‘तीन बच्चे मरें, तब तो वे आपकी बात सुनते हैं’
४ मई २०२१कोरोना वायरस महामारी के दौरान अन्य स्वास्थ्यगत समस्याओं पर ध्यान कम हो गया है. ब्रिटेन के दो शोधकर्ताओं और उनकी टीम ने शोध के बाद कई रिपोर्ट तैयार की हैं जो द लांसेट मेजिकल जर्नल में छपी हैं. इनमें नजरअंदाज हो रही एक समस्या पर विस्तार से बात की गई है. वॉरविक यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर सियोबान क्वेन्बी और बर्मिंगम यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर आरी कुमारास्वामी ने अपने अध्ययन का आदर्श वाक्य रखा है – मिसकैरिज मैटर्स.
दोनों शोधकर्ताओं ने उन महिलाओं के दुख की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की है, जो गर्भपात के कारण अपने बच्चे खो देती हैं. एक अनुमान के मुताबिक ऐसी महिलाओं की संख्या दुनिया में करीब दो करोड़ तीस लाख है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक गर्भ के दौरान बच्चों को खो देने की सबसे आम वजह गर्भपात ही है. 10 प्रतिशत से ज्यादा महिलाओं को गर्भपात झेलना पड़ा है. और गर्भपात होने का खतरा 15.3 प्रतिशत महिलाओं में होता है.
मानसिक और शारीरिक सेहत पर असर
गर्भपात के पीड़ितों की इतनी बड़ी तादाद के बावजूद इस समस्या पर जरूरत के मुताबिक ध्यान नहीं दिया जाता. प्रोफेसर क्वेन्बी कहती हैं कि जहां तक फंडिंग की बात है तो गर्भपात का नंबर फंडिंग पाने वालों की सूची में काफी नीचे होता है. प्रसूतिविज्ञानी प्रोफेसर क्वेन्बी मानती हैं कि इस क्षेत्र में और ज्यादा रिसर्च की जरूरत है और डॉक्टरों को गर्भपात से गुजरने वाली महिलाओं को संभालने के लिए अलग-अलग तरीके खोजने चाहिए, जो तभी हो सकता है जब ज्यादा धन मिले.
शोधकर्ताओं ने ब्रिटेन के अलावा फिनलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क, अमेरिका और कनाडा में हुए मामलों का अध्ययन किया. इन शोध रिपोर्ट्स में पांच लाख से ज्यादा महिलाओं पर अध्ययन हुआ है. प्रोफेसर क्वेन्बी कहती हैं कि गर्भपात का इन्सान के मनोविज्ञान पर गहर असर पड़ता है और स्वास्थ्यगत समस्याएं भी लंबे समय तक परेशान कर सकती हैं. उन्होंने बताया, "अगर आपको बार-बार गर्भपात होता है तो भविष्य में गर्भ ठहरने की संभावनाएं प्रभावित होती हैं. हृदय रोग और स्ट्रोक का खतरा भी बढ़ जाता है.”
वह कहती हैं कि आज भी डॉक्टर पहले गर्भपात को गंभीरता से नहीं लेते. वह कहती हैं, "हम औरतें कैसे इसे अब तक सहन करती रही हैं? यह वैसा ही है कि किसी को अस्पताल में तभी भर्ती किया जाएगा जब उसे तीसरा हार्ट अटैक आ जाए. लेकिन गर्भपात के मामले में वे आपसे बात तभी करेंगे जब आप तीन बच्चे खो चुकी हों.”
बदलाव की जरूरत
प्रोफेसर क्वेन्बी कहती हैं कि इस मामले में नजरिये में बदलाव की जरूरत है. उनके मुताबिक महिलाओं को कितने गर्भपात हो चुके हैं उसके हिसाब से अलग-अलग तरह की मदद मिलनी चाहिए और इसमें पहला गर्भपात भी शामिल है. शोध में यह बात भी सामने आई है कि अश्वेत महिलाओं में गर्भपात का खतरा श्वेत महिला से 43 फीसदी ज्यादा होता है. हालांकि इसकी कोई ठोस वजह नहीं है लेकिन क्वीन्बी और कुमारास्वामी कहती हैं कि कई कारण हो सकते हैं.
प्रोफेसर क्वीन्बी बताती हैं, "मसलन, हम जानते हैं कि अश्वेत लोगों में डायबिटीज और हाइपरटेंशन का खतरा ज्यादा होता है. ऐसी चीजें अश्वेत गर्भवती महिलाओं में ज्यादा होती हैं.” शोधकर्ताओं के मुताबिक कोविड महामारी ने हालात को और खराब किया है. ज्यादातर स्वास्थ्यकर्मी और अस्पताल महामारी से निपटने में व्यस्त हैं इसलिए गर्भवती महिलाएं नजरअंदाज हो सकती हैं.
प्रोफेसर क्वीन्बे बताती हैं कि ऐसे भी मामले देखने को मिले हैं कि जब पति कार पार्क कर रहे थे तब गर्भपात हो गया और महिला अपने पति को बताने तक नहीं आ सकी, तो अस्पताल के कर्मचारियों ने उसे बताया. वह बताती हैं, "तब हमने देखा कि महिला अस्पताल में रो रही थी और पति कार पार्क में.” वह कहती हैं कि गर्भपात पति-पत्नी दोनों को प्रभावित करता है और यदि आप सिर्फ महिला से बात कर रहे हैं तो यह नाकाफी है.
- कार्ला ब्लाइकर