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तेजी से नीचे गिर रहा है ब्रिटेन और चीन के संबंधों का ग्राफ

स्वाति बक्शी
१६ फ़रवरी २०२१

चीन में ब्रिटिश प्रसारक बीबीसी वर्ल्ड न्यूज को प्रतिबंधित करने की खबर दोनों देशों के सर्द होते संबंधों की नई झलक रही. चीन के इस फैसले के कुछ दिन पहले ही ब्रिटेन ने चीन के चैनल सीजीटीएन का लाइसेंस रद्द कर दिया था.

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UK I Hauptsitz der BBC in London
तस्वीर: Anthony Devlin/Wire/empics/picture alliance

तकरीबन पांच साल पहले ब्रिटेन ने बड़ी गर्मजोशी से खुद को पश्चिमी दुनिया में चीन का सबसे मजबूत साथी बताया था. दोनों देशों के व्यापारिक संबंधों में जबरदस्त उछाल दर्ज की जा रही थी. 2019 में चीन ब्रिटेन का छठा सबसे बड़ा बाजार बन कर उभरा. वहीं चीन ने ब्रिटेन के दूरसंचार क्षेत्र, हीथ्रो एयरपोर्ट, राष्ट्रीय ग्रिड समेत परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं में भी निवेश किया. हालांकि रिश्तों में यूटर्न उस वक्त आया जब जुलाई 2020 में देश के सुरक्षा हितों का हवाला देते हुए ब्रिटेन ने अपने 5जी नेटवर्क में चीनी टेलीकॉम कंपनी ह्वावे के उपकरणों का इस्तेमाल रोकने का फैसला किया.

यह इस सिलसिले की शुरुआत भर थी. हांगकांग में लागू किए गए चीनी सुरक्षा कानून पर ब्रिटेन का रुख, ब्रिटिश पासपोर्ट धारकों के लिए नए वीजा रूट से खफा चीन, उइगुर मुसलमानों पर ब्रिटेन के कड़े बयानों समेत कोविड महामारी पर चीन का रवैया, संबंधों के बिगड़ते हाल के लिए जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं. साल 2015 से 2017 के बीच का वक्त चीन और ब्रिटेन के संबंधों में सुनहरा दौर कहलाया और जानकार मानते हैं कि शायद वह दौर अब लौटकर ना आए.  

बिगड़ते संबंध या बदलते संबंध?

ब्रिटेन वह पहला जी7 देश था जो चीन की अगुआई में बने एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टेमेंट बैंक का सदस्य देश बना. ब्रिटेन ने यूरोपियन यूनियन की आर्थिक नीतियों और फैसलों में भी चीन के हितों का ध्यान रखे जाने का पूरा ख्याल रखा लेकिन धीरे धीरे रिश्तों की सूरत बदलने लगी. कोविड महामारी की शुरुआत में जानकारियां साझा करने में चीन का गैर-सहयोगात्मक और आक्रामक रवैया इस बदलती तस्वीर में एक बड़ा पहलू बना.

ब्रिटेन के राजनीतिक हलके में चीन के प्रति नकारात्मक राय को हवा मिली. हांगकांग के तीस लाख ब्रिटिश पासपोर्ट धारकों के लिए नया वीजा रूट शुरू करके ब्रिटेन ने चीन को नाराज किया. उइगुर मुसलमानों के मानवाधिकार मामले पर ब्रिटेन पश्चिम में चीन का सबसे मुखर आलोचक बना. यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलने की दूभर प्रक्रिया और अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के प्रभावों के बीच ब्रिटेन के लिए चीन से संबंधों में बढ़ती खटास का यह दौर निश्चित तौर पर दुर्भाग्यपूर्ण है.

सवाल यह है कि क्या यहां से संबंधों के सुनहरे दौर को खत्म मान लिया जाए या फिर इसे बदलते संबंधों के तौर पर देखा जा सकता है. लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड ऐफ्रीकन स्टडीज के चीनी संस्थान में रिसर्च असोसिएट डॉ. केविन लेथम कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि आगे आने वाले दिनों में स्थिति सुधरने वाली है. यह तनाव बहुत सारी चीजों का नतीजा है जिसमें हांगकांग के लिए वीजा ने आग में घी का काम किया. टीवी प्रसारकों को काम करने से रोकना तनाव की ही अभिव्यक्ति है. चीन और ब्रिटेन के संबंधों में इस तरह की प्रतिक्रियात्मक कार्रवाइयां हमने हाल के वर्षों में नहीं देखी. इससे पहले कि हालात कोई ठोस मोड़ लें, मेरे ख्याल से फिलहाल यह कशमकश चलती रहेगी”.

अमेरिकी दबाव और घरेलू वजहें

ब्रिटेन चीन संबंधों में अमरीकी दबाव अहम पहलू है. ह्वावे को 5जी नेटवर्क से हटाने के मामले में भी ब्रिटेन की कंजर्वेटिव सरकार एकदम से तैयार नहीं थी. जनवरी 2020 में ब्रिटिश सरकार की तरफ से कहा गया कि ह्वावे 5जी में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों में सीमित भागीदारी करती रहेगी. अमेरिका ह्वावे के खिलाफ लगातार अपने सहयोगी देशों पर यह कह कर दबाव डालता रहा कि ह्वावे के चीन की कम्यूनिस्ट सरकार से संबंध है और चीन उसका इस्तेमाल अमेरिका में जासूसी के लिए कर सकता है.

अमेरिका की तरफ से इस तरह के बयान आते रहे कि अगर ब्रिटेन ह्वावे को नहीं रोकता है तो दोनों देशों के बीच खुफिया सूचनाओं के आदान-प्रदान, सैन्य सहयोग और आगे की व्यापार वार्ताओं पर भी असर पड़ सकता है. मई 2020 में अमरीकी वाणिज्य विभाग ने अमरीकी सेमीकंडक्टर तकनीक तक ह्वावे की पहुंच पर लगाम लगाने के लिए नए निर्यात नियम जारी किए. ब्रिटेन ने मजबूर होकर अपने 5जी नेटवर्क में ह्वावे की भूमिका की दोबारा जांच की और उस पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया.

डॉनल्ड ट्रंप के जाने के बाद भी चीन की तरफ अमरीकी नीति में किसी ढिलाई की उम्मीद नहीं है. हालांकि ब्रिटेन में चीन के खिलाफ बह रही हवा के लिए सिर्फ अमरीकी दबाव जिम्मेदार नहीं है. कोविड महामारी में चीन की भूमिका पर उठे सवाल और जानकारियां साझा करने में पारदर्शिता ना बरतने का मामला बॉरिस जॉनसन की अपनी पार्टी के भीतर और आम तौर पर जनता में चीन विरोधी आवाजों को मजबूत करने में महत्वूर्ण माना जा रहा है. ऐसी ही एक आवाज बनकर उभरा है कंजर्वेटिव पार्टी के नेताओं का गुट 'चाइना रिसर्च ग्रुप' जो लगातार बॉरिस जॉनसन सरकार पर चीन की तरफ कड़ी नीति की दबाव डालता रहा है.

पार्टी के भीतर उठा-पटक को काबू में रखने की मजबूरी के चलते चीन की तरफ कड़ा रुख अपनाने की मांग को दरकिनार करना मुमकिन नहीं लगता. लेबर पार्टी में भी अब लगातार चीन विरोधी नजरिए का पुरजोर समर्थन दिख रहा है. राजनीतिक गलियारे में ही नहीं बल्कि आम जनता में भी चीन की वैश्विक भूमिका को लेकर संदेह गहराता नजर आता है. मार्केट और डाटा रिसर्च करने वाली एक कंपनी यूगव के नवंबर 2020 के आंकड़ों के मुताबिक ब्रिटेन में 94 फीसदी लोगों का मानना है कि कोरोना वायरस चीन से फैला. आम जनता के बीच चीन की साख गिरी है और लोग उसे एक जिम्मेदार वैश्विक ताकत मानने में यकीन नहीं रखते.

कारगर और सुसंगत नीति की कमी

ब्रिटेन और चीन के रिश्तों की बिगड़ती सूरत को अगर सिलसिलेवार ढंग से देखा जाए तो लगता है जैसे ब्रिटेन के पास चीन के लिए कोई सुसंगत कूटनीतिक कार्यक्रम नहीं है. अलग अलग मसलों पर की गई कार्रवाई और बयानों के अलावा ऐसा कोई कदम दिखाई नहीं देता जिससे कहा जा सके कि दोनों देशों के संबंधों को पटरी पर रखने की दिशा में ब्रिटेन ने परिपक्व भूमिका निभाई. व्यापारिक संबंधों को बढ़ावा देने के अलावा स्पष्ट चीन नीति या कार्यक्रम के अभाव में ही शायद ब्रिटेन ने चीन से संबंधित हर मामले में एक तुरत-फुरत की नीति अपनाते हुए मामले को निपटा दिया.

इन सारे मामलों को मुड़कर देखें तो चीन के साथ ब्रिटेन के संबंधो के आधार और लक्ष्य के बारे में कोई ठोस समझ बनाना मुश्किल है. डॉ लेथम मानते हैं, "5जी से लेकर शिनजैंग मसले तक ब्रिटेन ने ढीले ढाले तरीके से प्रतिक्रियात्मक कदम ही उठाए हैं. चाइना रिसर्च ग्रुप की बढ़ती ताकत भी शायद इस मामले में सरकारी रुख को अब बहुत हद तक प्रभावित कर रही है. अगर यह स्थिति बदलती नहीं है तो मेरा अनुमान है कि आगे हम ब्रिटेन की चीन नीति में इस गुट के चीन विरोधी नजरिए का गहरा असर देखेंगे. यह टेलीकॉम की दुनिया से शुरू हुआ है और देखना होगा कि अगला मसला क्या होगा”.

चीन के साथ कड़ाई से पेश आना कुछ मामलों में जरूरी हो सकता है लेकिन उसके विरोध में खड़े रहना ब्रिटेन की दीर्घकालिक नीति नहीं हो सकती. बॉरिस जॉनसन ने अपने एक हालिया इंटरव्यू में कहा भी था कि वे चीन को साथ लेकर चलने के इच्छुक हैं. हालांकि ब्रेक्जिट के बाद अपनी वैश्विक और घरेलू भूमिका तलाश रहे ब्रिटेन के लिए चीन के साथ रिश्तों को बिखरने से बचाने की चुनौती भी फिलहाल बनी रहेगी.

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