जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कानूनी लड़ाइयां कितनी असरदार हैं
१२ अप्रैल २०२४2022 में स्विट्जरलैंड में लू चलने के कारण 85 साल की मैरी ईव वोलकोफ को 11 हफ्तों तक अपने घर में कैद रहना पड़ा था. इसे उन्होंने ‘क्लाइमेट लॉकडाउन' कहा था. मैरी ‘सीनियर वीमन फॉर क्लाइमेट प्रोटेक्शन' की उन 2,000 सदस्यों में से एक हैं जिन्होंने उत्सर्जन रोकने के लिए उचित कदम नहीं उठाने पर स्विस सरकार के खिलाफ यूरोपीय मानवाधिकार अदालत में मुकदमा दायर किया था.
एक लंबी लड़ाई के बाद अदालत ने इन महिलाओं के पक्ष में फैसला सुनाया है. अदालत का कहना है कि स्विस सरकार उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य को पूरा करने असफल रही, जिससे मानवाधिकारों का हनन हुआ है. संगठन की वकील कोर्देलिया बार ने कहा, "कोर्ट का फैसला इस बात की पुष्टि करता है कि जलवायु सुरक्षा एक मानवाधिकार है. यह हमारे लिए एक बड़ी जीत है.” यह पहला मौका है जब यूरोपीय मानवाधिकार अदालत ने जलवायु परिवर्तन और उत्सर्जन को लेकर इतना बड़ा फैसला सुनाया है.
इस केस के साथ साथ दो और अहम केस अदालत के सामने आए थे. छह पुर्तगाली युवाओं ने यूरोप की 32 सरकारों के खिलाफ जलवायु परिवतर्न को रोकने के लिए अधिक महत्वाकांक्षी कदम उठाने का मुकदमा दायर किया था. फ्रांस के एक पूर्व मेयर डेमिय करेम ने भी फ्रांस की सरकार पर जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कदम उठाने के लिए दबाव बनाने की अपील की थी. हालांकि, इन दोंनो ही मामलों को अलग अलग कारणों से कोर्ट ने खारिज कर दिया.
बड़ी कंपनियां भी जलवायु बचाने में नहीं कर रहीं पर्याप्त मदद
बढ़ रही है पर्यावरण से जुड़े मुकदमों की संख्या
पर्यावरण से जुड़े मुकदमे सरकारों और बड़ी कंपनियों को जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ठहराने का अहम जरिया बन चुके हैं. इसके साथ ही उन पर दबाव डाला जा रहा है कि वे इसके लिए गंभीरता से सोचें और कदम उठाएं.
संयुक्त राष्ट्र और साबिन सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज, कोलंबिया यूनिवर्सिटी की ग्लोबल क्लाइमेट लिटिगेशन रिपोर्ट 2023 के अनुसार 2017 से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ दायर होने वाले मुकदमों की संख्या दोगुनी हुई है. रिपोर्ट बताती है कि 2017 में जहां ऐसे मामलों की संख्या केवल 884 थी वह 2022 में बढ़कर 2,180 हो गई. इनमें से अधिकतर केस अमेरिका में दायर किए गए थे.
आज विकासशील देशों में भी इस तरह के मुकदमे बड़ी संख्या में दायर हो रहे हैं. वास्तव में करीब 17 फीसदी केस विकासशील देशों और छोटे द्वीपों में दायर किए गए थे. सबसे अधिक केस युवाओं और महिलाओं ने दायर किये. हालत यह है कि सात से नौ साल तक की उम्र के भी बच्चियों ने भी मुकदमे दर्ज कराए हैं.
जलवायु परिवर्तन से संबंधित चर्चित केस
पेरू के एक किसान सॉल लूसिआनो ने जीवाश्म ईंधन की सबसे बड़ी जर्मन कंपनी आरडब्ल्यूई के खिलाफ अकेले ही लड़ाई लड़ी. सॉल हुआराज के जिस इलाके में रहते हैं वहां के ग्लेशियर पिघल रहे हैं. इससे वहां की झील का जलस्तर बढ़ने लगा. सॉल को डर था कि इससे उनके इलाके में भीषण बाढ़ आ सकती है. इसलिए उन्होंने मांग की कि कंपनी भविष्य में आने वाली इस आपदा से सुरक्षा का खर्च उठाए.
यह कंपनी यूरोप में सबसे अधिक उत्सर्जन करने वाली कंपनियों में से एक है. उनके इस मुकदमे के कारण जर्मनी से दो जज खुद यह देखने गए थे कि आखिर उत्सर्जन से कितना नुकसान हो रहा है.
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बीते कुछ सालों में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे के पर काम कर रहे संगठन, कार्यकर्ता यहां तक कि आम लोगों ने भी अदालतों का रुख किया है.
पर्यावरण के लिए काम करने वाली डच गैर-सरकारी संगठन उरहेंदा के साथ 900 नागरिकों ने नींदरलैंड सरकार पर मुकदमा किया था. नींदरलैंड की सुप्रीम कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए सरकार को साल 2020 तक 25 फीसदी ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए कदम उठाने का आदेश दिया था. इस फैसले को पर्यावरण संबंधित मुकदमों के लिए एक मिसाल की तरह देखा जाता है.
अदालत के फैसलों के साथ सरकारों की जवाबदेही जरूरी
मायाल्मित लेपचा सिक्किम इंडिजिनस लेपचा ट्राइबल असोसिएशन की अध्यक्ष और अफेक्टेड सिटिजन ऑफ तीस्ता की जनरल सेक्रटरी हैं. सिक्किम में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर वह लगातार काम करती रही हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा कि ऐसे अंतरराष्ट्रीय फैसले महत्व रखते हैं. यह सभी देशों और उनके सरकारों की जिम्मेदारी है कि राजनीति को परे रखकर वे इन फैसलों को लागू करें. उन्हें ऐसे फैसलों को एक चेतावनी की तरह लेना चाहिए.
हाल ही में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भी जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने के अधिकार को मान्यता दी है. कोर्ट ने कहा कि यह अधिकार भारतीय संविधान में मौजूद जीवन जीने और समानता के मौलिक अधिकार से जुड़ा हुआ है.
मेरिका के मोनटाना में युवाओं के समूह ने यह मुकदमा दायर किया था कि जीवाश्म ईंधन को बढ़ावा देकर उनके एक साफ और स्वस्थ्य वातावरण के संवैधानिक अधिकार का राज्य हनन कर रहा है. पिछले साल अगस्त में स्थानीय अदालत ने इन युवाओं के पक्ष में फैसला सुनाया था. कोर्ट के इस फैसले को अमेरिका में जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुकदमों के लिए एक नींव के तौर पर देखा गया.
पर्यावरण के मुद्दे पर काम करनेवाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ग्रीनपीस के कैंपेन मैनेजर अविनाश चंचल ने डीडब्ल्यू को बताया कि स्विस महिलाओं की इस जीत को वैश्विक स्तर पर चल रही पर्यावरण की कानूनी लड़ाई के लिए एक ऐतिहासिक पल की तरह देखा जा सकता है. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से सबसे कमजोर वर्ग को बचाने की जिम्मेदारी सरकारी की ही है. अगर वे ऐसे करने में नाकामयाब रहते हैं तो उनकी जवाबदेही तय करनी भी जरूरी है.
जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में महिलाओं की भूमिका
जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जारी लड़ाई में महिलाओं की भूमिका अहम है. इसका सबसे ताजा उदाहरण स्विस महिलाओं की जीत है. चाहे युवा महिलाएं हो या बुजुर्ग, दुनियाभर के अलग-अलग हिस्सों में औरतें पर्यावरण संबंधित मुकदमे दायर कर रही हैं.
ऐसा इसलिए भी है क्योंकि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर महिलाओं पर होता है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक 2050 तक जलवायु परिवर्तन 15.8 करोड़ और महिलाओं या लड़कियों को गरीबी की ओर ढकेल देगा. जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापित होने वाले लोगों में भी 80 फीसदी महिलाएं ही होती हैं. जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव भी महिलाओं और लड़कियों के ही स्वास्थ्य पर देखने को मिलता है.
इस कानूनी लड़ाई में महिलाओं की भूमिका पर लेपचा कहती हैं, "मैं खुद एक महिला हूं तो समझ सकती हूं कि क्यों महिलाएं इस लड़ाई में आगे हैं. एक मां के तौर पर जब हम बच्चों को, आने वाली पीढ़ियों को देखते हैं तो हमें नजर आता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वे खतरे में हैं. हमारे पास कितना कम वक्त है. इसलिए हम महिलाएं अपने कंफर्ट जोन से निकल कर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर काम कर रही हैं. यह हमारे लिए एक भावनात्मक मुद्दा है.”
भीषण है जलवायु संकट लेकिन बच्चों को कैसे समझाएं
2019 में पाकिस्तान की ही मारिया खान और कुछ महिलाओं के समूह ने मिलकर जलवायु परिवर्तन से महिलाओं पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को लेकर सरकार के खिलाफ केस दर्ज किया था. उन्होंने कहा था कि जलवायु परिवर्तन को लेकर सरकार की नाकाम कोशिशें समानता और लिंग के आधार पर भेदभाव ना करने के महिलाओं के अधिकार का हनन कर रही हैं.
युवा पर्यावरण कार्यकर्ता रिद्धिमा पांडे सिर्फ नौ साल की थीं जब उन्होंने 2017 में जलवायु परिवर्तन के खिलाफ पर्याप्त कदम नहीं उठाने के लिए भारत सरकार पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में केस किया था.
‘वॉरियर मॉम' उन मांओं का संगठन है जो भारत में बच्चों और आगे की पीढ़ियों के लिए साफ हवा सुनिश्चित करने का अभियान चला रही हैं. संगठन की सह-संस्थापक भवरीन कंधारी ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा कि "वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन से जुड़े नियम कानून अलग हैं. यहां भारत में कानून अलग तरीके से काम करता है. यूरोपीय मानवाधिकार अदालत और भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल ही में जलवायु परिवर्तन को लेकर जो कहा वह उम्मीद जरूर जगाता है. लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि ये कोर्ट के आदेश हैं. ये ऐक्शन में तब्दील होते हैं कि नहीं यह हमेशा एक चुनौती होगी.
जलवायु परिवर्तन पर अहम फैसले क्या लाएंगे बदलाव?
जलवायु परिवर्तन से संबंधित केसों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आए फैसले कितने प्रभावी हो सकते हैं इस पर भवरीन कहती हैं, "ये लंबी लड़ाइयां हैं. ये बड़े आदेश हमें रोजमर्रा की जो चुनौतियां हमारे सामने हैं उनसे लड़ने में उतनी मदद नहीं करते. हमें स्थानीय स्तर ऐसे फैसलों की अधिक जरूरत है. अंतरराष्ट्रीय फैसले जलवायु नीतियां बनाने में जरूर कारगर साबित होती हैं लेकिन समुदाय के लिए सबसे अधिक मददगार स्थानीय फैसले साबित होते हैं, खासकर महिलाओं के लिए.”
हालांकि, ये फैसले और आदेश बदलाव तभी ला पाएंगे जब सरकारें और कंपनियां इनके आधार पर अपनी नीतियां बदलेंगी. चंचल कहते हैं कि कई सारे समुदाय पर्यावरण संबंधित कानूनी लड़ाइयां जीत रहे हैं, यह देखना सुखद है. हालांकि सिर्फ कानूनी जीत काफी नहीं हैं. चंचल के मुताबिक, " हमें सरकारों और बड़ी कंपनियों की जवाबदेही तय करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन के साथ साथ हमें जमीनी स्तर पर लोगों को लामबंद करना होगा."