दूरगामी होगा दो बच्चों की नीति के फैसले का असर
२३ अक्टूबर २०१९भारत में 1980 के दशक में ‘हम दो, हमारे दो' का नारा काफी लोकप्रिय हुआ था. इसके जरिए बड़े पैमाने पर परिवार नियोजन अभियान चलाया गया था. लेकिन तब इस पर अमल के लिए कोई कानून नहीं बना था. लेकिन अब असम सरकार ने दो से ज्यादा बच्चों वाले लोगों को सरकारी नौकरी नहीं देने का फैसला किया है. इसका असर दूरगामी होगा. हालांकि सरकारी तौर पर कहा गया है कि इससे जनसंख्या विस्फोट पर काबू पाने में सहूलियत होगी. लेकिन दूसरी ओर, खासकर अल्पसंख्यक संगठनों ने सरकार के इस फैसले पर सवाल उठाते हुए आरोप लगाया है कि इसका मकसद अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों के लिए अयोग्य बनाना है. दूसरे संगठनों ने भी इस पर मिली-जुली प्रतिक्रिया जताई है.
वैसे, असम की बीजेपी सरकार ने दो साल पहले ही विधानसभा में एक जनसंख्या नीति पारित की थी. लेकिन अब जाकर उसे अमली जामा पहनाने का फैसला किया गया है. देश के कई अन्य राज्यों में भी खासकर पंचायत व निकाय चुनावों में उम्मीदवारी के मामले में दो बच्चों वाली नीति लागू है. लेकिन सरकारी नौकरियों में यह पाबंदी इस पूर्वोत्तर राज्य ने पहली बार लगाई है. सरकारी सूत्रों का कहना है कि जल्दी ही बीजेपी-शासित दूसरे राज्य भी इसी राह पर चल सकते हैं.
क्या है नई नीति
असम सरकार ने कहा है कि एक जनवरी, 2021 से ऐसे लोगों को सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी जिनके दो से ज्यादा बच्चे हैं. सितंबर, 2017 में विधानसभा ने असम जनसंख्या व महिला सशक्तिकरण नीति पारित की थी. इसमें कहा गया था कि सरकारी नौकरी के लिए सिर्फ उनलोगों की उम्मीदवारी पर ही विचार किया जाएगा जिनके दो बच्चे हों. मौजूदा सरकारी कर्मचारियों को भी इस नीति का पालन करना होगा. मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल कहते हैं, "यह एक क्रांतिकारी फैसला है. अब सरकारी नौकरियों के इच्छुक लोग दो से ज्यादा बच्चे नहीं पैदा कर सकेंगे. इससे आबादी पर अंकुश तो लगेगा ही, बाल विवाह की सामाजिक समस्या पर भी काबू पाया जा सकेगा.”
दो महीने पहले स्वाधीनता दिवस के मौके पर अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जनसंख्या विस्फोट का जिक्र किया था. उसके बाद ही असम सरकार ने दो साल पहले पारित नीति को अमली जामा पहनाने का फैसला किया. राज्य के कार्मिक विभाग के आयुक्त व सचिव केके द्विवेदी कहते हैं, "नए नियमों के तहत एक जनवरी, 2021 के बाद दो से ज्यादा बच्चे वाले लोग सरकारी नौकरी के लिए पात्र नहीं होंगे. उस तारीख के बाद पहले से सरकारी नौकरी कर रहे लोग भी अगर दो के बाद तीसरा बच्चा पैदा करते हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी.” उनका कहना है कि सरकार ने यह फैसला राज्य, देश व समाज के हित में लिया है. इस नियम के तहत दूसरी बार में पैदा होने वाले जुड़वां बच्चों को एक ही गिना जाएगा. मिसाल के तौर पर अगर किसी को पहले से एक बच्चा है और दूसरी बार उसे जुड़वां बच्चे होते हैं तो उसकी नौकरी पर कोई खतरा नहीं होगा.
सरकार ने अपने फैसले के समर्थन में राज्य की तेजी से बढ़ती आबादी का भी जिक्र किया है. सरकार की दलील है कि राज्य की आबादी 17.07 फीसदी की दर से बढ़ी है. वर्ष 2001 में जहां असम की आबादी 2.66 करोड़ थी वहीं वर्ष 2011 में यह बढ़ कर 3.12 करोड़ तक पहुंच गई. एक सरकारी अधिकारी कहते हैं, "आबादी में तेजी से वृद्धि की वजह से मौजूदा संसाधनों के जरिए आम लोगों के रहन-सहन के स्तर को बढ़ाने के लक्ष्य तक पहुंचने में दिक्कत हो सकती है.” उक्त नीति स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने बनाई है. लेकिन सरकारी नौकरियों के मामले में इसे लागू करने की जिम्मेदारी कार्मिक विभाग पर है.
वैसे, दो बच्चों वाली नीति कई अन्य राज्यों में भी लागू है. लेकिन अब तक यह पंचायतों व निकायों के चुनावों की उम्मीदवारी के मामले में ही लागू रही है. ऐसे राज्यो में उत्तराखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश तेलंगाना व गुजरात शामिल हैं.
धार्मिक पहलू
भारत में दो बच्चों वाली नीति को अक्सर धर्म के चश्मे से देखा जाता रहा है. तमाम अल्पसंख्यक संगठन इसका विरोध करते रहे हैं. हाल के वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जनसंख्या नियंत्रण के प्रति दिलचस्पी दिखाई है. हालांकि वर्ष 2013 में संघ ने कहा था कि हिंदू दंपतियों को कम से कम तीन बच्चे पैदा करने चाहिए. लेकिन वर्ष 2015 में अपने रांची अधिवेशन के दौरान संघ ने दो-बच्चों की नीति के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया था. असम का फैसला इसी प्रस्ताव को लागू करने की दिशा में बढ़ा पहला कदम है. लेकिन इसके साथ ही इस फैसले पर राजनीतिक बहस तेज हो गई है. कई संगठनों का कहना है कि इसके जरिए बीजेपी सरकार मुस्लिमों को निशाना बना रही है. असम की आबादी में लगभग एक-तिहाई मुस्लिम हैं. राज्य के 23 में से नौ जिले मुस्लिम-बहुल हैं. दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों के लिहाज के सरकार के उक्त फैसले को अहम माना जा रहा है.
प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता ऋतुपर्णो कोंवर कहते हैं, "सरकार ने दो साल पहले भी ऐसा एलान किया था. ऐसे में अब दोबारा इसके ऐलान की क्या जरूरत थी? सरकार को शिक्षा व जागरुकता कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. उससे आबादी पर अंकुश लगाने में सहायता मिलेगी.” इत्र कारोबारी बदरुद्दीन अजमल के नेतृत्व वाले आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ), जिसका अल्पसंखयकों पर खासा असर है, के महासचिव अमीनुल इस्लाम कहते हैं, "दो से ज्यादा बच्चों वाले लोगों के सरकारी नौकरी के अधिकार में कटौती सही फैसला नहीं है. इसकी बजाय सरकार को शिक्षा, गरीबी दूर करने और परिवार नियोजन के बारे में लोगों को जागरूक बनाने पर ध्यान देना चाहिए.”
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत ने भी सरकार के फैसले की आलोचना करते हुए इसे कठोर व असंवैधानिक बताया है. उनका कहना है, "यह असंवैधानिक है. सरकार का फैसला सही नहीं है और इससे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा.” राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि आबादी की दलील देकर सरकार ने फैसले को सही ठहराने का प्रयास किया है. लेकिन इसके चलते बीजेपी को अल्पसंख्यकों की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है. राजनीतिक पर्यवेक्षक प्रोफेसर नितिन डेका कहते हैं, "सरकार ने दो साल बाद अगर इस फैसले को अमली जामा पहनाने का फैसला किया है तो इसके पीछे कोई सोची-समझी रणनीति होगी. लेकिन फिलहाल तो उसके फैसले से अल्पसंख्यकों में भारी नाराजगी है. उनको लगता है कि इसके जरिए सरकार ने उनको ही निशाना बनाने का प्रयास किया है.
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