बच्चों के कद और वजन में गिरावट से जूझता भारत
१८ दिसम्बर २०२०भारत के नये सरकारी आंकड़े बताते हैं कि अल्पपोषण और स्टन्टिंग के मामले उन सभी राज्यों में बढ़े हैं जो पिछले सर्वे में सकारात्मक ग्राफ दिखा रहे थे. इस सर्वे के अगले चरण के नतीजों में भी यही हाल रहता है तो 20 साल में पहली बार भारत में बाल स्टंटिंग की पहली बढ़ोतरी देखी जाएगी. अधिकांश राज्यो में स्टेंटेड, वैस्टेड और अंडरवेट बच्चों की संख्या बढ़ी है. यहां तक कि केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा और हिमाचल प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत संपन्न राज्यों से ये स्टंटिंगग के आंकड़े सामने आए हैं जबकि पिछले दशक में इन राज्यों ने अपने यहां स्टंटिंग की दर को कम कर लिया था. कई राज्यों में बाल-विवाह प्रथा कायम है. सबसे अधिक मामले पश्चिम बंगाल, बिहार और त्रिपुरा में मिले हैं.
वैश्विक स्तर पर बच्चों में अल्पपोषण को मापने के लिए तीन मुख्य सूचक हैं- स्टंटिंग (उम्र के सापेक्ष कद में कमी), वैस्टिंग (कद के सापेक्ष कम वजन) और अंडरवेट (उम्र के सापेक्ष कम वजन). दुनिया में स्टेंटेड यानी अविकसित बच्चों की सबसे अधिक संख्या भारत में है. 22 में से 18 राज्यों में पांच साल के कम उम्र के एक चौथाई से अधिक बच्चे स्टेंटेड है. मेघालय में साढ़े 46 प्रतिशत, बिहार में 42.9, गुजरात में 39 कर्नाटक में साढ़े 35, गोवा में करीब 26 तो केरल में 23 प्रतिशत बच्चे उम्र के सापेक्ष कद में छोटे हैं. पांच साल तक के बच्चों में वैस्टिंग की सबसे अधिक 25 प्रतिशत की दर असम में पायी गयी. गुजरात में 25 और बिहार में 23 प्रतिशत है. पांच साल से कम उम्र के अंडरवेट बच्चों में बिहार का आंकड़ा सबसे दयनीय है. 41 प्रतिशत बच्चे वहां अंडरवेट मिले. गुजरात में करीब 40 और महाराष्ट्र में 36 प्रतिशत गोवा में 24 और केरल में करीब 20 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट हैं.
सरकार के समर्थक ये दलील भी देते हैं कि स्टंटिंग के मामलों में बढ़ोतरी का मतलब सरकार की स्वास्थ्य या पोषण नीतियों में किसी कमी से नहीं हैं. इंडियास्पेंड डाटा वेबसाइट में प्रकाशित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इन्स्टीट्यूट की सीनियर रिसर्च फैलो पूर्णिमा मेनन के बयान के मुताबिक ये कोई अच्छा समाचार नहीं है. 2015 और 2019 के बीच पैदा हुए बच्चों में स्टंटिंग के मामले कुछ हद तक पिछले कुछ वर्षों की आर्थिक मंदी को भी रिफलेक्ट करते हैं. इसका मतलब ये है कि इस अवधि में कमजोर बच्चे पैदा करनेवाली मांओं की खाने की स्थिति कैसी थी, और क्यों उनके पास पर्याप्त पोषणयुक्त आहार नहीं था, ये देखा जाना चाहिए और आखिरकार ये भी देखना चाहिए कि इस अवधि में उन पर क्या गुजर रही थी. तो ये कुल मिलाकार आर्थिक सामाजिक स्थिति का हाल भी बताते हैं. और इस हाल के लिए सरकार की नीतियां भी किसी न किसी रूप में जिम्मेदारी कही जा सकती हैं- उनका कितना क्रियान्वयन हुआ, कितनी योजनाएं लागू हो पाईं, लाभार्थियों तक वास्तविकता में कितना लाभ पहुंचा- ये सब अंतिम आकलन में आना ही चाहिए.
केंद्र हो या राज्य सभी सरकारों को इस बारे में सचेत रहना चाहिए. नीतियों और फैसलों और कार्रवाइयों की आलोचना का अर्थ देशद्रोह नहीं होता- हर मामले में यही रोना लेकर बैठ जाने वाली सरकारों को थोड़ा आत्मचिंतन करना चाहिए और आलोचना को आगे के लिए सबक की तरह देखना चाहिए. विशेषज्ञों का कहना है कि ये आंकड़ा भले ही 2019 का है और इसमें इस साल की स्थिति नहीं दर्ज नहीं हुई है लेकिन सरकार को चाहिए कि आपात आधार पर हर तीन महीने के आंकड़े जारी करे. और इसके लिए युद्धस्तर पर अपनी टीमें उन इलाकों में रवाना करें जहां हालात ज्यादा खराब होने की आशंका है.
स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना तो नहीं होगा. अगर रात दिन ‘जनता-जनार्दन' का नारा चलाया जाता है तो नागरिकों को भी लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति जागरूक रहना पड़ेगा. सामूहिक रूप से लोगों को सरकारों को झिंझोड़ने का साहस करना चाहिए. मोबिलाईजेशन में जनसंगठनों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है. एनजीओ यानी स्वयंसेवी संस्थाओं को भी फिल द गैप व्यवस्था से बाहर निकलकर अधिकारों के प्रति नागरिकों को सूचना संपन्न बनाना चाहिए. आर्थिक समृद्धि और कथित विकास के बीच स्वास्थ्य कल्याण के कई वैश्विक सूचकांकों में भारत पीछे है. अगर क्यूबा जैसे देशों से सबक लें तो ये हालात सुधारे जा सकते हैं. कोविड 19 ने स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की होड़ को और तेज कर दिया है. सरकारों को ही नहीं जनता को भी सोचना चाहिए कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की हालत इतनी ना बिगड़े कि कॉरपोरेट चालित निजी अस्पतालों में महंगे और भारीभरकम इलाज के अलावा कोई चारा ही ना रहे.
नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) के मुताबिक राहत ये है कि 22 राज्यों में से 18 राज्यों में दो साल से कम उम्र के 70 प्रतिशत बच्चों का पूरी तरह प्रतिरक्षाकरण कर दिया गया है. यानी उन्हें सभी जरूरी टीके लगाए जा चुके हैं. उन्हें टीबी से बचाने वाले बीसीजी का एक टीका, डिप्थेरिया, काली खांसी और टिटनेस से बचाने वाले डीपीटी के तीन टीके, पोलियो के तीन टीक, खसरा-चेचक का एक टीका लग चुका है. एक खास बात ताजा सर्वे से ये निकली है कि भारत की आबादी दर स्थिर हो रही है. क्योंकि टोटल फर्टिलिटी रेट, टीएफआर अधिकांश राज्यों में गिरा है. बिहार, मणिपुर और मेघालय को छोड़कर पहले चरण के सभी राज्यों में टीएफआर 2.1 या उससे कम है. परिवार नियोजन में आधुनिक गर्भनिरोधकों का उपयोग बढ़ा है लेकिन इसमें पुरुषों की भागीदारी कम बनी हुई है, महिला वंध्यीकरण ही अधिक है.
एनएफएचएस भारत में स्वास्थ्य डाटा का प्रमुख स्रोत है जिसका इस्तेमाल स्वास्थ्य योजनाओं की प्रगति और बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार का आकलन करने में किया जाता है. वर्तमान सर्वे (2019-2020) पांचवा है और बताया जाता है कि देश के छह लाख घरों तक पहुंचा है. इसके पहले चरण के तहत 17 राज्यों और पांच केंद्र शासित प्रदेशों से मिले नतीजे सार्वजनिक किए गए हैं. प्रमुख राज्यों में केरल, गुजरात, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, गोवा, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और पूर्वोत्तर राज्य शामिल थे. दूसरे चरण में 12 राज्य और 2 केंद्रशासित प्रदेश हैं जिनमें यूपी, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर और दिल्ली जैसे राज्य हैं. कोविड-19 की वजह से कार्य अवरुद्ध होने के बाद इन राज्यों का सर्वे अगले साल मई तक खत्म होने की संभावना जतायी गयी है.
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