आम मुसलमानों से दूर है अयोध्या की मस्जिद
२९ जनवरी २०२१मस्जिद की नींव धन्नीपुर गांव में पांच एकड़ के जमीन के एक टुकड़े पर रखी गई. मस्जिद के निर्माण के लिए बनाए गए ट्रस्ट इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन (आईआईसीएफ) के सदस्यों ने आमंत्रित मेहमानों के साथ मिल कर नई मस्जिद की नींव रखी. समारोह में राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया, राष्ट्र-गान गाया गया और साथ ही इस मौके पर वहां इमली, आम, नीम, अमरुद और कुछ दूसरे पौधे लगाए गए.
सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में कई दशकों से चले आ रहे बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर फैसला देते हुए कहा था कि विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण होना चाहिए और उसके ऐवज में उस से कुछ ही दूर एक मस्जिद बनाई जानी चाहिए. इसी आदेश का पालन करते हुए यह जमीन उत्तर प्रदेश सरकार ने उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद को बनाने के लिए दी. वक्फ बोर्ड ने करीब छह महीने पहले इस अभियान के लिए आईआईसीएफ की स्थापना की.
मस्जिद का निर्माण शुरू करने के लिए जरूरी सभी संबंधित सरकारी विभागों की अनुमति अभी तक नहीं मिली है, लेकिन ट्रस्ट अभी से मस्जिद के बारे में कई फैसले ले चुका है. इनमें मस्जिद का डिजाइन कैसा होगा, इसमें क्या क्या सुविधाएं होंगी जैसी चीजें शामिल हैं. मस्जिद का नाम 1857 की क्रांति के एक मुस्लिम क्रांतिकारी नेता मौलवी अहमदुल्लाह शाह के नाम पर रखने के प्रस्ताव पर भी ट्रस्ट विचार कर रहा है.
कौन ले रहा है फैसले
मस्जिद से जुड़े ये फैसले आखिर किस आधार पर लिए जा रहे हैं? ये सरकारी आदेश हैं या ट्रस्ट के लिए स्वतंत्र फैसले और अगर ये ट्रस्ट के फैसले हैं तो क्या इनके बारे में आम मुसलमानों से सलाह-मशविरा लिया जा रहा है? एक बात साफ है कि मुस्लिम संगठन बंटे हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सुन्नी वक्फ बोर्ड भी पक्षकार था. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने हिस्से में जमीन का एक हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को भी दिया था. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उसे दूसरी जगह पर मस्जिद के लिए जमीन देने का फैसला सुनाया.
वक्फ बोर्डों की निगरानी केंद्रीय वक्फ परिषद करती है जिसे केंद्र सरकार ने 1954 में वक्फ एक्ट के जरिए बनाया था. इस परिषद की अध्यक्षता केंद्र सरकार में वक्फ मामलों के मंत्री के हाथों होती है. भारत के अधिकांश राज्यों में वक्फ बोर्ड हैं जिनकी निगरानी 1995 में बने एक कानून के तहत होती है. इस हिसाब से वक्फ बोर्ड सरकारी संस्थाएं हैं. वक्फ बोर्ड किसी भी मामले में पक्षकार हो सकता है, लेकिन वह समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करता और ना ही समुदाय उसके फैसलों को मानने के लिए बाध्य है.
बंटा है मुस्लिम समुदाय
बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी ने डीडब्ल्यू को मस्जिद की नींव रखे जाने से पहले ही बताया था कि यह मस्जिद शरिया यानी इस्लामी कानून और भारत के वक्फ कानून के खिलाफ है. जिलानी अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य भी हैं. उनका कहना है कि बोर्ड ने नवंबर 2019 में ही साफ कर दिया था कि शरिया में किसी मस्जिद के बदले कोई जमीन लेने की इजाजत ही नहीं है और 90 प्रतिशत मुसलमान सुप्रीम कोर्ट के फैसले से खुश नहीं हैं. बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका भी दायर की थी लेकिन कोर्ट ने याचिका को खारिज कर दिया था.
बोर्ड के एक और सदस्य और बोर्ड की ही बाबरी मस्जिद समिति के संयोजक सईद कासिम रसूल इलियास ने डीडब्ल्यू से कहा कि यह मस्जिद परोक्ष रूप से सरकार ही बनवा रही है. उनका कहना है कि कोर्ट के आदेश को उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने मान लिया था लेकिन अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा था कि ऐवज में दी जा रही यह मस्जिद उन्हें स्वीकार्य नहीं है.
इसके अलावा इलयासी ने कहा कि वक्फ के कानून के मुताबिक मस्जिद हमेशा मस्जिद ही रहती है और इसीलिए अदालत में लड़े गए पूरे मामले में मुस्लिम पक्ष की तरफ से कभी भी बाबरी मस्जिद के ऐवज में कोई वैकल्पिक स्थान मांगा ही नहीं गया. हालांकि इलयासी ने यह भी कहा कि मस्जिद चूंकि किसी कब्जा की हुई जमीन पर नहीं बन रही है, उसके बन जाने के बाद उसमें नमाज पढ़ने की मनाही नहीं होगी और अगर कोई उसमें नमाज पढ़ने जाएगा तो उसे रोका नहीं जा सकता है.
शिकायत है कुछ लोगों को
सुप्रीम कोर्ट में बाबरी मस्जिद-राम मंदिर मुकदमे में मुस्लिम पक्ष की ओर से सात याचिकाएं दायर की गई थीं, जिसमें एक याचिका सुन्नी वक्फ बोर्ड की भी थी. अब जब वह उसे मिली जमीन पर एक ट्रस्ट बनाकर मस्जिद बना रहा है तो कई मुस्लिम संगठन नाराज हैं. इनमें सिर्फ मुस्लिम लॉ बोर्ड के सदस्य ही नहीं हैं.
मुस्लिम लॉ बोर्ड से बाहर भी लोगों के बीच इससे मिलती-जुलती राय है. नई दिल्ली के इंस्टिट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज के अध्यक्ष मंजूर आलम का कहना है कि इस मस्जिद से जुड़ी जो भी कार्रवाई हो रही है आम मुसलमानों को उसकी कोई खबर नहीं है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा कि मस्जिद के विषय में किसी से ना राय ली जा रही है ना मशविरा किया जा रहा है और इसके बारे में कहीं भी मुसलमानों में कोई जोश या जज्बा नहीं है, कोई खुशी, कोई गर्मजोशी नहीं है.
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