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समाज

मौत के गलियारे में फंसते हाथी

प्रभाकर मणि तिवारी
१२ नवम्बर २०१८

भारत में बढ़ती आबादी व सिकुड़ते जंगल की वजह से हाथियों की आवाजाही के लिए बने गलियारे उनके लिए मौत के रास्ते साबित हो रहे हैं. हाल में ओडीशा में सात हाथियों की मौत से यह बात सामने आई है.

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Indien Elephanten Umsiedlung
तस्वीर: Reuters/A. Chinappa

इंसानों और हाथियों के बीच बढ़ते संघर्ष में हाथियों के अलावा चार से साढ़े चार सौ लोगों की भी मौत हो जाती है. हाथियों की याददाश्त बेहद तेज होती है. वह लंबे अरसे तक अपनी आवाजाही का रास्ता याद रख सकते हैं. लेकिन उन रास्तों पर अतिक्रमण बढ़ने की वजह से एक ओर जहां हाथी असमय ही मौत के मुंह समा रहे हैं वहीं दूसरी ओर इंसानों के सथ उनके संघर्ष की घटनाएं भी तेज हो रही हैं.

संकट में हाथी

इस साल जून में हरिद्वार के राजाजी टाइगर रिजर्व के मोतीचूर इलाके में 70 किमी प्रति घंटे की गति से गुजरती देहरादून-काठगोदाम एक्सप्रेस की चपेट में आकर एक हथिनी की मौत हो गई. बीते महीने पश्चिम बंगाल में ऐसी ही एक अन्य घटना में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की चपेट में एक शावक समेत तीन हाथियों की मौत गई थी. इससे पहले बीते साल दिसंबर में गुवाहाटी-नाहरलागून एक्सप्रेस की टक्कर से बामगांव हाथी कारीडोर में पांच हाथियों की मौत हो गई थी. अब हाल में ओडीशा में सात हाथियों की मौत का मामला सामने आया है. खतरनाक तरीके से बढ़ रही इन घटनाओं ने वन्यजीव विशेषज्ञों को चिंता में डाल दिया है.

Indien Elefant auf den Gleisen
तस्वीर: picture-alliance/dpa

दरअसल, हाथियों की आवाजाही के लिए बने गलियारे उनकी सुरक्षा करने और आबादी संतुलित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं. हाथियों का झुंड इन कारीडोर से होकर ही एक जगह से दूसरे जगह तक जाता है. इस राह में बनने वाली सड़कें, रेलवे की पटरियों, बिजली के खंभों, नहरों और इंसानी बस्तियों ने हाथियों को अपना प्राकृतिक रास्ता बदलने पर मजबूर कर दिया है. नतीजतन हाथियों की मौत के साथ ही इंसानों के साथ उनके संघर्ष की घटनाएं भी बढ़ी हैं.

देश में हाथियों की आवाजाही के लिए 110 गलियारे हैं. इनमें से 23 पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से में हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि इनमें से 70 फीसदी का नियमित रूप से इस्तेमाल होता है जबकि बाकी का कभी-कभार. लेकिन इनमें से 29 फीसदी गलियारों पर इंसानों का अतिक्रमण हो गया है. इसके अलावा 66 फीसदी गलियारे ऐसे हैं जिनसे होकर हाइवे गुजरता है. 22 फीसदी गलियारे से रेलवे की पटरियां गुजरती हैं. चार दूसरे गलियारों में भी रेलवे लाइन बिछाने की योजना है. वन्यजीव विशेषज्ञों का कहना है कि वर्ष 1987 से जून, 2017 के बीच देश के विभिन्न हिस्सों में ट्रेनों से कट कर लगभग 265 हाथियों की मौत हो चुकी है.

दिल्ली स्थित वाइल्डलाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया की ओर से बीते साल राइट आफ पैसेजःएलीफैंट कारीडोर्स आफ इंडिया नाम की रिपोर्ट में कहा गया है कि हर साल ट्रेनों की टक्कर, बिजली का झटका लगने और सड़क हादसों में औसतन सौ हाथियों की मौत हो जाती है. इसी रिपोर्ट में कहा गया कि इंसानों और हाथियों के बीच लगातार तेज होते संघर्ष में हर साल चार से साढ़े चार सौ लोगों की मौत हो जाती है. हाथियों के जिन गलियारों में इंसानी बस्तियां बढ़ रही हैं उनमें से सबसे ज्यादा 13 पश्चिम बंगाल में हैं. इसके बाद ओडीशा (नौ) और असम (आठ) का स्थान है. पश्चिम बंगाल हाथियों की मौतों के मामले में दूसरे नंबर पर रहा है. कभी कर्नाटक तो कभी ओडीशा पहले नंबर पर रहते हैं. राज्य सरकार की दलील है कि बढ़ती तादाद और घटते भोजन की वजह से इंसानों और जानवरों के बीच संघर्ष की घटनाएं बढ़ी हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि तेजी से सिकुड़ते जंगल और आवाजाही के रास्ते पर बढ़ते अतिक्रमण ने हाथियों को सीमित जगह में रहने पर मजबूर कर दिया है. केरल फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के पूर्व प्रमुख पी.एस. ऐशा कहते हैं, "हाथियों की कुल आबादी का लगभग 40 फीसदी संरक्षित वन क्षेत्र में नहीं रहता. उनके रहने की जगह दिन-ब-दिन सिकुड़ती जा रही है.” वह कहते हैं कि तेजी से कटते जंगलों और तेज होते शहरीकरण ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया है.

एक सींग वाले गैंडों के लिए पूरी दुनिया में मशहूर पश्चिम बंगाल के जलदापाड़ा नेशनल पार्क के पूर्व रेंजर रंजन कहते हैं, "जंगल से सटी बस्तियों में स्थानीय लोग पीढ़ी दर पीढ़ी जानवरों के साथ रहने-जीने के अभ्यस्त हैं लेकिन जंगल के सिकुड़ने की वजह से अब इन दोनों के बीच संघर्ष की घटनाएं बढ़ रही हैं. इन पर अंकुश लगाने के लिए जहां जंगल को बचाना ज़रूरी है, वहीं इंसानों को यह याद दिलाना भी ज़रूरी है कि हमारे पर्यावरण के लिए जंगल और दूसरे जीव भी काफी महत्वपूर्ण हैं.”

लोकसभा में चर्चा

हाथियों के रहने की जगह के सिकुड़ने का मुद्दा हाल में लोकसभा में भी उठा था. आखिर सरकार इस समस्या को दूर करने के लिए क्या कर रही है? इस सवाल के जवाब में पर्यावरण मंत्रालय ने बताया था कि केंद्र सरकार ने राज्यों के साथ मिल कर जंगलों की कटाई पर अंकुश लगाने और नए पेड़ लगाने जैसे कई कदम उठाए हैं. इसके लिए प्रोजेक्ट एलीफैंट परियोजना के तहत राज्यों को सहायता मुहैया कराई जा रही है. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इस मामले में अभी काफी कुछ किया जाना है. ऐशा कहते हैं, "राज्यों की प्रशासनिक सीमाओं से ऊपर उठते हुए एलीफैंट रिजर्व को बचाने-बढ़ाने के लिए बेहतर प्रबंधन योजनाएं तैयार की जानी चाहिए.”

समय-समय पर अदालतें भी इस मामले में हस्तक्षेप करती रही हैं. मिसाल के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने बीते नौ अगस्त को एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद तमिलनाडु सरकार को नीलगिरी पहाड़ियों में हाथियों के कारीडोर में बने 39 होटलों को 48 घंटे के भीतर बंद करने का निर्देश दिया था. इसी तरह सामुदायिक स्तर पर भी कुछ पहल हुई है. वर्ष 2015 में असम के कार्बी-ग्लांग जिले के राम तेरांग गांव के लोग स्वेच्छा से अपना गांव खाली कर दूसरी जगह बस गए थे ताकि काजीरंगा नेशनल पार्क से हाथियों की आवाजाही प्रभावित नहीं हो. तब इलाके के दौरे पर गए ब्रिटेन के प्रिंस विलियम और उनकी पत्नी केट विलियम ने भी इस पहल की सराहना की थी.

विशेषज्ञों का कहना है कि एकाध ऐसी घटनाओं से स्थिति में खास सुधार होने की गुंजाइश कम ही है. इसके लिए केंद्र व राज्य सरकारों को वन्यजीव प्रेमियों और उनके संगठनों के साथ मिल कर एक ठोस योजना तैयार कर उसे अमली जामा पहनाना होगा. इसमें हाथियों के रहने की जगह बढ़ाने और उसके संरक्षण को प्राथमिकता देनी होगी. ऐसा नहीं हुआ तो हाथियों के साथ-साथ इंसान भी असमय मरते रहेंगे.

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