एक 'अच्छे' स्कूल की तलाश में
१४ अगस्त २०२०ऑनलाइन क्लास चल रही है. चाल साल की मेरी बेटी लैपटॉप की स्क्रीन पर अपनी कक्षा के दूसरे बच्चों को देख उन्हें मुंह चिढ़ा रही है. मैं ये सोच रहा हूं कि उसका ध्यान पढ़ाई पर वापस कैसे लाऊं कि तभी मेरा ही ध्यान कहीं और चला जाता है. भाषा के सही इस्तेमाल को लेकर कुछ पागल से मेरे मस्तिष्क में मेरे कानों से होते हुए एक संदेश पहुंचता है. लैपटॉप से बेटी की टीचर की आवाज आ रही है. वो बच्चों को अपने माता-पिता का नाम बताना सिखा रही है.
पढ़ाते पढ़ाते टीचर कहती है, "माई फादर नेम इज..." इसी ने मेरा ध्यान भटकाया था. संबंध कारक का चिंह यानी एपॉस्ट्रॉफी कहां गया भाई? मैं अनसुना कर देता हूं. जबान फिसल गई होगी. लेकिन अगले ही पल एक और एपॉस्ट्रॉफी की हत्या हो जाती है. "माई मदर नेम इज..." अब तक मेरी त्यौरियां चढ़ चुकी हैं. तभी टीचर कहती है, "व्हाट इज योर फादर?" आप सर मत खुजाइए. मैं आपकी मुश्किल आसान किए देता हूं. अब तक टीचर माता-पिता के नाम से उनके पेशे तक पहुंच चुकी है. अगर भाषा का सही ज्ञान होता तो पूछती, "व्हाट डज योर फादर डू?"
टीचर के मुखचंद्र के दर्शन का अभिलाषी मैं बेटी की तरफ का वीडियो बंद कर लैपटॉप की स्क्रीन पर देखता हूं. टीचर लैपटॉप के कैमरे पर झुकी हुई है और उसने अपनी मेज पर अपने बाएं हाथ की कोहनी टिका कर अपनी खुली हथेली पर अपने गाल से लेकर माथे को टिका रखा है. कुछ पलों बाद वो हथेली पर अपनी ठोड़ी टिका लेती है. आवाज में भी बोझ का पूरा पूरा एहसास है.
मनपसंद स्कूल में दाखिला
अब तक मेरी त्यौरियां उतर चुकी हैं. मैं अब मायूसी से कभी टीचर को देख रहा हूं, कभी बेटी को और कभी बस शून्य में. अगले साल स्कूल बदलने की तमन्ना दिल में घर कर जाती है. लेकिन तुरंत ही उस तमन्ना पर चिंता के बादल भी छा जाते हैं. मनपसंद स्कूल में दाखिला मिल पाने की गारंटी है? यह स्कूल भी तो हमारा मनपसंद नहीं था. दिल्ली में मनपसंद स्कूल में दाखिला मिलना पहले भी कठिन था, लेकिन अब असंभव ही हो गया है.
ऐसे सिस्टम से आप क्या ही अपेक्षा कर सकते हैं जिसमें दाखिला लॉटरी के आधार पर होता हो? और लॉटरी में नाम आने की संभावनाएं भी इतनी कम कि 30 स्कूलों में विधिवत आवेदन करने के बाद नाम आए सिर्फ एक में. उसके ऊपर से ध्यान देने वाली बात ये कि मैं जिस सिस्टम को लेकर आपसे अपनी व्यथा कह रहा हूं, उसके दायरे में भारत के मुश्किल से 30 प्रतिशत बच्चे आते होंगे. ये कहानी निजी स्कूलों में नर्सरी कक्षा में दाखिले की है, जिसे कुछ स्कूलों में 'लोअर किंडरगार्टन' (एलकेजी) भी कहा जाता है. इसके बाद होती है प्रेप कक्षा जिसे कुछ स्कूलों में 'सीनियर किंडरगार्टन' या 'अपर किंडरगार्टन' भी कहा जाता है.
देश में करीब 65 प्रतिशत स्कूल सरकारी हैं, जिनमें ये कक्षाएं होती ही नहीं. स्कूल सीधा पहली कक्षा से शुरू होता है जिसमें पांच साल की उम्र में दाखिला लेना होता है. निजी स्कूलों में नर्सरी में दाखिले की उम्र होती है तीन साल. मैं सरकारी स्कूल व्यवस्था का मुरीद नहीं हूं और अपनी बेटी को एक अच्छे निजी स्कूल में पढ़ाना चाहता हूं, जहां शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाता हो.
शिक्षा की गुणवत्ता
यह सपना पूरे देश में सिर्फ मेरे जैसे मध्यम-वर्गीय अभिभावकों का ही नहीं है. कम आय वाले परिवार भी धीरे धीरे सरकारी व्यवस्था छोड़ कर निजी स्कूलों का रुख कर रहे हैं. अब अगर निजी स्कूल भी शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित नहीं कर पा रहे, तो निश्चित ही हमारी शिक्षा नीति में कुछ गड़बड़ है. मेरा मानना है कि दाखिले में सामने आने वाली समस्याओं के पीछे कम स्कूलों का होना नहीं है बल्कि कम 'अच्छे' स्कूलों का होना है.
क्या सरकारी और क्या निजी, अगर हम सभी स्कूलों को 'अच्छा' बना देंगे, यानी उनमें शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित कर देंगे, तब अभिभावक निश्चिंत हो कर अपने बच्चे को किसी भी स्कूल में डाल सकेंगे और यह समस्या हल हो जाएगी.
मेरी स्मृति मुझे मेरे बचपन में ले जाती है, जब अपनी आंखों में मेरे लिए सपने लिए मेरे माता-पिता एक छोटे शहर से राष्ट्रीय राजधानी आए थे. दक्षिणी दिल्ली का एक बड़ा और 'अच्छा' स्कूल मुझे दाखिला देने को तैयार था, लेकिन मेरे जन्म प्रमाण-पत्र की मूल प्रति मांग रहा था. मेरे माता-पिता इस कदर वहां मेरा दाखिला कराने के इच्छुक थे कि उन्होंने डाक पर निर्भर होना तक उचित नहीं समझा और जन्म प्रमाण-पत्र मंगवाने के लिए मेरे मामा को ट्रेन से करीब 1,000 किलोमीटर दूर हमारे गृह-नगर भेज दिया.
मामा को जाकर फिर वापस दिल्ली लौटने में देर हो गई और मेरे माता-पिता अपने मनपसंद स्कूल में मेरा दाखिला नहीं करा पाए. हालांकि वो तुरंत ही एक मध्यम-वर्गीय लेकिन 'अच्छे' स्कूल में मेरा दाखिला कराने में सफल रहे. अब मैं उनकी जद्दोजहद को याद कर एपॉस्ट्रॉफियों के एक ढेर पर अपनी बेटी की टीचर को चलते हुए देखने की कल्पना करता हूं और ये सोचता हूं कि अपने बच्चे को अपने मनपसंद स्कूल में दाखिला ना दिला पाने की असफलता के अफसोस का ये चक्र और कितनी पीढ़ियों तक चलता रहेगा?
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