पुलिस व्यवस्था में कब करेंगे सुधार
२४ जनवरी २०१८देश में जब आए दिन वारदातें हो रही हैं तो ये चिंता स्वाभाविक है कि इन पर अंकुश लगाने और अपराधियों को काबू में करने वाला पुलिस तंत्र क्यों विफल या लाचार सा दिखता है. क्या हत्यारों, उचक्कों, गुंडो को पुलिस का कोई भय नहीं रह गया है? इस सवाल की तह में पुलिस सिस्टम की अलग ही दास्तान खुल जाती है.
सात दशक बीत जाने के बाद मुंबई पुलिस को अपने सिपाहियों के लिए आठ घंटे की ड्यूटी कर देने का ख्याल आया है. सातों दिन और 14-16 घंटे हर रोज काम- ये कार्यक्षमता के लिए एक घातक स्थिति है. अपराध के राजनीतिकरण और राजनीति के अपराधीकरण ने भी पुलिस की मुश्किल बढ़ाई है. खुद पुलिस का राजनीतिकरण, उसकी अंदरूनी संरचना को खा रहा है. आधुनिक हथियारों का अभाव और मुस्तैद ट्रेनिंग की कमी एक विकराल समस्या बनी हुई है. मुंबई की शुरुआत सही दिशा में है लेकिन इसे कारगर तभी बनाया जा सकता है जब सुधार प्रक्रिया शुरू हो. जाहिर है ये अकेले मुंबई पुलिस का काम नहीं होगा. ये काम केंद्र और सभी राज्य सरकारों का है. कुछ महीने पहले ही केंद्र ने पुलिस सुधार और आधुनिकीकरण के नाम पर तीन साल के लिए 25 हजार करोड़ रुपये का पैकेज घोषित किया था. इसमें से 40 फीसदी राशि जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्यों और नक्सल प्रभावित इलाकों के लिए रखे गयी. लेकिन फंड का ऐलान सुधार की गारंटी नहीं है.
1980 में पहले राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया गया था. सिफारिशें प्रशंसनीय थीं लेकिन केंद्र-राज्य तनातनी की भेंट चढ़ गईं. केंद्र ने कहा राज्य देखेंगे और राज्यों ने कहा, कैसे करें. उसके बाद से कई कमेटियां आई गईं. पूर्व पुलिस उच्चाधिकारी प्रकाश सिंह ने 1996 में पुलिस सुधारों की अनदेखी के लिए राज्यों के खिलाफ, सुप्रीम कोर्ट में शिकायत भी डाली लेकिन किसी के कान पर जूं न रेंगी. अलबत्ता 1998 में जुलियो रिबेरो की अगुवाई में कमेटी बनी, फिर 2000 में पद्मनाभन कमेटी और 2005 में पुलिस एक्ट पर सोली सोराबजी कमेटी आई. कांग्रेस और बीजेपी की अगुवाई वाली सरकारों ने सुधारों का शोर तो मचाया लेकिन बुनियादी सुधार लंबित हैं. सितंबर 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को पुलिस सुधार पर सात निर्देश जारी किए थेः राज्य सुरक्षा आयोग का गठन, तीन वरिष्ठतम अधिकारियों में से डीजीपी का चयन जो यूपीएससी के प्रावधानों के तहत प्रोन्नति के दायरे में आते हों, ऑपरेशनल ड्यूटी पर न्यूनतम दो साल तक पुलिस अधिकारियों की तैनाती, चरणबद्ध तरीके से जांच पुलिस और कानून व्यवस्था की देखरेख वाली पुलिस का पृथक्कीकरण, डीएसपी और उससे नीचे के पुलिसकर्मियों के लिए पुलिस एस्टेब्लिशमेंट बोर्ड की स्थापना (जो तबादले, पोस्टिग, प्रमोशन और अन्य सेवा संबंधी मामलों को देखे), राज्य और जिला स्तरों पर पुलिस शिकायत प्राधिकरणों का गठन और वृहद सुधार प्रक्रिया के लिए केंद्रीय स्तर पर एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग की स्थापना. ये निर्देश कितने अमल में आए कोई नहीं जानता. ये छोड़िए, 1861 का पुलिस एक्ट तक बदला नहीं गया है
.आधारभूत सुविधाओं की कमी से जूझती पुलिस
पुलिस हिरासत में सैकड़ों की मौत
सुधार और आधुनिकीकरण, कोई एक दिन की प्रक्रिया नहीं है. भारत जैसे देश में जो हालात हैं उनमें इसे निरंतर अभियान की जरूरत है. गृह मंत्रालय के अधीन काम कर रहे पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो के 2017 के आंकड़े, हालात को खुद बयान कर देते हैं. कुल राज्य पुलिस बल की संख्या 24 लाख 64 हजार से कुछ ज्यादा है. इनमें से पौने पांच लाख सशस्त्र पुलिस बल हैं. 518 लोगों पर एक पुलिसकर्मी है. प्रति लाख आबादी पर 193 पुलिसकर्मी हैं. आंध्रप्रदेश, बिहार, यूपी, दिल्ली और पश्चिम बंगाल में तो 1100 व्यक्तियों पर एक पुलिसकर्मी का, चिंताजनक अनुपात पाया गया है. देश में कुल पुलिस स्टेशनों की संख्या 15,579 है जिनमें से करीब पांच हजार शहरी इलाकों में हैं. 114 साइबर सेल हैं और सिर्फ 39 सोशल मीडिया निगरानी सेल हैं. 273 पुलिस स्टेशनों के पास अपने वाहन नहीं है. 267 के पास टेलीफोन और 129 के पास वायरलैस सेट नहीं हैं. देश की पुलिस के पास एक लाख से कुछ ज्यादा कम्प्यूटर हैं और करीब 30 हजार कैमरे हैं, और 65 हजार सीसीटीवी हैं. महिला पुलिस बल के लिहाज से आंकड़ों को परखें तो शोचनीय स्थिति दिखती है जबकि महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या में बढ़ोत्तरी ही देखी गई है. देश में कुल एक लाख 40 हजार महिला पुलिस बल है और सिर्फ 613 महिला पुलिस स्टेशन हैं. देश के कुल पुलिस बल में सिर्फ़ 7.28 प्रतिशत महिला पुलिसकर्मी हैं.
सबसे पहले औपनिवेशिक दौर के पुलिस एक्ट को बदलने की जरूरत है. पुलिस अफसरशाही के ढांचे में आमूलचूल बदलाव करने होंगे. इस ढांचे को पुलिस की अंदरूनी जरूरतों के हिसाब से ढालना होगा न कि तात्कालिक सरकारों और राजनीतिक दलों के हितों के हिसाब से. काम का बोझ कम करने के लिए नयी भर्तियां करनी होंगी. सिपाही वर्ग की अत्यंत दयनीय स्थिति में फौरन बदलाव करने होंगे. उनकी तनख्वाह, रहनसहन, भरणपोषण, आवास, उनके बच्चों की शिक्षा स्वास्थ्य आदि कई मामले हैं जिन पर मानवीय नजरिया रखना होगा. एक सिपाही की बदहाली उसे अवसाद और निकम्मेपन का शिकार बना सकती है या भ्रष्टाचार का.
पुलिस के आधुनिकीकरण में लोकतंत्र और मानवाधिकारों की हिफाजत का सबक अंतर्निहित होना चाहिए. उन्हें हथियारों, ट्रेनिंग से और अन्य साजोसामान से तो आधुनिकतम बना सकते हैं लेकिन उन्हें उतना ही आधुनिक- मानवीय और नैतिक तौर पर भी होना होगा. वे नागरिकों की हिफाजत के लिए कानून के रखवाले हैं. ऐसा न हो कि उनके काम के हालात, प्रमोशन और रिवार्ड के लालच, पैसों की फिक्र और राजनीतिक दबाव उन्हें वर्दी के भीतर छिपे एक अलग ही किस्म के और अदृश्य, कुंठित संभावित अपराधी में तब्दील कर दें. जवाबदेही और भरोसे से ही मित्र पुलिस का नारा विश्वसनीय बन पाएगा.