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"मैं भारत का किसान हूं"

ओंकार सिंह जनौटी | निखिल रंजन
७ अक्टूबर २०१८

मेरी मेहनत धरती के कोने कोने पर मौजूद लोगों का पेट भरती है, मेरा नाम लेकर सरकारें बनती हैं, कंपनियां सब्सिडी कमाती हैं, पर हर गुजरते दिन के साथ मैं और गरीब हो जाता हूं...मैं भारत का किसान हूं.

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Indien Ochsenkarren Ochse Kuh
तस्वीर: Narinder Nanu/AFP/Getty Images

हर सुबह जब नर्म बिस्तर में लेट कर आप चाय पी रहे होते हैं तब मैं गन्ने की खेती में जुटा रहता हूं ताकि आपकी चाय मीठी रहे. यह दूध जिसमें चाय की पत्तियां उबाली गईं हैं उसे देने वाली गाय का चारा भी मैं ही उगाता हूं. चाय की पत्तियों के लिए बागानों में भी मेरा ही पसीना बहता है. मुझे उस कपास की भी चिंता है जिनसे निकली सूत से आपके घर के बिस्तर और आपका बदन ढंकने वाले कपड़े बने हैं. मेरी फिक्र यहीं खत्म नहीं होती, आपके नाश्ते से लेकर रात के खाने तक का इंतजाम करने के लिए पसीना मैं ही बहाता हूं. हर मौसम, वक्त और मिजाज के हिसाब से आपकी जरूरतों को पूरा करने में मेरी सुबह कब शाम में ढल जाती है, मुझे पता नहीं चलता. 

मैं एक किसान हूं, उम्र कुछ भी हो सकती है 7-8 साल से लेकर 70-75 तक या फिर इन हाथों में ताकत रही तो उसके बाद भी. मैं भारत के हर इलाके में पाया जाता हूं. मेरे पास थोड़ी सी जमीन है और उसी को हरा भरा रखने के लिए, मैं हर सुबह सूरज निकलने से पहले उठ जाता हूं. उबड़ खाबड़ रास्तों पर पैदल चल कर खेत तक पहुंचता हूं और फिर दम भर मेहनत करता हूं. इस दम पर उम्र और मेरी सेहत का भी असर होता है लेकिन मेरे पास और कोई रास्ता नहीं.

मेरे खेतों को पानी चाहिए, मेरे पास ट्यूबवेल लगाने का पैसा नहीं. बैंक कर्ज देते नहीं और महाजन इतना ब्याज वसूलता है कि कई पीढ़ियां कर्जे में डूब जाती हैं. आपके जीने के तौर तरीकों ने आबोहवा का भी वो हाल कर दिया है कि ना बारिश समय पर होती है ना गर्मी काबू में रहती है. मेरे खेत प्यासे हैं और अब ऊपरवाले से फरियाद करने या मेढकों की शादी कराने से भी कुछ नहीं होता. मैं दूसरों से बार बार पानी उधार देने की मिन्नतें करता हूं और उनके अहसान तले दबता चला जाता हूं. जहां ऐसा मुमकिन नहीं, वहां मैं और मेरा परिवार पानी ढो ढोकर लाते हैं.

जब मैं खेतों में काम कर रहा होता हूं तब मेरी बीवी मवेशियों का पेट भरने, मेरे लिए रोटी पकाने और मेरे बच्चों को संभालने में जुटी रहती है. मेरे बच्चे जब पढ़ने जाते हैं तो ना उनके पैरों में चप्पल होती है ना स्कूलों में बेंच. कई बार तो खुले आसमान के नीचे ही मास्टरजी उन्हें पढ़ा देते हैं. स्कूल में जब एक एक कर बच्चों से पूछा जाता है कि तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं, तो मेरे बच्चे लजा कर कहते हैं कि पिताजी किसान हैं. यह जानने के बाद से ही मौन रूप से मेरे बच्चों को गंवार और मुझे अनपढ़ घोषित कर दिया गया है.

आप लोगों के जीवन में कई नए पल आते हैं. लेकिन मेरे जीवन में ऐसा ही रूखापन है. दोपहर में, मैं कभी दराती तेज करता हूं तो कभी कुदाल में लकड़ी की फट्टी फंसाकर उसे कसने करने में लगा रहता हूं. रस्सी टूटने पर मैं हर बार उसमें गांठ लगाता हूं. कोई नया औजार या बीज खरीदने से पहले मैं सिर खुजाते हुए 10 बार सोचता हूं. दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद रात घिरने पर जब मैं बिस्तर पर लेटता हूं तो बीवी की चूड़ियों की खनक में टूटे अरमानों की सिसकियां सुनाई देती हैं लेकिन सपनों में मुझे मेरे खेत, बीज, हल, और कर्ज ही दिखते हैं.

मंडी, न्यूनतम समर्थन मूल्य, डीएम, एसडीएम और ग्राम विकास अधिकारी ये सब मेरे लिए बड़ी दूर की बातें हैं. हर बार जब चुनाव आता है तो कई नेता नजर आते हैं. उनके बयान सुनता हूं कि वो किसानों की भलाई के लिए राजनीति में आए हैं, करोड़ों करोड़ों रुपये खर्च होने के एलान भी सुनता हूं लेकिन मैंने कभी उन पैसों की एक पाई तक नहीं देखी. गांव की राजनीति में सक्रिय कुछ बड़े किसान जब मुझसे कहते हैं कि हक की लड़ाई के लिए प्रदर्शन करने आओ. तब मेरे जैसे हजारों किसान जुटते हैं. हमारी एकता उन्हें किसान से ताकतवर नेता में बदल देती है. लेकिन मैं भीड़ में खो जाता हूं. प्रदर्शनों में मैं तमाशबीन की तरह आपकी लाठी या गोली खाता हूं. फिर जख्मों को सहलाता हूं और अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में लौट आता हूं.

अब आप पढ़े लिखे लोग ही बताइए कि मैं क्या करूं. देश के आजाद होने के बाद से लेकर आज तक आप लोगों ने ही मेरी तकदीर संवारने का ठेका ले रखा है. मेरी जिंदगी बेहतर करने के नाम पर आपने, अपने लोगों के नाम से दर्जनों योजनाएं बना दीं. इन योजनाओं और नारों के चलते आप और आपके नाती पोते तो कहां से कहां पहुंच गए, लेकिन मैं कभी आत्महत्या करने पर मजबूर हुआ तो कभी दिहाड़ी मजदूर बनने पर. 1947 से लेकर आज तक किसान और कृषि का क्या हुआ, अगर इसका मूल्यांकन किया जाए तो बताइए कि नाकाम कौन हुआ?

(भारत के बेहाल किसान को अगर कोई अपने दिल की बात कहने और कोई उसे सुनने वाला भी हो, तो शायद कुछ इसी तरह की व्यथा सुनने को मिलेगी. हम और आप भी इससे अंजान नहीं है. लेकिन इस व्यथा को शब्द देने वाले ओंकार सिंह जनौटी चाहते हैं कि इसे हम सब समझें, गंभीरता से लें और इसे दूर करने के बारे में भी सोचे.)