बच्चों के लिए मास्टरजी पर भरोसा कहां गुम हो गया
११ अगस्त २०२३उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के एक प्राइवेट स्कूल में 31 जुलाई को 11वीं कक्षा की एक छात्रा की स्कूल परिसर में ही छत से गिरकर मौत हो गई. परिजनों ने आरोप लगाया कि स्कूल के एक टीचर और स्कूल प्रशासन ने छात्रा को प्रताड़ित किया जिससे तंग आकर उसने आत्महत्या कर ली. परिजनों की शिकायत पर पुलिस ने स्कूल के प्रिंसिपल और टीचर को गिरफ्तार कर लिया. पुलिस की इस कार्रवाई ने राज्य भर के स्कूल मालिकों और संचालकों को नाराज कर दिया. मंगलवार को राज्य भर के गैरसहायता प्राप्त स्कूल बंद रखे गए.
अनएडेड प्राइवेट स्कूल एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल अग्रवाल ने मीडिया को बताया कि आजमगढ़ के मामले में पुलिस ने बेहद संगीन धाराएं लगाई हैं. उनके मुताबिक, "कोई शिक्षक, प्रिंसिपल या फिर प्रबंधक यह कतई नहीं चाहेगा कि उसके स्कूल के बच्चे के साथ कुछ भी गलत हो लेकिन यदि कोई घटना होती है तो फिर उसकी पूरी जिम्मेदारी शिक्षक और प्रिंसिपल पर डालना सही नहीं है." दूसरी तरफ स्कूल बंद रखने के फैसले को छात्रों के अभिभावकों ने गलत बताते हुए एक दिन की फीस वापसी की मांग की है. अभिभावक संघ ने भी प्राइवेट स्कूलों की कथित मनमानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है.
छात्रों की मौत
स्कूलों में इस तरह की घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं और लगभग सभी घटनाओं में पीड़ित छात्र-छात्राओं के परिजन स्कूल प्रशासन और अध्यापकों पर ऐसे ही आरोप लगाते हैं और स्कूल प्रशासन भी लगभग ऐसी ही दलीलें देता है. इसी साल मई में अयोध्या के एक स्कूल में छात्रा की मौत छत से गिरने के बाद हुई थी. इसके बाद स्कूल प्रबंधक, प्रिसिंपल और स्पोर्टस टीचर पर रेप का आरोप लगा था.
इन अभियुक्तों के खिलाफ पॉक्सो, हत्या और रेप का मुकदमा भी दर्ज हुआ था. इसके अलावा कानपुर, मैनपुरी, मुजफ्फरनगर में भी छात्राओं से रेप की घटनाएं हुईं. ना सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि देश के कई दूसरे शहरों में भी बच्चों के साथ इस तरह की घटनाएं हुई हैं.
लखनऊ के रहने वाले हरेंद्र कुमार के दो बच्चे शहर के एक नामी स्कूल में पढ़ते हैं. हरेंद्र कुमार कहते हैं, "पैरेंट्स अपनी सामर्थ्य के मुताबिक बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाने की कोशिश करते हैं. इसके लिए पेट काटकर मोटी फीस भी भरते हैं. जब ऐसी घटनाएं होती हैं तो लगता है कि इतनी मोटी फीस वसूलने वाले स्कूलों में किस तरह की व्यवस्था और निगरानी तंत्र है और उनकी कोई जिम्मेदारी है भी या नहीं?”
स्कूलों में पहले जैसी सख्ती नहीं
हालांकि कुमार इस बात को भी स्वीकारते हैं कि तमाम स्कूलों में अध्यापक और स्कूल प्रशासन छात्रों पर ज्यादा सख्ती नहीं करते क्योंकि कई बार अभिभावक छोटी-मोटी गलतियों को भी कानूनी मामला बना देते हैं. स्कूल प्रशासन, खासकर अध्यापकों की भी यही पीड़ा है कि उन्हें तो ऐसे मामलों में दोहरे आरोपों का सामना करना पड़ रहा है. अध्यापकों का कहना है कि अनुशासन में रहने के लिए छात्रों पर थोड़ी-बहुत सख्ती करनी पड़ती है लेकिन यही सख्ती कुछ अभिभावकों को खराब लग जाती है.
नोएडा के एक पब्लिक स्कूल की टीचर चंद्र प्रभा कहती हैं कि मौजूदा समय में टीचरों पर काफी दबाव होता है और कई स्तरों पर होता है. वो कहती हैं, "क्लास में हमें बहुत कुछ सोच-समझकर पढाना होता है. बच्चे आजकल बहुत संवेदनशील हैं. हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम हर बच्चे को अलग-अलग नजरिए से देखें. यानी कमजोर बच्चे को डांटना नहीं है बल्कि उसे प्रेरित करना है. तो ये अच्छी बात है लेकिन कई बार बच्चा ऐसा दिखाने लगता है कि वो ये कर ही नहीं सकता है. हमें पहले से ही मना कर दिया जाता है कि बच्चे को ज्यादा तेज डांटेंगे नहीं, मारने का तो सवाल ही नहीं उठता.”
बच्चों को कैसी सजा मिलती है
चंद्रप्रभा कहती हैं कि इन सबके बावजूद, अनुशासनहीनता करने पर बच्चों को सस्पेंड भी किया जाता है, सजा दी जाती है. हां, कठोर दंड नहीं दिया जाता. उनके मुताबिक, "अध्यापकों और स्कूल के प्रति बच्चों का डर खत्म कर दिया गया है, और इस वजह से लिहाज भी खत्म हो गया है. आज की स्थिति यह है कि बच्चे टीचरों को अपना दोस्त समझने लगते हैं, उनकी भाषा भी कई बार वैसी हो जाती है. और टीचर कई बार चाहकर भी कुछ कर नहीं पाते.”
लेकिन ऐसा क्यों है? क्या इसके पीछे कानूनों के प्रति लोगों में आई जागरूकता है या फिर समाज में हो रहे बदलाव और अभिभावकों का बच्चों को लेकर जरूरत से ज्यादा संवेदनशील होना?
गुरुग्राम स्थित मेड ईजी स्कूल की प्रिंसिपल मंजुला पोथेपल्ली इसके पीछे बढ़ते शहरीकरण को भी कुछ हद तक जिम्मेदार ठहराती हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहती हैं, "शहरीकरण, कॉर्पोरेट कल्चर, मानवाधिकार जैसी बहुत सी चीजें हैं जिनकी वजह से स्कूलों में छात्रों और शिक्षकों के बीच संबंधों में ऐसी दूरियां आई हैं. आज से दो-ढाई दशक पहले यह स्थिति बिल्कुल अलग थी. जो पीढ़ी आज पैरेंट बनकर आई है, ये उसी समय की है लेकिन वो खुद ओवरप्रोटेक्टिव हो गए हैं, बहुत सेंसिटिव हो गए हैं और देखा जाए तो इस तरह से बच्चे का ही नुकसान कर रहे हैं.”
अधिकारों को लेकर जागरूकता
मंजुला पोथेपल्ली का कहना है कि आज के समय में शायद ही कोई टीचर होगा जो बच्चों को मारते-पीटते हों, "हम लोग जिस तरह से बच्चों को हैंडल कर रहे हैं यानी क्या गलत है क्या सही है, इसके बारे में बच्चों को समझाकर, उनकी काउंसिलिंग करके, ये तरीका ज्यादा ठीक है, बजाय उन्हें मारने-पीटने के. पर कुछ अभिभावक ऐसे हैं जिन्हें यह सब भी पसंद नहीं है. हालांकि ऐसे लोग कम होते हैं. आमतौर पर मां बाप शिक्षकों पर भरोसा करते हैं और शिक्षक भी उस भरोसे पर खुद को प्रूव करने की कोशिश करते हैं.”
सुप्रीम कोर्ट में वकील दुष्यंत पराशर कहते हैं कि इसके पीछे बदली संस्कृति के बढ़ते प्रभाव को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. वो कहते हैं, "समाज में जागरूकता की वजह से हम कुछ ज्यादा ही राइटिस्ट यानी अधिकारवादी बन गए हैं. बच्चे तो इतने जागरूक हो रहे हैं कि मां-बाप तक के खिलाफ कानूनी कदम उठाने लगे हैं. दरअसल, बच्चे अब एजूकेशन नहीं देख रहे हैं बल्कि वो स्टेटस देख रहे हैं. इसका सीधा असर आर्थिक क्षमता और पश्चिमी संस्कृति से है. बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि अभिभावक बच्चों की परवरिश कैसे कर रहे हैं. इसका कानून से ज्यादा वास्ता नहीं है बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा से यह ज्यादा जुड़ गया है.”
टीचर कैसे संभालें बच्चों को
दुष्यंत पराशर कहते हैं कि इन परिस्थितियों में टीचरों के सामने वास्तव में कई तरह की दुविधाएं होती हैं कि वो बच्चों के साथ कैसे पेश आएं. वो कहते हैं, "समाज का जो एक अलिखित कोड आ गया है, कि मैं लिखित में शिकायत करूंगा कि बच्चा डिप्रेशन में आ जाएगा, इस तरह के दबाव टीचरों को कई बार अपना दायित्व ठीक से निभाने में बाधा बनते हैं. पहले ऐसा नहीं होता था लेकिन आज तो बात-बात में एफआईआर हो जा रही है, खासकर, मेट्रोपोलिटन शहरों में.”
बड़े शहरों और खासकर बड़े पब्लिक स्कूलों में तो ये बातें आमतौर पर होती हैं क्योंकि वहां पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावक मध्य या उच्च वर्ग के होते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि छोटे शहरों, गांवों और सरकारी स्कूलों में यह स्थिति ना हो. यह अलग बात है कि तमाम सुविधाओं और प्रचार-प्रसार के बावजूद सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या में गिरावट आ रही है.
टीजरों पर भरोसे में कमी
यूपी के एक सरकारी स्कूल में करीब तीन दशक तक पढ़ा चुके सीताराम दूबे कहते हैं कि पहले सरकारी स्कूलों में लोग अपने बच्चों को भेजते थे और अध्यापकों पर खुद से ज्यादा भरोसा करते थे. वो कहते हैं, "बच्चों को मारना-पीटना सामान्य बात थी. अभिभावक हमसे ज्यादा इस बात को महसूस करते थे कि कोई भी अध्यापक बिना वजह बच्चों को नहीं मारेगा. आमतौर पर अध्यापक बिना वजह मारते भी नहीं थे. आज तो जरा सी डांट पर बच्चे मां-बाप से शिकायत कर देते हैं और फिर मां-बाप टीचर और स्कूल पर हावी हो जाते हैं लेकिन तब तो बच्चे के शिकायत करने पर मां-बाप यहां तक कह देते थे कि आपने इतना ही क्यों मारा और मारिए?”
दूबे इसके लिए स्कूलों के बढ़ते व्यवसायीकरण को भी जिम्मेदार ठहराते हैं. वो कहते हैं कि स्कूल वाले जब इतनी ज्यादा फीस लेंगे तो अभिभावकों की अपेक्षाएं भी बढ़ेंगी और वो ये भी चाहेंगे कि बच्चों को कोई कष्ट भी ना हो. वो कहते हैं कि आज छोटे-छोटे बच्चे भी ये जानते हैं कि उनके मां-बाप इतनी ज्यादा फीस दे रहे हैं तो यह टीचरों का दायित्व है कि उनके साथ अच्छा बर्ताव करें. टीचरों के प्रति सम्मान में भी इसी वजह से काफी कमी आई है.
सबकुछ मुफ्त लेकिन छात्र नदारद
उत्तर प्रदेश में प्राइमरी और हायर सेकंडरी स्कूलों की कुल संख्या करीब 1.59 लाख है जो शहरी क्षेत्र से लेकर गांव के दूर अंचल तक स्थित हैं. इन स्कूलों में पढ़ाई से लेकर किताब, कॉपी, ड्रेस, जूता-मोजा और दोपहर का भोजन तक मुफ्त में मिलता है, फिर भी इन स्कूलों में छात्रों की संख्या बहुत कम रहती है. दूबे कहते हैं कि प्राइवेट स्कूलों के प्रति लोगों के बढ़ते मोह का फायदा प्राइवेट स्कूल वाले भी उठाते हैं.
दूबे अपने संस्मरण सुनाते हैं, "हम लोगों के स्कूलों से निकले बच्चे न जाने कितने बड़े पदों पर पहुंचे. हमसे जमकर पिटे होने के बावजूद आज भी उनके मन में इतना सम्मान रहता है जिसकी आज के बच्चों से उम्मीद भी नहीं की जा सकती. तो इसकी वजह यही है कि अपने मां-बाप की तरह उन्हें भी यह पता था कि मास्टर साहब ने पीटा है तो उनके भले के लिए ही.”
मारपीट समाधान नहीं है
विशेषज्ञों का कहना है कि बच्चों को मारना-पीटना उन्हें अनुशासित करने का कोई अच्छा तरीका नहीं है. इसका असर उनके मानसिक विकास पर पड़ता है और कई बार बच्चे इसकी वजह से डिप्रेशन में आ जाते हैं.
दिल्ली में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर नीतू राणा कहती हैं, "किसी भी रूप में सजा देने जैसे मारने, डांटने या सार्वजनिक अपमान करने का किसी पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, खासकर छोटे और बढ़ते बच्चों और किशोरों पर. यह उनके भीतर शर्म, अपराधबोध, क्रोध, भय और ऐसी ही कई अन्य तरह की भावनाओं को जगाता है.
रिसर्च कहते हैं कि व्यक्तिगत तौर पर दुर्व्यवहार और उपेक्षा के अनुभव वाले व्यक्ति को आगे चलकर मानसिक स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों मसलन- चिंता, डिप्रेशन, मानसिक और शारीरिक समस्याओं का खतरा रहता है.” राणा यह भी कहती हैं कि कठोर सजा छात्रों की सीखने की प्रक्रिया और उनके शैक्षणिक परिणामों को भी प्रभावित कर सकती है.