असम में अतिक्रमण विरोधी अभियान पर तेज होता विवाद
११ जून २०२१राज्य सरकार की दलील है कि इन परिवारों ने सरकारी जमीन पर लंबे समय से अतिक्रमण कर रखा था. विवाद की वजह यह है कि जिन परिवारों को हटाया गया है वे सब अल्पसंख्यक तबके के हैं. इसलिए बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार पर अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के आरोप लग रहे हैं. इसे मुस्लिम-विरोधी अभियान भी कहा जा रहा है. बरपेटा के कांग्रेस सांसद अब्दुल खालेक ने गौहाटी हाईकोर्ट से इस मामले में दखल देने की अपील की है.
असम कैबिनेट ने बीते आठ जून 77 हजार बीघा जमीन को अतिक्रमण-मुक्त कर उनके समुचित इस्तेमाल के लिए एक समिति का गठन किया था. मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा है कि राज्य के तमाम इलाकों में सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा हटाने का अभियान चलाया जाएगा. उन्होंने 2019 में विधान सभा में कहा था कि राज्य में करीब 400,000 जंगल की जमीन अवैध कब्जे में है.
क्या है मामला
राज्य सरकार ने इस सप्ताह सरकारी जमीन से कब्जा हटाने के अभियान के तहत शोणितपुर जिले से करीब सौ परिवारों को हटा दिया. उनके मकान भी बुलडोजर से ढहा दिए हैं. इसके अलावा होजाई और दरंग जिले में भी कई मकान ढहाए जा चुके हैं. राज्य सरकार ने अतिक्रमण-विरोधी अभियान के तहत एक सप्ताह के दौरान शोणितपुर, होजाई, करीमगंज और दरंग जिलों में दो सौ से ज्यादा मकान ढहा दिए हैं. इनमें से ज्यादातर मकान अल्पसंख्यकों के थे.
होजाई जिले में ऐसे एक मकान में रहने वाले रशीदुल हक कहते हैं, "हमें महज चौबीस घंटे पहले मकान खाली करने का नोटिस थमाया गया. इस समय रात का कर्फ्यू लागू है. लेकिन कर्फ्यू नहीं भी लगा होता तो हम इस महामारी के समय कहां जाते? हम तो दशकों से इसी जमीन पर रह रहे थे." शोणितपुर जिले में इस अभियान के तहत 25 परिवारों को हटाया गया है. इस जिले में इससे पहले बीते साल दिसंबर में भी ऐसे ही एक अभियान के तहत करीब साढ़े चार सौ घरों को ढहा कर तीन हजार लोगों को सरकारी जमीन से हटा दिया गया था.
बीजेपी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में इस बार सत्ता में आने पर तमाम सरकारी जमीन से अवैध कब्जा हटाने की बात कही थी. मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा को अल्पसंख्यकों का कट्टर दुश्मन माना जाता है. उन्होंने चुनाव अभियान के दौरान सार्वजनिक रूप से कहा था कि बीजेपी को यहां सीमा पार से आने वाले मुसलमानों के वोटों की जरूरत नहीं है.
अभियान की आलोचना
कोरोना महामारी के बढ़ते प्रकोप के दौरान सरकार के इस अभियान की खासकर अल्पसंख्यक संगठन काफी आलोचना कर रहे हैं. इसे बीजेपी सरकार का मुस्लिम-विरोधी अभियान कहा जा रहा है. बदरुद्दीन अजमल की पार्टी आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के महासचिव अमीनुल इस्लाम कहते हैं, "यह वैसे लोग हैं जिनकी जमीन नदियों ने लील ली थी. उनको सरकार की ओर से कोई मुआवजा भी नहीं मिला है. आखिर यह लोग कहां जाएंगे? इनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि यह लोग कहीं और जमीन या मकान खरीद सकें." उनका कहना है कि सिर्फ बांग्ला बोलने के कारण ही उनको बांग्लादेशी मुसलमान मान लिया गया है. अमीनुल की दलील है कि अगर यह लोग विदेशी हैं तो सरकार को इनको उनके देश वापस भेजना चाहिए. और अगर यह लोग भारतीय हैं तो सरकार को इनके पुनर्वास की वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए.
अखिल असम अल्पसंख्यक छात्र संघ (आम्सू) ने भी सरकार के अतिक्रमण हटाओ अभियान की आलोचना की है. संगठन ने एक बयान में कहा है, "हाईकोर्ट ने साफ निर्देश दिया था कि महामारी के दौरान अतिक्रमण अभियान नहीं चलाया जा सकता. ऐसे में सरकार का यह फैसला अदालती निर्देश का उल्लंघन है. सरकार अपने सांप्रदायिक एजेंडे के तहत अल्पसंख्यकों को परेशान करने पर तुली है." संगठन के सलाहकार आइनुद्दीन अहमद कहते हैं, "मुसलमानों को निशाना बना कर चलाया जा रहा यह अभियान बीजेपी की ध्रुवीकरण की राजनीति का हिस्सा है."
कांग्रेस ने तो इस मामले पर फिलहाल कोई टिप्पणी नहीं की है. लेकिन बरपेटा से पार्टी के लोकसभा सदस्य अब्दुल खालेक ने असम को अतिक्रमण-मुक्त बनाने की बीजेपी सरकार के अभियान का आलोचना की है. उन्होंने इसे मानवाधिकारों का उल्लंघन बताते हुए कहा है कि अदालत को इस मामले में दखल देना चाहिए. खालेक के मुताबिक, यह कार्रवाई भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है और मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यूडीएचआर) के अनुच्छेद 25.1 का भी उल्लंघन करती है. उनका कहना है कि राज्य में लगभग 77 हजार बीघे जमीन पर बसे हजारों लोगों को हटाने की बीजेपी सरकार की नीति दरअसल मुस्लिम विरोधी है. खालेक कहते हैं, "कोरोना महामारी के दौरान शोणितपुर और होजाई में सरकार की ऐसी कार्रवाई चिंता का विषय है. सरकारी जमीन पर कब्जा करने वालों को जरूर हटाया जाना चाहिए. लेकिन महामारी के मौजूदा दौर में ऐसा करना उचित नहीं है."
सरकार ने बचाव किया
हालांकि मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा इस अभियान का बचाव करते हुए कहते हैं, "हम लोगों को अपनी मंदिरों और जंगल की जमीन पर अवैध कब्जा बरकरार रखने की अनुमति नहीं दे सकते. मुझे उनकी समस्याओं की भी जानकारी है. आबादी ज्यादा होने की वजह से रहने की जगह का संकट है. अगर यह सब जारी रहा तो एक दिन वह लोग (मुसलमान) कामाख्या मंदिर की जमीन पर भी कब्जा करने पहुंच जाएंगे." उनका कहना है कि आम्सू और एआईयूडीएफ समेत ऐसे लोगों के पुनर्वास की मांग करने वाले तमाम संगठनों को मिल कर इस तबके की आबादी पर अंकुश लगाने की दिशा में पहल करनी चाहिए.
यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि मुख्यमंत्री ने मुसलमानों की बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए इसी सप्ताह इस तबके से जनसंख्या नियंत्रण की एक ठोस नीति अपनाने की अपील की थी. मानवाधिकार कार्यकर्ता और गौहाटी हाईकोर्ट में एडवोकेट अमन वदूद कहते हैं, "अतिक्रमण हटाओ अभियान राजनीतिक भावना से प्रेरित है और इसके निशाने पर मुसलमान आबादी ही है. इस साल जनवरी में सरकार ने 1.6 लाख स्वदेशी भूमिहीन लोगों को जमीन के पट्टे बांटे थे. लेकिन चुनाव जीत कर सत्ता में लौटने के बाद यही सरकार मुसलमानों को बेघर करने पर तुल गई है. यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है."
राजनीतिक पर्यवेक्षक चंद्र कुमार भट्टाचार्य कहते हैं, "सरकार के इस फैसले पर सवाल उठना स्वाभाविक है. सरकारी जमीन से अतिक्रमण हटाना जरूरी है. लेकिन साथ ही वहां रहने वाले हजारों लोगों को सड़कों पर रहने के लिए भी नहीं छोड़ा जा सकता. उनके पुनर्वास की कोई ठोस नीति बनाने के बाद ही इस अभियान को आगे बढ़ाया जाना चाहिए."