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क्यों परवान नहीं चढ़ रहा भारत चीन का रिश्ता

राहुल मिश्र
२६ अप्रैल २०१८

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से वुहान शहर में मिल रहे हैं. चीन की वन बेल्ट वन रोड परियोजना पर विवाद, आपसी व्यापार घाटा और डोकलाम की तनातनी के बाद दोनों की मुलाकात का खास महत्व है.

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Xi Jinping bei Modi 17.09.2014 Ahmedabad
तस्वीर: Reuters/Amit Dave

चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स ने इस मुलाकात को भारत चीन संबंधों के लिए बड़ा कदम बताया है जो, "1988 में राजीव गांधी और देंग शिआओपिंग के बीच हुई मुलाकात जितनी ही अहम है." 1987 में सुमदोरोंग छू की तनातनी और उसके बाद राजीव गांधी की चीन यात्रा ने 1988 में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत शुरू कराई. उसके बाद से आपसी संबंधो में आंकड़ों के लिहाज से तो काफी परिवर्तन आया है लेकिन गुणात्मक रूप से ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है.

बीते कुछ महीनों से दोनों एशियाई दिग्गजों के बीच सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है. इससे यह सवाल उठता है कि आखिर भारत चीन के संबंधों में परेशानी क्या है? और क्यों इन दोनों देशों के बीच इस तरह का सीमा विवाद उठ खड़ा हुआ जिसके लिए विस्तृत बातचीत जरूरी हो गई? इसके कम से कम पांच कारण हैं.

Indien China Grenzsoldaten Archiv 2008
तस्वीर: Diptendu Dutta/AFP/Getty Images

पहला तो यह है कि नेहरू के जमाने से ही "हिंदी चीनी भाई भाई" के नारे और 1962 के युद्ध से लेकर 2017 के डोकलाम विवाद तक भारत और चीन के रिश्ते शायद ही कभी सच्चाई की बुनियाद पर रहे. दो पड़ोसियों के रिश्तों में कभी बहुत उत्साह दिखता है तो, कभी इस बात से साफ इनकार कि सब कुछ ठीक है (या हो जाएगा), या फिर कभी आपसी बातचीत की कमी से पैदा हुई बेपरवाही, कड़वाहट और अविश्वास. इससे भी बुरी बात यह है कि दोनों देशों की सरकारों के बीच चुनिंदा बातचीत होती है जिनसे सरकार के अलग अलग विभागों, आम लोगों और मीडिया में आशंकाएं पैदा हो जाती हैं. 

दूसरे भारत और चीन दोनों एक दूसरे के प्रभाव और विकास को बढ़ने से रोकने की खूब कोशिश करते हैं. मिसाल के लिए देखिए, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का चीन कथित रूप से प्रमुख विरोधी है, वह न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भी भारत के प्रवेश का विरोध कर रहा है. यहां तक कि आतंकवाद जैसे संवेदनशील मामलों में भी जहां भारत एक राष्ट्र के रूप में अपनी आवाज रखता है, चीन ने उसका साथ नहीं दिया.

इसी तरह से अगर चीनी पक्ष की ओर से देखें तो उसे लगता है कि भारत के साथ समझौता करना मुश्किल काम है. भारत उन चुनिंदा देशों में है जो चीन के वन बेल्ट वन रोड परियोजना का समर्थन नहीं कर रहे हैं. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए यह परियोजना बेहद खास है. चीन क्वाड्रिलैटरल सिक्योरिटी डॉयलॉग में भारत के शामिल होने की वजह से भी आशंकित है. इसमें अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया भी हैं. चीन मानता है कि यह ग्लोबल पावर के रूप में उसके उभार को कम करने का एक औजार है. दोनों देशों की क्षेत्रीय और वैश्विक आकांक्षाओं को ध्यान से देखें तो लगता है कि वे चाहते हैं कि दूसरा न होता तो अच्छा होता.

तीसरा, चीन शीत युद्ध के बाद की राजनीति का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाला देश है. उसे अंतरराष्ट्रीय उदारवाद का भी खूब फायदा मिला है. चीन ने जापान के ओवरसीज डेवलपमेंट असिस्टेंस (ओडीए) का बड़ा लाभ लिया है. हालांकि अब भारत जापान के ओडीए का ज्यादा लाभ ले रहा है या फिर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अमेरिका का समर्थन पा रहा है. चीन इसे भविष्य की सुरक्षा के लिए चुनौती के रूप में देखता है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पेंटागन में बैठे "अधिकारी" चीन के असर को संतुलित करने के लिए भारत का इस्तेमाल करना पसंद करेंगे लेकिन यह भी याद रखा जाना चाहिए कि बैर की बुनियाद खुद इन दोनों देशों ने रखी है, अमेरिका या उसके किसी सहयोगी देश ने नहीं.

चौथा, चीन अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी जगत पर कूटनीति में दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगाता है, लेकिन खुद चीन भी इस बीमारी से मुक्त नहीं है. उदाहरण के लिए राष्ट्रपति जिनपिंग अमेरिका के साथ एक नई तरह के शक्ति संबंधों की वकालत करते हैं. हालांकि खुद चीन एशिया के ताकतवर देशों भारत और जापान की अनदेखी करता है, जबकि ये दोनों देश चीन से भी ऐसी ही उम्मीद रखते हैं. दक्षिण एशियाई देशों के साथ संबंधों के मामलों में जहां भारत के सीधे हित जुड़े हुए हैं, वहां भी चीन भारत से मशविरा लेने का कोई तंत्र बनाने के खिलाफ है.

चीन इस बात की वकालत करता है कि किसी विवादित इलाके में तीसरे देश को निवेश नहीं करना चाहिए, लेकिन यह उपदेश वह खुद पर लागू नहीं करता. भारत के अरुणाचल प्रदेश में जापान के निवेश का विरोध, दूसरी तरफ पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में चीन का निवेश इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं. चीन का कहना है कि भारत उसकी पहल पर प्रतिक्रिया नहीं देता जिसके जवाब में भारत की दलील है कि वन बेल्ट वन रोड और चीन नेपाल भारत कॉरिडोर जैसी ज्यादातर परियोजनाओं के पहले मशविरा या पारदर्शी बातचीत नहीं की गई.

पांचवां, सीमा विवाद, तिब्बती शरणार्थी, ब्रह्मपुत्र के पानी के बंटवारे जैसे दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों में ऐसे बहुत से अनसुलझे मुद्दे हैं. चीन का रवैया कई दशकों से इन मुद्दों को सुलझाने वाला नहीं रहा है बल्कि इसके उलट वह विवादों पर अनौपचारिक रुख अपना कर इन्हें "संभालता" रहा है. चीन ने म्यांमार, रुस और यहां तक कि वियतनाम जैसे मध्य एशियाई देशों के साथ अपने सीमा विवाद सुलझा लिए हैं लेकिन भारत के मामले में लगता है कि समाधान ढूंढने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है.

एशिया के इन दो ताकतवर देशों के रिश्ते में भरोसे की कमी और सुरक्षा को लेकर असमंजस नजर आता है जिसे हटा कर निरंतर बातचीत, नियमित लेन देन और एक दूसरे के हितों और चिंताओं का मूल्यांकन करने की जरूरत है. 

(राहुल मिश्रा मलय यूनिवर्सिटी  में सीनियर लेक्चरर और एशिया प्रशांत विशेषज्ञ हैं.)