लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का दलदल
१३ दिसम्बर २०१६यह जान कर भारी हैरत हो सकती है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के चुनाव आयोग के समक्ष पंजीकृत 1,900 से ज्यादा राजनीतिक दलों में से 4,00 ने आज तक कभी कोई चुनाव ही नहीं लड़ा है. अब आयोग हर साल ऐसे दलों की छंटनी पर विचार कर रहा है. नोटबंदी के बाद कालेधन पर निगाह जमाए सरकार की निगाह अब इन पंजीकृत दलों पर है. जवाबदेही से बचने के लिए ही तमाम राजनीतिक दल सूचना के अधिकार यानी आरटीआई के दायरे में आने का विरोध कर रहे हैं.
कालाधन को सफेद बनाते दल
देश के पंजीकृत राजनीतिक दलों को आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13 ए के तहत आयकर से छूट मिलती है. उनके लिए दान या चंदा लेने की कोई अधिकतम सीमा तय नहीं है. उनको सिर्फ उस लेन-देन का ब्योरा चुनाव आयोग के समक्ष पेश करना होता है जो 20 हजार या उससे ज्यादा हो. इससे कम की रकम का कोई हिसाब उसे नहीं देना होता. इसी का लाभ उठा कर तमाम राजनीतिक दलों पर कालेधन को सफेद करने और चुनावों में बेहिसाब कालाधन खर्च करने के आरोप लगते रहे हैं. एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाली 75 फीसदी रकम का स्त्रोत अज्ञात है. मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी का कहना है कि आयोग में पंजीकृत डमी राजनीतिक दल कालाधन को सफेद करने का जरिया हो सकते हैं. वह कहते हैं कि ऐसे दलों की जांच के बाद पंजीकृत दलों की सूची से उनके नाम हटा देने से उनको आयकर से मिलने वाली छूट भी खत्म हो जाएगी. अब आयोग ने राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारियों से ऐसे पंजीकृत दलों की सूची तैयार करने को कहा है जिन्होंने कभी भी चुनाव नहीं लड़ा है. उनको मिलने वाले चंदे व दान की रकम का भी ब्योरा मांगा गया है.
मुख्य चुनाव आयुक्त का कहना है कि अब हर साल नियमित रूप से ऐसे दलों की गतिविधियों पर निगाह रखी जाएगी और सूची से उनका नाम हटाने का फैसला किया जाएगा. जैदी सवाल करते हैं, "आखिर पंजीकरण के बरसों बाद भी चुनाव लड़ने वाले दलों का मकसद क्या है? जब चुनाव नहीं लड़ना है तो पंजीकरण का क्या मतलब?" उनको अंदेशा है कि आयकर छूट की आड़ में ऐसे दल काले धन को सफेद बनाने में जुटे हैं. चुनावों को पारदर्शी और भ्रष्टाचारमुक्त बनाने के लिए आयोग ने सरकार से एक कानून बना कर वोटरों को पैसे बांटने और पेड न्यूज छपवाने को अपराध की श्रेणी में रखने में सिफारिश की है. जैदी कहते हैं, "इन दोनों को अपराध की श्रेणी में रखने पर दोषियों को बिना जमानत के गिरफ्तार किया जा सकता है." इसी तरह उन्होंने झूठा हलफनामा दायर करने वाले उम्मीदवारों की सजा छह महीने से बढ़ा कर दो साल करने को भी कहा है. चुनावों को साफ-सुथरा बनाने के लिए आयोग जनप्रतिनिधित्व कानून की भी समीक्षा कर रहा है. जैदी कहते हैं, "चुनावों के दौरान वोटरों को पैसे बांटना और पेड न्यूज छपवाना अब आम हो गया है. इससे कई किस्म की समस्याएं पैदा हो रही हैं."
आरटीआई का विरोध
तमाम राजनीतिक दल सूचना के अधिकार के दायरे में शामिल किए जाने का विरोध कर रहे हैं. सीपीएम जैसी सर्वाहारा पार्टी भी इसके सख्त खिलाफ है. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के जवाब में केंद्र सरकार ने कहा था कि राजनीतिक दलों को इस कानून के दायरे में लाने पर उनका अंदरुनी और राजनीतिक कामकाज प्रभावित होगा. केंद्रीय सूचना आयोग ने वर्ष 2013 में कांग्रेस, बीजेपी और सीपीएम समेत छह दलों को उक्त कानून के दायरे में लाने का फैसला किया था. लेकिन तमाम दलों ने उसका विरोध करते हुए उक्त आदेश नहीं माना. सीपीएम नेता वृंदा कारत कहती हैं कि उनकी पार्टी का कामकाज पारदर्शी है और वह हर साल अपने आय-व्यय का लेखा-जोखा चुनाव आयोग के समक्ष पेश करती रही है. वृंदा कहती हैं, "राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने पर सरकार को उनकी जासूसी करने और उन्हें परेशान करने का मौका मिल जाएगा. हम कभी ऐसा नहीं होने देंगे." लेकिन क्या राजनीतिक दलों को नकदी की बजाय महज चेक या आनलाइन ट्रांसफर के जरिए चंदा नहीं लेना चाहिए? इस सवाल पर उनका कहना है कि माकपा गरीबों, मजदूरों व किसानों की पार्टी है. हम घर-घर जाकर पांच-दस रुपए चंदा लेते हैं. हमें चंदा देने वालों के पास बैंक खाते तक नहीं हैं.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दाल में कुछ काला तो जरूर है. एक विश्लेषक प्रोफेसर मंजीत गोस्वामी कहते हैं, "सरकार और आयोग को पहले ही इस बात की जांच करना चाहिए थी कि आखिर बरसों से पंजीकरण कराने वाले दल चुनाव क्यों नहीं लड़ रहे हैं. उनका मकसद क्या है?" वह कहते हैं कि आयकर से मिली छूट का लाभ उठा कर ऐसे दल बेहिसाब रकम बटोरते रहे हैं. ऐसे में कालेधन को सफेद बनाने के अंदेशे से इंकार नहीं किया जा सकता. विश्लेषकों का कहना है कि अब सरकार को ऐसे दलों के खातों की जांच करनी चाहिए और जरूरत पड़े तो इसके लिए मौजूदा कानूनों में संशोधन करना चाहिए. ऐसा होने पर ही चुनावी खर्च और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकेगा.