भारत ने बापू से किनारा कर लिया
२९ जनवरी २०१८आजाद भारत ने मोहनदास करमचंद गांधी को राष्ट्रपिता मान कर यह जताया कि यह देश वैसा होगा जैसा वो बनाना चाहते थे. महात्मा गांधी लोगों के लिए एक इंसान नहीं बल्कि एक विचार हैं. दुनिया के कोने कोने में बैठे लोग उनसे जुड़ाव महसूस करते हैं. महात्मा गांधी के परिवार के लोगों को यह सब देख कर क्या महसूस होता है?
आप महात्मा गांधी के वंशज हैं और ऐसा होने का कुछ खास मतलब है आपके जीवन में, यह बात आपको कब पता चली और इसका क्या असर हुआ?
मुझे ये बात बचपन में ही बता दी गई थी कि मैं एक ऐसी हस्ती का वंशज हूं जिसकी ख्याति दुनिया भर में है. इसके साथ ही मुझे यह भी बता दिया गया कि मैं सिर्फ उनका वंशज हूं. इसके कारण मुझे खुद को कुछ बहुत खास मानने की जरूरत नहीं है. ये दोनों बातें बहुत सरलता से मेरे बचपन में बता दी गई थी. मुझे बताया गया कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में जरूर हुआ जिसके पूर्वज जरूर एक महान व्यक्ति थे लेकिन मुझे कुछ उससे अपने लिए कोई खास मतलब निकालना है ऐसा नहीं है. तो बचपन से ही ये दोनों बातें बताई गईं जिसके कारण मेरे लिए इसका संतुलन रखना बहुत आसान हो गया था.
कभी इस वजह से किसी जिम्मेदारी का अहसास भी होता है?
हां बिल्कुल...मुझे बिल्कुल इसका अहसास होता है. मुझसे यह कहा गया कि तुमसे लोगों की काफी अपेक्षाएं होंगी और यह भी कहा गया कि उसके कारण तुम्हें कोई कृत्रिम जीवन जीने की जरूरत नहीं. तुम जैसे हो वैसे ही रहो. लोगों की अपेक्षाओं के कारण एक अलग तरह से जीना है उसकी जरूरत नहीं. स्वाभाविक रूप से जो होता है वही करो. तो एक जिम्मेदारी है, यह अहसास भी बहुत पहले हो गया.
कभी इस विरासत को लेकर मन में कोई द्वंद्व, दुविधा, पीड़ा, या ताकत का अहसास भी हुआ, कभी कोई ऐसा पल आया हो आपकी जिंदगी में जब इनमें से कोई चीज घटती या बढ़ती महसूस हुई?
मुझे यह दुविधा नहीं हुई क्योंकि मैं अपनी मर्यादाएं जानता था. मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा कि मैं लोगों की आशाओं पर खरा उतरूं. मुझसे जो हो पाता है मैं करता हूं. पहले भी वैसे ही जिया और आज भी ऐसे ही जी रहा हूं. मैं बड़ी पारदर्शिता से अपना जीवन जीता हूं. मेरा ऐसा जीवन नहीं है जो लोगों के सामने कुछ अलग और निजी रूप से कुछ और हो. मैं जैसा हूं वैसा हर वक्त हूं.
आप क्या मानते हैं, भारत की राजनीति पर महात्मा गांधी की सोच, विचार और नीतियों का कितना असर रहा खासतौर से आजादी के बाद?
भारत ने बापू को बहुत पहले त्याग दिया. जब मैं ऐसा कहता हूं तो मेरा मतलब है जीवन में बापू की जीवनशैली को उतारना या बापू के संदेशों को जिंदगी का आधार बनाना, इस बात में लोगों ने बहुत पहले बापू से किनारा कर लिया. जैसा हर देवता के साथ होता है. भारत में मूर्ति पूजा का ही महत्व रहा है. हम एक मूर्तिपूजक संस्कृति का पालन करते हैं इसलिए हम एक मूर्ति या आकृति की भक्ति करते हैं लेकिन तत्वों की भक्ति कभी नहीं करते. राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा, लेकिन उनकी भक्ति में ही सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया. उसी तरह से बापू की भी भक्ति हम करते हैं लेकिन उनको आचरण में हम नहीं लाते.
लेकिन लोग तो मानते हैं कि भारत की राजनीति पर महात्मा गांधी का बहुत असर रहा है?
मैं ऐसा नहीं मानता. बापू की नीतियों का असर नहीं है उनकी छवि का असर जरूर हुआ है. बापू की छवि उनके लिए अनिवार्य हो गई है. जैसे प्रजा में मूर्तिपूजा प्रथा हो गई है वैसे राजनीति में भी मूर्तिपूजा की प्रथा बन गई है. बापू के तत्वों का असर हमारी राजनीति में कहीं पर भी नजर नहीं आता वो दिखता भी नहीं और नीतियों में तो बहुत पहले ही बंद हो गया.
भारत के बाहर विदेशों में महात्मा गांधी को काफी सम्मान दिया जाता है, क्या भारत की तुलना में दूसरे देशों ने उनकी नीतियों को ज्यादा अपनाया?
मैं मानता हूं कि भारत के बाहर उतनी व्यक्ति पूजा नहीं हुई, उनकी सराहना जरूर हुई, प्रेरणास्रोत जरूरत माना गया लेकिन भारत के बाहर उनकी शैली को उनके दर्शन को उनके आदर्शों को ज्यादा माना या फिर अपनाया गया. भारत की तुलना में उन्हें वहां ज्यादा प्रेरणास्रोत माना गया.
भारत में वंशवाद का बहुत असर देखा जाता है, राजनीति में भी. कभी यह नहीं लगा कि महात्मा गांधी के परिवार को भी राजनीति में सक्रिय होना चाहिए था?
हक के तौर पर मैंने नहीं महसूस किया क्योंकि हमारी राजनीति की कोई जागीर नहीं बनाई गई थी. हमारे पूर्वजों ने भी ऐसी कभी कोशिश नहीं की. इसलिए हम इसे अधिकार नहीं मानते. ऐसी धारणा हमारे मन में नहीं बनी. मैं यह नहीं कहूंगा कि हमारे परिवार के लोगों ने निजी तौर पर राजनीति में सक्रिय होने की कोशिश ना की हो. लेकिन तब भी जब हमने राजनीति करने की कोशिश की तब भी हमने यह नहीं सोचा कि यह हमारा अधिकार है. मैंने भी चुनाव लड़ा, मेरे चाचा और मेरी बुआ ने भी कोशिश की लेकिन यह अहसास नहीं हुआ कि यह हमारा अधिकार है या हमारी जागीर है ऐसा किसी के मन में नहीं आया.
पर यह भी तो महसूस होता होगा कि देश की राजनीति उस परिवार की एक जिम्मेदारी भी थी, खासतौर से तब जब देश में अकसर राजनीति से लोग निराश नजर आते हैं?
कई बार हमारे ऊपर यह आक्षेप किया गया कि हमने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई लेकिन अगर हम मान लें तो अप्रत्यक्ष रूप से शायद हम शायद इस मान्यता को भी बढ़ावा देंगे कि हमारा कुछ हक था जो हमें नहीं मिला, तो मैं यह नहीं मानता. मैं नहीं समझता कि लोकतंत्र में किसी का कोई अधिकार या हक होता है, जिम्मेदारी सबकी होती है. इसमें किसी परिवार या किसी व्यक्ति की खास जिम्मेदारी नहीं होती बल्कि यह सबके लिए समान रूप से होती है. प्रजातंत्र में किसी को कोई अधिकार नहीं और सबको सारे अधिकार हैं.
उनके जीवनकाल में भी और उनके जाने के बाद जब उनकी आलोचना होती है, कुछ लोग उन्हें विभाजन का जिम्मेदार भी बताते हैं तो कोई किसी और बात के लिए तो यह सब देख कर क्या लगता है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है?
हर किसी पर प्रश्न उठता है और जब कोई व्यक्ति इतनी बड़ी सार्वजनिक छवि वाला हो तो निश्चित रूप से प्रश्न उठेंगे विवाद होगा. यह प्रश्न रचनात्मक हैं या बेबुनियाद हैं इस पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए. बापू के साथ यह दुर्भाग्य है कि उन पर लगने वाले ज्यादातर आरोप बेबुनियाद हैं और किसी ना किसी विचार से प्रेरित रहे हैं. मैंने हमेशा यह कहा है कि बापू के ऊपर जरूर प्रश्न उठने चाहिए क्योंकि प्रश्न उठेंगे तभी लोग उनके सही रूप में समझ सकेंगे. बापू की यह बदनसीबी रही कि उनके बारे में ज्यादा दुष्प्रचार किया गया है उन पर स्वस्थ प्रश्न बहुत कम उठते हैं.
क्या आपके मन में भी बापू को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं?
हां प्रश्न उठेंगे स्वाभाविक है, हर व्यक्ति को लेकर मन में कभी न कभी प्रश्न उठते हैं क्योंकि अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर यह अंधभक्ति होगी. सवाल यह है कि वो प्रश्न किस प्रकार से उठे, उनको जानने के लिए या फिर उनको नकारने के लिए. मेरे जेहन में कभी बापू को नकारने के लिए नकारात्मक प्रश्न नहीं उठे. प्रश्न उठे हैं तो इसलिए कि मेरी समझ उनके बारे में मर्यादित रहे. हमेशा प्रश्न उठाकर उनका जवाब पाकर मेरी उनके बारे में समझ बेहतर हुई.
महात्मा गांधी से जुड़ी किस बात को लेकर प्रश्न उठे आपके मन में, अगर आप कुछ बता सकें?
कई बार मेरे मन में प्रश्न उठता है कि क्या जरूरत थी बापू को इतना अधिक पारदर्शी जीवन जीने की, जहां उन्होंने ऐसी बातें अपने जीवन के बारे में प्रचलित कर दी जो लोग समझ नहीं पाए उनके बारे में और उसे लेकर एक गलत तर्क बापू के बारे में करने लगे. तो मुझे हमेशा यह उलझन रही कि क्या जरूरत थी इतना पारदर्शी होने की. इसी प्रश्न का जवाब ढूंढते ढूंढते मुझे यह अहसास हुआ कि जिस मुकाम तक अपनी जिंदगी में वो पहुंचे वहां तक अगर किसी शख्स को पहुंचना था तो यह जरूरी था कि उतना ही पारदर्शी और उतना ही सत्य जिंदगी जीना जरूरी है जिसमें सारे गुण और दोष सारे के सारे लोगों के सामने प्रगट किए जाएं. मुझे अकसर महसूस होता रहा कि ब्रह्मचर्य को लेकर प्रयोग की जो बातें उन्होंने सार्वजनिक की उसकी क्या जरूरत थी. पर फिर भी यह महसूस होता है कि अगर उस पर पर्दा रखा गया होता तो फिर उस शक को वजूद मिल जाता कि उसमें कोई ऐसी बात जरूर हुई होगी जो छिपाई गई उसे लेकर अफवाहें और तरह तरह की बातें होती इसलिए उसके बारे में सब कुछ बता दिया गया.
...तो आपको आपके सवालों के जवाब मिल गए?
जवाब मिल गए ऐसा तो नहीं, मेरी जिंदगी का दर्शन कहता है कि कभी किसी चीज का जवाब तो नहीं मिलता. मैं यह मानता हूं सवाल से आप जिंदगी की परतें उखाड़ते हैं और फिर वो नई हो जाती है, फिर कुछ दिन बाद कुछ और परतें उखाड़ते हैं, यह सिलसिला तो पूरी जिंदगी चलता रहता है.