आउशवित्स: मानवीय समाज के लिए चेतावनी
२७ जनवरी २०१५दहशत की जगह है आउशवित्स. यह नाम है जर्मनी के सबसे बड़े यातना शिविर का. नरसंहार की यह जगह नाजीवाद के पागलपन को दर्शाती है. आज वहां एक स्मारक है जिसे देख कर सब अवाक रह जाते हैं. यह सोच कर हैरानी होती है कि इंसान कितना क्रूर हो सकता है और जर्मनी के लोगों ने इतने सारे देशों के लोगों को कितना दर्द पहुंचाया है.
आउशवित्स से जीवित बच कर गए कम ही लोग, कभी वहां लौट कर गए हैं. जाँ अमेरी, टाडेऊष बोरोव्स्की और प्रीमो लेवी इस दर्द के साथ जी ना सके और उन्होंने 1945 के कुछ साल या दशक बाद अपनी जान ले ली. अगर कोई पीड़ितों के साथ आउशवित्स जाए, तो वह महसूस कर सकता है कि दहशत का कोई अंत नहीं है. आज भी वे तस्वीरें, उनका दर्द जिंदा है. कुछ बूढ़े लोग यहां आते हैं, जिन्होंने कभी अपने माता पिता या भाई बहनों को यहां खो दिया था. वे कभी उस वक्त को नहीं भूल पाते जब उन्हें अपने प्रियजन का हाथ छोड़ना पड़ा था. 2005 में इस त्रासदी की याद में जब एक भव्य समारोह हुआ, तो अचानक ही एक बूढ़ा आदमी अतिथियों और नेताओं की कतार तोड़ता हुआ रैंप के पास पहुंच गया. घुटने के बल बैठ कर, वह पत्थर को चूमने लगा और रोते हुए एक बार फिर गायब हो गया. उस दिन दिए गए कई भाषणों की तुलना में यह एक तस्वीर, यह एक वाकया बताता है कि यह जगह कितनी भयानक है.
आखिरी मौका
मंगलवार को एक बार फिर आउशवित्स बिरकेनाउ में सैकड़ों पीड़ित जमा हो रहे हैं. कई देशों से यहूदी यहां पहुंच रहे हैं, पोलैंड के करीब एक सौ पूर्व कैदी भी. ऐसा आखिरी बार होगा कि चश्मदीद इतनी बड़ी संख्या में साथ आएंगे और 27 जनवरी को याद करेंगे. जब तक ये लोग हैं, हमें उन्हें सुनना चाहिए. उनकी कहानियों हमारे लिए सबक का काम करेंगी.
लोगों को आउशवित्स से आजाद कराने के दिन को नाजीवाद के पीड़ित लोगों की यादगार के रूप में मनाने में जर्मनी को पचास से भी ज्यादा सालों का वक्त लग गया. बड़े अफसोस की बात है कि इस साल, जब सबकी नजरें पीड़ितों पर हैं, उनमें से कोई भी कुछ नहीं कहेगा, बल्कि देश के राष्ट्रपति भाषण देंगे.
क्या इस स्मरणोत्सव से कोई सफलता मिल रही है? क्या जर्मनी के लोग अपनी जिम्मेदारी को समझ पाए हैं? कुछ दिन पहले हुआ एक सर्वेक्षण चिंता करने को विवश करता है. सर्वे के अनुसार 81 फीसदी लोग यहूदियों के उत्पीड़न के इतिहास को पीछे छोड़ देना चाहते हैं. इसके विपरीत जर्मनी के सभी राज्यों में यातना शिविरों को देखने के लिए जाने वाले लोगों की संख्या में साफ बढ़ोतरी देखी जा रही है. आउशवित्स बिरकेनाउ में भी पिछले साल 15 लाख से ज्यादा लोग आए और रिकॉर्ड दर्ज किया गया. ये दोनों ही उदाहरण दिखाते हैं कि होलोकॉस्ट की याद आज भी ताजा है.
रस्मअदायगी से बचना होगा
दक्षिणपंथी पॉपुलिस्ट आंदोलनों में आई तेजी, नए तरह के प्रदर्शन, दिखने वाला अक्खड़पन, इंटरनेट में या माइक्रोफोन पर विदेशी विरोधी या नस्लवादी बयान, इन दिनों खासकर दिख रहा है कि नाजीकाल के अत्याचार को याद करना कितना जरूरी है. हमें जागरूक रहने की जरूरत है. स्मृति दिवस को महज रस्मअदायगी बनने से रोकना होगा, इससे सबक सीखना होगा.
फ्रांस के फिल्मकार क्लोद लांसमान अपने काम में यहूदी नरसंहार की त्रासदियों को दर्शाते रहे हैं. वे चाहते हैं कि लोगों को उन चीजों का अहसास हो, जिन पर वर्तमान टिका हुआ है. हम केवल उन पीड़ितों के ही गुनहगार नहीं हैं, हम उस समाज के गुनहगार हैं जिसमें इंसानियत बसी होनी चाहिए. आउशवित्स, दहशत की जगह है. यह नाम बना रहेगा, एक चेतावनी के तौर पर, एक जिम्मेदारी के तौर पर.