विचाराधीन कैदियों के मुकदमों में देरी मौलिक अधिकार का हनन
३ फ़रवरी २०२१गैरकानूनी गतिविधां निरोधक कानून, यूएपीए के एक दोषी को जमानत देने के केरल हाई कोर्ट के एक आदेश को चुनौती देने वाली राष्ट्रीय जांच एजेंसी, एनआईए की याचिका ठुकराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों ये अहम जजमेंट दी है. मानवाधिकार हल्कों से लेकर विधि और सुरक्षा विशेषज्ञों के बीच इस कानून के दायरे और दुरुपयोग को लेकर सवाल पूछे जाते रहे हैं. इसके प्रावधानों को शिथिल करने की मांग और बहस भी होती रही है. वैसे सुप्रीम कोर्ट का फैसला पुलिस के हाथ बांधने वाला नहीं है. ये बताता है कि सुरक्षा के लिए कड़े कानून जरूरी हो सकते हैं, लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में उनका सावधानी से इस्तेमाल जरूरी है.
मीडिया में प्रकाशित खबरों के मुताबिक जस्टिस एनवी रामन्ना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ के मुताबिक अगर तय अवधि में सुनवाई पूरी नहीं होती है तो किसी भी सूरत में जमानत न देने का प्रावधान शिथिल पड़ता जाएगा. कोर्ट ने एनआईए की दलील को नहीं माना कि केरल हाईकोर्ट से दोषी को जमानत देने में चूक हुई है. ये मामला 2011 का है जिसमें अभियुक्त और उसके कुछ सहयोगियों पर एक कॉलेज प्रोफेसर की हथेली काट देने के आरोप में यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था. सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक हाईकोर्ट ने विचाराधीन कैदी को जमानत पर सशर्त रिहाई देते हुए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल किया क्योंकि जेल में रहते हुए अभियुक्त को काफी समय हो गया था और निकट भविष्य में दूर दूर तक सुनवाई के खत्म होने के आसार नहीं थे. सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक हाईकोर्ट ने जो कारण गिनाए हैं उन्हें संविधान के अनुच्छेद 21 में भी देखा जा सकता है जो मौलिक अधिकारों की गारंटी से जुड़ा है लिहाजा उस फैसले को बहाल रखा गया.
पचास सालों में सख्त होता गया कानून
2019 में जब यूएपीए संशोधन बिल लाया गया था तो राज्यसभा में इस पर तीखी बहस हुई थी. विपक्षी दलों के नेताओं ने एक सुर में बिल के कड़े प्रावधानों को लोकतंत्र का गला घोंटने वाला करार दिया था. सरकार बिल पास कराने में सफल रही लेकिन इसे लेकर दुश्चिन्ताएं और बहसें कम नहीं पड़ी हैं. जानकारों का कहना है कि कानून का अत्यधिक इस्तेमाल इसे निरंकुशता का हथियार बना सकता है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को और नुकसान पहुंचाएगा. आतंक निरोधी कानून के रूप में पहली बार 1967 में ये कानून अस्तित्व में आया था.
कड़े कानूनों और एक तरह से प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ कानून की शुरुआत 1950 में लाए गए पीडीए यानी प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट से हो गयी थी. इससे पहले 1985 में आए टाडा के रूप में भी देश एक और कड़ा कानून देख चुका है जिसे मानवाधिकार कार्यकर्ता काला कानून भी कहते थे. न्यूजक्लिक वेबसाइट की एक रिपोर्ट के मुताबिक टाडा के तहत 1985 से 1995 की दस साल की अवधि में 76 हजार से अधिक लोग गिरफ्तार किए गए थे लेकिन एक प्रतिशत पर ही दोष सिद्ध हो पाया. अमेरिका में 9/11 के बाद लाए गए कानूनों की तरह भारत में भी पोटा के रूप में एक और कड़ा कानून 2001 में लाया गया. यूएपीए अपने प्रावधानों में उससे भी सख्त और डरावना माना जाता है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट और उससे पहले केरल हाईकोर्ट का आदेश, इस कानून से जुड़ी दुरुपयोग की चिंताओं को भी रेखांकित करता है.
हजारों मामले लेकिन सुनवाई में देरी
पिछले साल सितंबर में राज्यसभा में एक लिखित जवाब में सरकार ने बताया था कि 2016 से लेकर 2019 तक की अवधि में 3005 मामले यूएपीए के तहत दर्ज किए गए थे. और एक्ट के तहत 3974 लोगों की गिरफ्तारी हुई थी. द हिंदू अखबार की एक रिपोर्ट के मुताबिक सरकार ने बताया कि ये आंकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, एनसीआरबी से हासिल हुए थे जिसने 2014 से यूएपीए के मामलों को अलग कैटगरी में डालना शुरू किया था. तबसे मामले भी बढ़ते ही जा रहे हैं. 2016 में 922 मामले दर्ज हुए थे, 2017 में 901 और 2018 में 1182. अगर डाटा संग्रहण की वेबसाइट, स्टेटिस्टा में प्रकाशित 2019 के 1226 दर्ज मामलों को भी जोड़ लें तो पिछले चार साल में पांच हजार से ज्यादा मामले दर्ज हो चुके हैं.
यूएपीए के तहत माओवादी होने के आरोपों में जेल में बंद 38 वर्षीय आदिवासी एक्टिविस्ट कंचन नानावरे का मामला भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश की रोशनी में देखा जा सकता है. उनकी पिछले दिनों 24 जनवरी को मौत हो गयी थी. वो दिल और दिमाग की तकलीफों से जूझ रही थीं और 16 जनवरी को उन्हे पुणे के राजकीय अस्पताल में भर्ती कराया गया था. मीडिया रिपोर्टो के मुताबिक कंचन छह साल से अपने मुकदमे की सुनवाई का इंतजार कर रही थीं, सेशन अदालत में उनकी जमानत अर्जी खारिज हो चुकी थी और बंबई हाईकोर्ट में लंबित थी. केरल हाईकोर्ट का आदेश और उस पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर, संभवतः उनके मामले में भी नजीर बन सकती थी. बहरहाल इतना तो तय है कि यूएपीए जैसे कड़े कानूनों में भी मौलिक अधिकारों को महफूज रखे जाने के बारे में न्यायिक दृष्टि स्पष्ट है. और आने वाले समय में कई विचाराधीन मामलों पर इसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता. सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लोकतंत्र की आवाज के रूप में देखा जाना चाहिए.
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