त्री रोग विशेषज्ञ के क्लिनिक से. लेकिन इनमें से किसी ने भी इस वजह से हुए उनके उत्पीड़न की जिम्मेदारी नहीं ली. अंत में, उसने सभी अज्ञात कॉलर्स को ब्लॉक कर दिया और अपना फोन नंबर बदल दिया. प्रजनन अधिकारों के संबंध में भारत में कुछ अत्यंत प्रगतिशील कानून हैं. हालांकि, गर्भपात से जुड़े सामाजिक मामलों में महिला अधिकारों के बारे में जानकारी के अभाव के चलते शिल्पा जैसी कई दर्दनाक घटनाएं भी सामने आती हैं.

क्या बदलाव हैं?

सभी जरूरतमंदों को व्यापक गर्भपात देखभाल प्रदान करने के लिए भारत सरकार ने हाल ही में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी यानी एमटीपी अधिनियम 1971 में संशोधन किया है. नए कानून का मतलब है कि कई श्रेणियों के लिए गर्भपात की ऊपरी समय सीमा को बीस हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते कर दिया गया है. इन श्रेणियों में बलात्कार पीड़ित, अनाचार की शिकार और अन्य कमजोर महिलाओं को रखा गया है. दंड संहिता के तहत गर्भपात कराना अपराध है, लेकिन एमटीपी के तहत ऐसे मामलों में अपवादों को अनुमति है. अन्य लोग भी इसका फायदा उठा सकते हैं यदि उनके पास 20 सप्ताह से पहले गर्भपात के लिए डॉक्टर की सहमति है. गर्भावस्था की यह सीमा मेडिकल बोर्ड द्वारा बताई गई भ्रूण संबंधी बीमारियों के मामलों पर लागू नहीं होती है.

इसके अलावा, 20-24 हफ्ते के बीच देखभाल के लिए दो स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं की राय आवश्यक है. इस अवधि से पहले, केवल एक प्रदाता की राय आवश्यक है. अंत में विधेयक में एक गोपनीयता खंड पेश किया गया है जिसके तहत कानून द्वारा अधिकृत व्यक्ति को छोड़कर महिलाओं के नाम और अन्य विवरणों का खुलासा नहीं किया जा सकता है. भारत सरकार से संबंधित कंप्रेहेंसिव अबॉर्शन केयर में अतिरिक्त आयुक्त सुमिता घोष कहती हैं, "यह भारत में महिलाओं की सामूहिक इच्छा की जीत है. संशोधनों ने सुरक्षित और कानूनी गर्भपात सेवाओं तक महिलाओं के दायरे और पहुंच में वृद्धि की है.” लेकिन प्रजनन अधिकार संगठनों का कहना है कि कानून सही दिशा में पहला कदम है.

वैधता बनाम अभ्यास

हालांकि भारत के गर्भपात कानून अधिकार-आधारित नहीं थे, लेकिन साल 1971 में एमटीपी अधिनियम पारित होने के समय यह दुनिया में प्रजनन अधिकारों पर कानून के सबसे प्रगतिशील मामलों में से एक था. पचास साल बाद, कानून का मूल उद्देश्य वही है, यानी गर्भपात कराने वालों की सुरक्षा करना क्योंकि गर्भपात भारतीय दंड संहिता के तहत एक अपराध बना हुआ है. महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने की दिशा में काम करने वाले व्यक्तियों और संगठनों के एक नेटवर्क और भारत में सुरक्षित गर्भपात देखभाल के लिए बने प्रतिज्ञा नेटवर्क के अनुसार, "पारित संशोधनों के बावजूद, यह अभी भी कानून नहीं है जो महिलाओं के अधिकारों को आगे बढ़ाता है या सम्मान और न्याय सुनिश्चित करता है. भारत में सुरक्षित गर्भपात तक पहुंचने में महिलाओं और लड़कियों को महत्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ेगा.”

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सबसे बड़ी बाधा अभी भी ‘गर्भनिरोधक की विफलता' है. हालांकि इसे अक्सर एक मुफ्त पास के रूप में देखा जाता है जहां चिकित्सक अच्छे विश्वास के आधार पर निर्णय लेता है. यह पूरी तरह से डॉक्टर के रवैये पर निर्भर करता है. कई मामलों में डॉक्टर द्वारा प्रक्रिया पर हस्ताक्षर करने से पहले गर्भवती महिलाओं से पहचान का प्रमाण या विवाह प्रमाण पत्र भी मांगा जाता है. शोषण को रोकने के लिए कोई सुरक्षा उपाय नहीं हैं. प्रतिज्ञा नेटवर्क के मुताबिक, "देश वास्तव में प्रगतिशील, अधिकार-आधारित गर्भपात कानून तैयार करने का एक बड़ा अवसर चूक गया है.”

कलंक का अहसास

भारत जैसा देश भी जो कि प्रगतिशील गर्भपात कानूनों का दावा करता है, असुरक्षित गर्भपात को मातृ मृत्यु के तीसरे प्रमुख कारण के रूप में देखता है. करीब अस्सी फीसद भारतीय महिलाओं को इस बात का अंदाजा नहीं है कि 20 सप्ताह के भीतर गर्भपात कानूनी हो सकता है. भारतीय परिवेश में पसंद की अवधारणा अनिश्चित बनी हुई है. स्त्री रोग विशेषज्ञ और एशिया सेफ अबॉर्शन पार्टनरशिप की सह संस्थापक डॉक्टर सुचित्रा दल्वी कहती हैं, "1.36 अरब के देश में केवल लगभग 50,000-70,000 प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ) हैं. इनमें से ज्यादातर शहरों या कस्बों में हैं और उनमें से सभी गर्भपात कराने में सक्षम नहीं हैं.”

संशोधनों को छूटे हुआ अवसर बताते हुए वो कहती हैं कि इसमें उनके संबंध में कुछ चूक हो गई है जो गर्भावस्था को जारी नहीं रखना चाहती थीं. सुचित्रा दल्वी कहती हैं कि संशोधन गर्भवती महिलाओं की स्वायत्तता में वृद्धि नहीं करते हैं या गर्भपात को कम करने की दिशा में कोई बड़ा कदम नहीं उठाते हैं. संशोधन यह भी सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं कि किसी को भी असुरक्षित गर्भपात के लिए मजबूर या दूर नहीं किया जाता है या फिर गर्भपात की गोलियों तक बेहतर पहुंच प्रदान नहीं की जाती है.

डीडब्ल्यू से बातचीत में शिल्पा कहती हैं, "मैं विशेषाधिकार की श्रेणी में आती हूं लेकिन इस वजह ने भी मेरी पसंद के मामले में मुझे परेशान करने से किसी को नहीं रोका. उन लाखों महिलाओं के लिए जिनके पास कानूनी सहारा नहीं है, गर्भपात संबंधी देखभाल एक दूर का सपना बना हुआ है.”

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