चीन का जोखिम घटाने के लिए क्या कर रही हैं जर्मन कंपनियां
१९ अक्टूबर २०२३थोमास नॉयर्नबेर्गर खुद को कठिन समय के लिए तैयार कर रहे हैं. बीते सात सालों से वह पंखे और मोटर बनाने वाली ईबीएम पाप्स्ट की चायनीज यूनिट को संभाल रहे थे और कारोबार अच्छा चल रहा था.
अब चीन और जर्मनी के बीच कारोबार के रंग बदल रहे हैं तो दिक्कत होने लगी है. ईबीएम पाप्स्ट जैसी मध्यम आकार की कंपनियों ने चीन पर निर्भरता घटानी शुरू कर दी है.
उन्हें चिंता हो रही है कि ताइवान को लेकर भविष्य में अगर संघर्ष बढ़ता है तो चीन पर पश्चिमी देश प्रतिबंध लगाएंगे और उन्हें मुश्किल हो सकती है.
पिछले साल ईबीएम पाप्स्ट ने "डिकपलिंग चाइना" नाम से नया प्रोग्राम शुरू किया. इसके जरिये यह सुनिश्चित किया गया कि चायनीज डिवीजन अगर कंपनी के बाकी हिस्से से कट जाए तो भी स्वतंत्र रूप से काम कर सके.
चायनीज डिवीजन में 1900 लोग काम करते हैं. कंपनी भारत में एक नया प्लांट लगाने की योजना बना रही है जिस पर 3 करोड़ यूरो का खर्च आएगा.
इस प्लांट से एशिया के बाकी देशों में ग्राहकों को सप्लाई दी जाएगी और चीन से आने-जाने वाले सामान की मात्रा घटाई जा सकेगी. नॉयर्नबेर्गर ने कहा, "सारे अंडे एक ही टोकरी में ना हो यह हमारे दिमाग में हमेशा ही रहता है."
जोखिम से बचाने की रणनीति
जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स की गठबंधन सरकार ने इसी साल जुलाई में एक रणनीति तैयार की थी जिससे जर्मनी के चीन के साथ आर्थिक रिश्तों को जोखिम से बचाया जा सके. 61 पन्नों के इस दस्तावेज में जर्मन कंपनियों से चीन पर निर्भरता घटाने को कहा गया है.
क्या कहती है जर्मनी की न्यू चाइना पॉलिसी
हालांकि इसमें किसी बाध्यकारी लक्ष्यों या जरूरतों पर बहुत जोर नहीं दिया गया है. जर्मनी की कुछ बड़ी ब्लूचिप कंपनियां अब भी चीन पर बड़ा दांव लगाए हुए हैं. ऐसे में इस बात को लेकर शंकाएं उभर रही हैं कि जर्मनी जोखिम घटाने को लेकर कितना गंभीर है.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने मध्यम आकार वाली कंपनियों के दर्जन भर से ज्यादा अधिकारियों से बातचीत की. जर्मनी में मध्यम आकार की कंपनियों की कॉर्पोरेट सेल में करीब एक तिहाई की हिस्सेदारी है. इन अधिकारियों ने बताया कि उन्होंने चीन पर अपनी निर्भरता कई तरीकों से घटानी शुरू कर दी है.
पीछे है जर्मन सरकार
ईबीएम पाप्स्ट जैसी बड़ी फर्मों ने स्थानीय होने की रणनीति अपनाई है. इसमें हर कारोबारी क्षेत्र को संसाधन और उत्पादन के लिहाज से आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है. वास्तव में ईबीएम पाप्स्ट अब भी चीन को एक प्रमुख बाजार के रूप में देखती है.
नॉर्यनबेर्गर ने कहा कि कंपनी वहां अपनी मौजूदगी बढ़ाने के लिए 2.5 करोड़ यूरो की एक निवेश योजना को जल्दी ही मंजूरी दे सकती है.
जर्मन चैंबर ऑफ कॉमर्स में फॉरेन ट्रेड के प्रमुख फोल्कर ट्राइर का कहना है कि मध्यम आकार की कंपनियों के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वो तुरत फुरत में भूराजनैतिक झटकों को संभाल सकें.
ऐसे में उन्हें पहले से ही तैयारी करके रखनी होगी. जर्मन पारिवारिक कंपनी 'मुंक' सीढ़ी, चौखट और बचाव के उपकरण बनाती है. पांच साल पहले सप्लाई चेन की दिक्कत के कारण जब उत्पादन रुक गया तभी से कंपनी ने चीन पर निर्भरता घटानी शुरू कर दी.
2021 के बाद कंपनी पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो गई है और वह अपना कच्चा माल यूरोप के अंदर से ही जुटा ले रही है. कंपनी के प्रबंध निदेशक फर्डिनांड मुंक का कहना है कि सरकार ने देर से काम शुरू किया है, "आप सरकार पर भरोसा नहीं कर सकते. वे हमेशा पांच साल लेट से चलते हैं."
जर्मन अर्थव्यवस्था मंत्रालय का कहना है कि वह कंपनियों को अपना बाजार विविध बनाने में सहयोग देना चाहते हैं. मंत्रालय ने एक बयान में कहा है, "लक्ष्य है जर्मनी के भारत, वियतनाम, दक्षिण कोरिया और इंडोनेशिया जैसे देशों से द्विपक्षीय संबंधो को मजबूत करना."
ज्यादा सावधानी
2016 में चीन जर्मनी का सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी बन गया. दोनों का आपसी कारोबार तकरीबन 300 अरब डॉलर का है. यह जर्मनी की कुछ सबसे बड़ी कंपनियों के लिए प्रमुख बाजार है.
इनमें कार बनाने वाली फॉल्क्सवागन और मर्सिडीज समेत रसायन कंपनी बीएएसएफ भी शामिल है. 2021 में सत्ता संभालने के बाद से सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी के नेता ओलाफ शॉल्त्स ने चीन के प्रति कड़ा रुख अपनाया है.
उन्होंने चीन के साथ गलबहियां डालने की पू्र्व चांसलर अंगेला मैर्कल की नीतियों से दूरी बना ली है. ताइवान और दक्षिण चीन सागर के प्रति चीन के दबंग रुख को देखते हुए कई और पश्चिमी देशों की चिंता बढ़ रही है.
चीन घरेलू अर्थव्यवस्था पर भी अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है. हालांकि चीन के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा है कि चीन और जर्मनी को द्विपक्षीय कारोबार बढ़ाना चाहिए जो दोनों के लिए फायदेमंद है.
बयान में कहा गया है, "आर्थिक और कारोबारी मुद्दों को राजनीतिक रंग देने से दूसरों को नुकसान होगा और हमारा कोई फायदा नहीं होगा, साथ ही यह दुनिया के आर्थिक विकास में भी कोई योगदान नहीं देगा."
इस साल की पहली छमाही में जर्मन कंपनियों का चीनी कंपनियों में निवेश कुल निवेश के हिस्से के तौर पर बढ़ कर 10.3 अरब यूरो तक पहुंच गया. कुछ कंपनियों ने चीन में अपने कारोबार को अलग करने के लिए भी ज्यादा निवेश किया है.
इस बीच बीएएसएफ जैसी बड़ी कंपनियां नियमित रूप से यह चीनी बाजार की अहमियत का मुद्दा उठाती रही हैं. उनका माना है कि इसकी विशाल क्षमता को देखते हुए चीन का कोई विकल्प नहीं है.
सरकार की कोशिशें
कंपनियों को जोखिम से बचाने की योजना के तहत जर्मन अर्थव्यवस्था मंत्रालय व्यापार और निवेश गारंटी जैसी तरकीबें इस्तेमाल कर रही है. इसके तहत किसी एक देश में निवेश का आकार भी तयकिया जा रहा है.
इस साल पहले आठ महीनों में चीन के लिए केवल 5.19 करोड़ यूरो की निवेश गारंटी चीन के लिए सरकार ने जारी की है. यह 2022 में दी गई 74.59 करोड़ की निवेश गारंटी का दसवां हिस्सा भी नहीं है.
शॉल्त्स प्रशासन चीन में बहुत कम व्यापार मेले को प्रायोजित कर रहा है. 2023 में ये 44 थे लेकिन 2024 में इनकी संख्या महज 30 होगी. इन सब उपायों ने छोटे और मध्यम आकार की कंपनियों पर ज्यादा असर डाला है.
बड़ी कंपनियों के पास निजी बीमा सेवाएं और बाजार के अवसरों का विश्लेषण करने की बेहतर क्षमता है. इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि कुछ कंपनियां अपने कारोबार में विविधता ला रही हैं. एशिया में चीन के बाहर जर्मन कंपनियों का निवेश पूरे निवेश के हिस्से के तौर पर बढ़ रहा है.
वैकल्पिक बाजार
जर्मन कंपनियों को अमेरिका में विकास के अवसर दिखे हैं. खासतौर से राष्ट्रपति जो बाइडेन के ग्रीन सब्सिडी लागू करने के बाद से. इसी तरह चीन को छोड़ कर बाकी एशिया भी है.
पहले ही वियतनाम की तरफ जाने की पहली लहर आ चुकी है. यहां सस्ता श्रम मौजूद है और यह चीन के पड़ोस में भी है. वियतनाम का पूर्वी जर्मनी से करीबी रिश्ता रहा है और यहां अब भी जर्मनभाषी लोग मौजूद हैं. जर्मन कंपनियां अब थाईलैंड, मलेशिया और इंडोनेशिया का भी रुख कर रही हैं.
जर्मनी के दूसरे सबसे बड़े फंड मैनेजर यूनियर इनवेस्टमेंट की वरिष्ठ अर्थशास्त्री सांड्रा एबनर का कहना है, "कोई कंपनी यह नहीं कहेगी कि वह चीन छोड़ रही है. हालांकि कंपनियां चीन में अब सामान सिर्फ चीन के लिए बनाने की ओर तेजी से बढ़ रही हैं और बाकी एशियाई देशों या दुनिया के लिए चीन के अगल बगल में जा रही हैं."
भारत से व्यापार बढ़ा
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि बहुत सी कंपनियां भारत के साथ कारोबार करना चाहती थीं लेकिन उन्हें यह बहुत जटिल लगा. हालांकि अब भारत में कारोबारी स्थिति सुधर रही है. जुलाई में जर्मन अर्थव्यस्था मंत्री रॉबर्ट हाबेक कारोबारियों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ भारत गए थे ताकि जर्मन कंपनियों के लिए मौकों पर चर्चा की जा सके.
पिछले साल भारत के साथ जर्मनी का कारोबार रिकॉर्ड 30 अरब डॉलर तक पहुंच गया. 2015 की तुलना में यह करीब 73 फीसदी ज्यादा है. हालांकि इतने पर भी चीन की तुलना में यह महज 10 फीसदी ही है. भारत में जर्मन कंपनियों का सीधा निवेश भी 2022 में बढ़ कर 1.52 अरब यूरो तक पहुंच गया है जो 2019 में 1.13 अरब यूरो था.
एनआर/सीके (रॉयटर्स)