आरसीईपी से इंकार क्या भारत का संरक्षणवादी कदम
५ नवम्बर २०१९लम्बे विचार विमर्श और सौदेबाजी के बाद भारत ने आखिरकार एक बड़े एशियाई व्यापार संधि रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) से किनारा कर तो लिया है, पर इससे वैश्विक व्यापार बनाम संरक्षणवाद की बहस छिड़ गई है. मोदी सरकार के फैसले के समर्थक इसे किसानों और उद्योगों के हित में उठाया गया कदम बता रहे हैं तो आलोचक इसे वैश्विक व्यापार विरोधी संरक्षणवाद बता रहे हैं. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने बस इतना कहा कि भारत ने ये निर्णय निष्पक्षता और संतुलन के आधार पर लिया. उन्होंने कहा कि भारत के मूल हित के महत्वपूर्ण मुद्दे थे जिनका समाधान नहीं निकला था और अगर इसके बावजूद भारत संधि पर हस्ताक्षर कर देता तो हर भारतीय नागरिक के जीवन पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता.
भारत में आरसीईपी से बाहर रहने के फैसले पर मिली जुली प्रतिक्रिया हुई है. आरसीईपी के विरोधी पहले से ही कई थे और वे भारत के फैसले का स्वागत कर रहे हैं. विपक्षी राजनीतिक पार्टियां भी संधि के खिलाफ थीं और अब जब सरकार ने इसे ठुकरा दिया है तो विपक्ष इसे अपनी जीत मान रहा है. लेकिन वहीं एक वर्ग ऐसा भी है जो इस कदम से निराश है और भारत सरकार पर शुद्ध रूप से संरक्षणवादी बन जाने का आरोप लगा रहा है.
अर्थशास्त्री आमिर उल्लाह खान कहते हैं कि क्षेत्रीय व्यापारिक गठबंधन के भावी सदस्य राष्ट्र कुल मिलाकर दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार गुट बनाते हैं और इस से न जुड़ना विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से ही बाहर रहने के बराबर है, जिसका कोई अर्थ नहीं बनता. खान कहते हैं, "हम क्यों अनावश्यक रूप से चिंता कर रहे हैं? हमारे निर्यात को देखिए. हम मूलतः तीन चीजों का निर्यात करते हैं, पेट्रोल और लुब्रिकेंट्स, आभूषण और इंजीनियरिंग. इन तीनों में हमें फायदा होगा क्योंकि इन तीनों क्षेत्रों में हमारे पास बहुत बड़ा सुआवसर है. बाकी सभी देश इन क्षेत्रों में आयातक हैं, तो अगर हम संधि में शामिल हो जाएंगे तो हमें कम शुल्क का फायदा मिलेगा और हमारे निर्यात बढ़ेंगे."
और आयात का क्या होगा? आमिर उल्लाह खान कहते हैं कि भारत के कुल आयात का लगभग 80 प्रतिशत तेल और सोने के आयात हैं और ये सब हम उन देशों से लेते हैं जो आरसीईपी में हैं ही नहीं. वे मानते हैं, "हमें कोई फर्क ही नहीं पड़ेगा. हमारा निर्यात वैसे भी सारा आरसीईपी देशों को जाता है. संधि से जुड़ जाएंगे तो हमें कम शुल्क का फायदा मिलेगा." आमिर की राय में इस समय भारत की सबसे बड़ी चिंता ये है कि उसका निर्यात डूब रहा है. तो इस समय उसे हर वो कदम उठाना चाहिए जिससे निर्यात बढे.
भारत की बाजार अर्थव्यवस्था में भरोसा रखने वाले लोग मोदी सरकार के फैसले से हैरान हैं. उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी राय व्यक्त की है. पत्रकार शेखर गुप्ता का कहना है कि आर्थिक सुधारों के 28 साल बाद ये कहना कि हम प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार नहीं हैं, आत्मविश्वास में कमी को दिखाता है.
वरिष्ठ पत्रकार अंशुमान तिवारी ने पूरी बहस के एक अहम पहलू की तरफ ध्यान दिलाते हैं. उन्होंने बताया कि अभी आरसीईपी की मोटे तौर पर रूपरेखा उपलब्ध नहीं है जो कि आधिकारिक रूप से जनवरी 2020 में सामने आएगी जब संधि पर हस्ताक्षर होंगे. उनकी राय में अभी जानकारी से ज्यादा गलत जानकारी है और ज्यादा डर फैले हुए हैं. अंशुमान तिवारी कहते हैं, "ये ठीक वैसे ही डर हैं जो भारत के डब्ल्यूटीओ से जुड़ने से पहले थे. आसियान मुक्त व्यापर संधि (एफटीए) पर हस्ताक्षर करने से पहले भी ऐसे ही डर थे. लेकिन सच ये है कि भारत ने अभी तक जितने एफटीए किए हैं उनमें से ज्यादातर एशियाई देशों के साथ हैं और उसका बहुत बड़ा फायदा बड़े पैमाने पर पिछले कुछ सालों में भारत को हुआ है. अकेले आसियान से एफटीए के बाद भारत के कुल व्यापार में 50 प्रतिशत वृद्धि हुई है. ये बात आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 में पूरे विस्तार और डाटा के साथ कही गई है. ये भारत की सबसे सफल मुक्त व्यापार संधियों में एक है."
तक्षशिला इंस्टीच्यूशन के नितिन पाई का कहना है कि आरसीईपी से बाहर रहना खुशी मनाने की वजह नहीं हो सकता, न ही ये कूटनीतिक सफलता है.
अंशुमान तिवारी व्यापार घाटे की बात को व्यापार की पुरानी समझ बताते हैं, "ये परिभाषा केवल उत्पादों के निर्यात और आयात पर आधारित है, पर अब व्यापार और निवेश एक साथ आता है. जरूरी नहीं है कि आप बहुत सारा उत्पाद निर्यात करके पैसा कमाएं. अगर दूसरे देशों की कंपनियां आपके यहां निवेश करने आ रही हैं तो वो भी व्यापार का ही हिस्सा है." विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आने के बाद दुनिया भर के देश व्यापार को निवेश के साथ जोड़ कर देखते हैं. भारत के पास बड़े पैमाने पर पूर्वी एशियाई देशों से निवेश आया है, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और संस्थागत विदेशी निवेश दोनों के ही रूप में. अंशुमान तिवारी के मुताबिक, "इसको जब आप उत्पादों के आयात - निर्यात के साथ जोड़ते हैं तो आपको लगता है कि भारत-आसियान एफटीए बहुत नुकसान का सौदा नहीं रहा है."
आरसीईपी में शामिल नहीं होने के भारत के फैसले के पीछे भारत के बाजार पर चीन के कब्जे का डर रहा है. हकीकत ये है कि चीन के साथ भारत का एफटीए नहीं होने के बावजूद भारत की चीन पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है. अंशुमान तिवारी कहते हैं, "ये इस वजह से नहीं है कि हमने चीन को कोई विशेष रियायतें दे रखी हैं. हमारे उद्योग प्रतिस्पर्धात्मक है ही नहीं. हम प्लास्टिक के बल्ब और मूर्तियां तक नहीं बना पाते, तो हमारे पास सस्ता सामान वहां से आता है. ये सच हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि हम अगर सारी चीजें नहीं बना पाते तो हमें उन चीजों का आयात करना पड़ेगा."
तो क्या आयात करने के लिए दूसरे देशों के आगे हथियार डाल देने चाहिए? अंशुमान कहते हैं कि आयात के बदले आप क्या कर सकते हैं, ये चर्चा होती रहने चाहिए और आर सी ई पी में भी होती रहने चाहिए थी. उनका मानना है, "भारत को अपने पुराने बात चीत के तजुर्बे से सीखना चाहिए, ना की बिना सोचे रिएक्शन दे कर बाहर आ जाना चाहिए. प्रधामंत्री के स्तर से तो ये घोषणा बिलकुल भी नहीं होनी चाहिए थी क्योंकि उस से ये सन्देश जाएगा की आप संरक्षणवादी रवैया अपना रहे हैं".
डॉ. अरविंद वीरमानी का भी यही मानना है कि 14 देशों वाले समूह में भारत के दोस्तों को उसकी चिंताओं पर ध्यान देने के लिए नहीं मनाया जा सका. उनकी भी दलील है कि भारत को उद्योग और कृषि क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए.
आसियान और चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर नजर रखने वालों को संतोष इस बात पर है कि सरकार ने भी विस्तार से कुछ नहीं कहा है और आरसीईपी का बयान भी काफी दोस्ताना लग रहा है. अंशुमान तिवारी तो यहां तक कहते हैं कि अंदर अंदर अधिकारी बता रहे हैं कि आरसीईपी पर बातचीत के दरवाजे अभी बंद नहीं हुए हैं और भारत और कड़ी बातचीत करेगा. आने वाले तीन महीने आरसीईपी में भारत की भागीदारी को लेकर काफी महत्वपूर्ण रहेंगे.
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