जब मिल बैठे भारत और जर्मनी एक साथ
३१ अक्टूबर २०१९हल्की हल्की सर्दी थी और बूंदा बांदी भी हो रही थी. चकाचक कपड़े पहने हुए कुछ सैलानियों का ग्रुप रेड लाइट होने के बाजवूद सड़क को पार करने की कोशिश कर रहा था. बात जर्मनी के कोलोन शहर की है. आबादी के लिहाज से जर्मनी के चौथे सबसे बड़े शहर कोलोन में पर्यटक अकसर ऐसा करते हैं. एक तो उनमें बहुत जिज्ञासा होती है और दूसरे उन्हें पता नहीं चलता है कहां जाएं, क्या करें.
कोलोन जर्मनी के नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया राज्य में पड़ता है और राइन नदी के किनारे पर बसा है. यह शहर दो हजार साल पुराना है और पिछले साल दुनिया भर से तीस लाख से ज्यादा पर्यटक इस शहर में घूमने पहुंचे. यूं तो सबसे ज्यादा पर्यटक या तो गर्मी के दिनों में आते हैं या फिर सर्दियों में, जब सब लोग क्रिसमस और नए साल के जश्न में डूबे रहते हैं. लेकिन कुछ शहर ऐसे होते हैं जहां साल भर पर्यटक आते हैं.
मेरी मुलाकात कोलोन में भारतीय पर्यटकों के जिस ग्रुप से हुई, वे लोग भी एक ट्रेड फेयर के लिए जर्मनी आए हुए थे. उनके पास एक दिन का समय था तो उन्होंने शहर घूमने का प्लान बनाया. ट्रेड फेयरों में भारत समेत दुनिया भर से पेशेवर लोग आते हैं और इनमें हाल से सालों में युवाओं की मौजूदगी बहुत बढ़ी है. ऐसे लोग, जो दुनिया घूमना चाहते हैं, डिजिटल टेक्नोसेवी होते हैं और नए अनुभवों के लिए तैयार रहते हैं.
जर्मनी में स्वागत है
बेशक, कोलोन में देखने वाली सबसे अहम चीज है शहर का कैथीड्रल, जिसे जर्मन भाषा में 'डोम' कहते हैं. यह कैथीड्रल गॉथिक वास्तुकला का बहुत ही शानदार नमूना है, जिसका निर्माण सैकड़ों साल तक चलने के बाद 1880 में रुका. 157 मीटर की ऊंचाई के साथ यह जर्मनी में दूसरी सबसे ऊंची मीनारों वाला चर्च है. इस मामले में पहले स्थान पर 161.5 मीटर की ऊंचाई के साथ दक्षिणी जर्मनी का उल्म मुंस्टर चर्च है.
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान होने वाली बमबारी में कोलोन कैथीड्रल बचा रहा. आज भी यह अपने मौलिक रूप में खड़ा है और शहर में अपना दबदबा कायम किए हुए है. कोलोन कैथीड्रल शहर के मुख्य रेलवे स्टेशन के बिल्कुल पास है. स्टेशन से निकलने वाला हर शख्स इसकी भव्यता में खो जाता है, भले ही कुछ सेंकड के लिए ही सही.
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मुसाफिरों से भरी हमारी बस वीकेंड पर व्यस्त शहर के बीच अपना रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ रही थी. बस का ड्राइवर गाइड का भी काम कर रहा था और हमें शहर के बारे में दिलचस्प बातें बता रहा था. मैं विक्रांत सावे से बात कर रही थी जो पहली बार जर्मनी आए थे. वे जर्मनी के बारे में सिर्फ अच्छी अच्छी बात कह रहे थे.
भारत से अपने साथ चॉकलेट वाले कुकीज लेकर आए विक्रांत ने बताया कि कैसे वह जर्मनी आने पर पहले दिन रास्ता भूल गए थे और फिर उनकी मुलाकात एक मिलनसार जर्मन महिला से हुई जिसने उन्हें अपनी कार से होटल तक छोड़ने की पेशकश की. इस वाकये ने जर्मनी को लेकर उनके दिल में अच्छी छाप छोड़ी और उनकी यात्रा के लिए एक सकारात्मक माहौल तैयार किया.
हमारे साथ सफर कर रहे आशीष जोगी भी हमारी बातचीत में शामिल हो गए और उन्होंने भी अपने पहले दिन का अनुभव साझा किया. बात कुछ साल पुरानी है. वह रविवार के दिन कोई एटीएम खोज रहे थे और इस बात से हैरान थे कि सारा बाजार और दुकानें बंद क्यों हैं. पुरानी यादों पर हंसते हुए वह कहते हैं, "मैं बेहद भीड़भाड़ वाले मुंबई शहर से आया था, तो इसीलिए मैं थोड़ा सहमा हुआ था. सुनसान जगह पर मैं अपने आपको एकदम अकेला महसूस कर रहा था. मैं वापस होटल गया और सो गया." उस दिन फिर आशीष बाहर ही नहीं निकले. लेकिन उसके बाद से वह कई बार जर्मनी आ चुके हैं. वह अपने दोस्तों के साथ समय गुजारते हैं और पर्यटन स्थलों पर जाते हैं.
कोलोन का प्रतीक: डोम
हमारी इस मजेदार बातचीत में कोलोन कैथीड्रल की मौजूदगी से खलल पड़ी. उस दिन आसमान में छाए बादलों की वजह से इस गॉथिक शाहकार की खूबसूरती और ज्यादा निखर कर सामने आ रही थी. हमारा ग्रुप दो हिस्सों में बंट गया. कुछ उस दिन फ्री एंट्री का फायदा उठाकर अंदर जाना चाहते थे जबकि कुछ लोग उसे बाहर से निहारना चाहते थे. कैथीड्रल के बाहरी हिस्से पर जहां गहरा रंग दिखता है, वहीं अंदर आपको रंगीन कांच वाली खिड़कियों से छनकर पहुंचने वाली रोशनी नजर आती है. बिल्कुल सामने आपको स्वर्णसज्जित तीन पवित्र नरेशों की श्राइन नजर आती है.
इतिहास के अनुसार, रोमन सम्राट फ्रेडरिक बारबारोसा ने 1164 में कोलोन के आर्कबिशप को बुद्धिजीवी की उपाधि दी थी. इसके बाद तीन सौ किलोग्राम सोने से श्राइन बनाई गई जिसका काम 1225 में पूरा हुआ. इसी के आसपास 1248 में कोलोन कैथीड्रल का निर्माण शुरू हुआ और 632 वर्षों तक चलता रहा. आधिकारिक तौर पर इसका निर्माण आज भी जारी है लेकिन इससे 1880 में रोक दिया गया.
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अगर इस तरह के दिलचस्प ऐतिहासिक तथ्य सैलानियों को हैरान नहीं कर पाएं तो फिर डोम के दक्षिण से 97 मीटर की ऊंचाई से पूरे शहर का नजारा उन्हें जरूर मोहित करेगा. इसके लिए बस तीन यूरो की टिकट लगती है. इससे पहले मैं 533 सीढ़ियों को चढ़कर इस नजारे को देख चुकी हूं. इसीलिए मैंने कैथीड्रल के बाहर घूमने वाले सैलानियों के ग्रुप में रहने का फैसला किया. हमने इस सुंदर इमारत को करीब से निहारा, खास तौर पर इसकी दीवारों पर बनी छोटी छोटी प्रतिमाओं को.
कोल्श बीयर से परिचय
बारिश लगातार हो रही थी, जिससे हमारे ग्रुप का घूमने का प्लान गड़बड़ा रहा था. खिली हुई धूप में राइन नदी में क्रूज की सवारी एक शानदार अनुभव होता है. लेकिन बारिश में उसका मजा नहीं लिया जा सकता. तो फिर हमने कोलोन के एक नए पहलू से रुबरु होने का फैसला किया. स्थानीय बीयर को चखने का. हम लोग कैथीड्रल के पास ही एक पारंपरिक ब्रूअरी में दाखिल हुए. वहां काम करने वालों ने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया. जैसे ही हमने अपनी अपनी जगहें ली, वैसे ही हमारे सामने पतले पलते गिलासों में बीयर पेश की गई.
कोल्श स्थानीय बीयर है जो अपने पीले रंग और गजब के स्वाद के लिए मशहूर है. यहां बनने वाली बीयर सिर्फ कोलोन के 50 किलोमीटर के दायरे में बेची जा सकती है. इसका नाम कोलोन की स्थानीय कोल्श बोली के नाम पर रखा गया है. इस ग्रुप के लोगों को बीयर चखते देख मैं सोच रही थी क्या ये लोग भी कोल्श के दीवाने बनेंगे, मेरी तरह. मैं ज्यादा देर इस ख्याल में नहीं रह पाई क्योंकि जल्द हम लोग बीयर का दूसरा दौर शुरू करने जा रहे थे.
अब हमारी बातचीत जर्मनी में घूमते हुए भाषा की समस्या की तरफ मुड़ गई. कोलोन जैसे बड़े शहरों में भी साइन बोर्ड, मैन्यु कार्ड और टिकट पर अंग्रेजी भाषा नहीं है जिससे यहां आने वाले सैलानियों को काफी दिक्कत होती है. इसके अलावा भारत और जर्मनी के बीच एक बड़ा सांस्कृतिक अंतर भी है.
पारंपरिक तौर पर भारतीय मेहमान नवाजी और खातिरदारी के आदी होते हैं, और जब बात टूरिज्म इंडस्ट्री की हो तो यह और जरूरी हो जाता है. लेकिन विदेश में कई बार आपको ऐसा नहीं मिलेगा. विक्रांत कहते हैं, "किसी भी यात्रा के बाद अपने साथ आप यादें और मुस्कान ले जाते हैं. इसलिए यह बहुत जरूरी हो जाता है कि लोगों ने आपके साथ कैसा बर्ताव किया, वे आपसे कैसे मिले." वह कहते हैं कि ज्यादातर समस्याएं सांस्कृतिक होती हैं, जिनकी वजह से कई बार आपको झटका भी लग सकता है, लेकिन विदेश जाते वक्त आपको ऐसी बातों के लिए तैयार रहना होगा. मैं इस बात पर पूरी तरह सहमत थी.
जर्मनी में भारत का स्वाद
कुछ सोविनियर खरीदने के बाद हम लोग शिल्डरगासे पर टहलने निकल गए जो कोलोन की सबसे व्यस्त शॉपिंग स्ट्रीट है. यहां एक कतार में सभी नामी स्टोर्स हैं. इस सड़क पर चलते हुए ग्रुप कोर्डिनेटर सुनील सिंह ने एक और गंभीर मुद्दे को छुआ, जो भारतीय पर्यटकों के लिए एक बड़ी चुनौती है. खाना. मैं खुद भी शाकाहारी हूं. इसलिए यह जानने में मेरी भी दिलचस्पी थी कि जब बाकी लोग बाहर जाते हैं तो कैसे काम चलाते हैं.
सुनील सिंह कई साल से जर्मनी में हैं और अकसर इस तरह के ग्रुप से उनका वास्ता पड़ता है. सुनील का कई भारतीय रेस्त्राओं से संपर्क है जो उनके ग्रुप के हिसाब से खाना परोसते हैं. भारत की दूसरी टूअर कंपनियां भी इसी तरह का प्रबंध करती हैं. चूंकि भारत का शाकाहारी खाना जर्मनी के सभी शहरों में मिल जाता है, फिर भी कुछ जरूरतों को पूरा करना मुश्किल होता है. मिसाल के तौर पर जैन खाना, जिसमें प्याज और लहसुन नहीं होते जबकि भारतीय खाने में इनका खूब इस्तेमाल होता है.
खाने की इतनी बात होने पर भूख लगना स्वाभाविक था. इसलिए हम लोग शहर के एक मशहूर भारतीय रेस्त्रां की तरफ निकल पड़े. मसालेदार सब्जियों, खुशबूदार चावल और नान रोटियों से सजी मेज के इर्द गिर्द बैठकर हमने जर्मनी और उसके लोगों को समझने की भरपूर कोशिश की.
हम अब खाने के आखिरी चरण की तरफ बढ़ रहे थे और सब एक बात पर सहमत थे. जर्मन लोग शायद अपनी अनोखी विरासत को बचाए रखना चाहते हैं, जिसकी वजह से बाहर के लोग उन्हें जिद्दी समझते हैं और उन्हें लचीलापन नहीं पाते हैं. लेकिन परस्पर सम्मान और आपस में बात करके समाधान खोजे जा सकते हैं. जर्मनी में प्रवासी के तौर पर रहते हुए मैंने भी अपना सकारात्मक अनुभव बांटा और खाने की मेज पर इससे ज्यादा खुल कर बात नहीं हो सकती थी. अब दोनों देशों के बीच जो भी अंतर हैं, उन्हें एक दूसरे के यहां जाकर और एक दूसरे से संपर्क करके ही पाटा जा सकता है.
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