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क्या भारत में टिक पाएंगे नामीबिया के चीते

ओंकार सिंह जनौटी
१९ सितम्बर २०२२

भारत में 70 साल बाद चीता की वापसी हुई है. कुछ विशेषज्ञ सवाल उठा रहे हैं कि अफ्रीकी चीते भारत में कितना टिक पाएंगे? कूनो के इकोसिस्टम को कैसे बचा सकते हैं चीते?

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Indien | Wiederansiedlung von Geparden
तस्वीर: Press Information Bureau/Pib Pho/Planet Pix/ZUMA/picture alliance

नामीबिया से मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क पहुंचे आठ चीते फिलहाल एक ग्रिल फेंसिंग के भीतर हैं. पांच मादा और तीन नर चीते अगले कुछ हफ्ते नए देश की आबोहवा और प्रकृति को समझने में बिताएंगे. करीब एक महीने के क्वारंटाइन के दौरान यह भी देखा जाएगा कि उनमें कोई ऐसा परजीवी तो नहीं है जो भारतीय वन्यजीवों पर असर डाल सकता है. इसके बाद धीरे धीरे उन्हें बड़े संरक्षित इलाके में छोड़ा जाएगा. दुनिया में किसी बड़े मांसाहारी जीव को दूसरे महाद्वीप में बसाने की यह पहली कोशिश है. प्रयोग सफल रहा तो आने वाले वर्षों में दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी इस तरह की कोशिशें दिखाई पड़ेंगी.

कूनो नेशनल पार्क में चीता
कूनो नेशनल पार्क में चीतातस्वीर: Press Information Bureau/Pib Pho/Planet Pix/ZUMA/picture alliance

भारत से कैसे लुप्त हुए चीते

19वीं शताब्दी से पहले तक भारत समेत एशिया में चीते अच्छी खासी संख्या में थे. चीतों की उस प्रजाति को एशियाई चीता कहा जाता था. आज यह सिर्फ ईरान में बचे हैं. ज्यादातर देशों में शिकार के लिए चीतों को कैद करने और उनका शिकार करने के कारण एशिया के ज्यादातर देशों से चीते लुप्त हो गए.

भारत में 1947 में कोरिया (सरगुजा) के राजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने आखिरी तीन का शिकार किया. इसके पांच साल बाद 1952 में भारत में एशियाई चीतों को आधिकारिक रूप से लुप्त घोषित कर दिया. अब 70 साल बाद चीते भारत लाये गये हैं, लेकिन ये अफ्रीकी चीते हैं. बीते पांच दशकों में भारत के कुछ वन्य अधिकारियों ने ईरान से एशियाई चीते लाने की बहुत कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी. इसके बाद ही दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से चीते लाने की पहल की गयी.

ईरान में एशियाई चीते का शावक
ईरान में एशियाई चीते का शावकतस्वीर: Irna

कैसे हुए चीतों की भारत वापसी

2008-09 में मनमोहन सिंह सरकार में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश ने भारत में चीतों के इतिहास को लेकर कुछ किताबें पढ़ीं. फिर रमेश ने उन किताबों को लिखने वाले अधिकारियों से बात की. इसके बाद कई देशों में चीतों के संरक्षण से जुड़ी संस्था चीता कंजर्वेशन फंड से बातचीत की. इस बातचीत से पहले ही भारत के फॉरेस्ट अधिकारी चीतों के लिए 10 जगहों का सर्वे कर चुके थे. 2009 में नामीबिया, दक्षिण अफ्रीका, सोमालिया और ईरान में चीतों के संरक्षण से जुड़ी डॉक्टर लॉरी मार्कर को कूनो नेशनल पार्क देखने का न्योता दिया गया. डॉ. मार्कर चीता कंजर्वेशनल फंड की एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर हैं. जलवायु, आवास और भोजन की उपलब्धता के लिहाज से उन्हें कूनो चीतों के लिये उपयुक्त जगह लगी. इसके बाद अधिकारियों और सरकारों के स्तर पर बातचीत होती रही.

दुनिया के जंगलों में आज 7000 से कम चीता बचे हैं. इनमें से 99 फीसदी से ज्यादा अफ्रीका में हैं. कूनो नेशनल पार्क में चीतों को फिर से बसाने की पहल पर डॉ. मार्कर कहती हैं, "चीतों को लुप्त होने से बचाना है तो हमें धरती पर उनके लिए स्थायी इलाके बनाने होंगे."

भारत आने से पहले नामीबिया में क्वारंटाइन में चीता
भारत आने से पहले नामीबिया में क्वारंटाइन में चीतातस्वीर: Dirk Heinrich/AP/picture alliance

भारत में अफ्रीकी चीतों को क्या क्या दिखेगा

8000 किलोमीटर से ज्यादा लंबी यात्रा कर भारत पहुंचे अफ्रीकी चीतों के लिए कूनो नेशनल पार्क नई चुनौतियां पेश करेगा. कूनो में पहली बार चीतों का सामना कुछ बिल्कुल नई प्रजातियों से होगा. इनमें भालू और भेड़िया जैसे जीव शामिल हैं. कूनो में हिरणों और चीतलों की अच्छी खासी संख्या है. हो सकता है कि शुरुआत में चीतों को शिकार करने में ज्यादा परेशानी ना हो. कूनो के हिरण ये नहीं जानते हैं कि उनसे तेज दौड़ने वाला शिकारी जीव अब उनके बीच है. अफ्रीका के जंगलों में शिकार करते करते वक्त चीते करीब 10 फीसदी मौकों पर ही सफल होते हैं, यानि 10 बार कोशिश करने पर वे एक बार शिकार कर पाते हैं.

अफ्रीका में चीते शेरों, तेंदुओं और लकड़बग्घों के बड़े झुंड के सामने कमजोर पड़ जाते हैं, वहीं कूनो में शेर और बाघ जैसे बड़े प्राकृतिक दुश्मन उनके सामने मौजूद नहीं हैं. कूनो में अफ्रीका के मुकाबले लकड़बग्घों के झुंड भी कम हैं. तेंदुए और जंगली कुत्ते निपटना चीते जानते हैं लेकिन भेड़िये और भालू उनके सामने बिल्कुल नई चुनौती पेश करेंगे.

भारत लाए गए तेंदुओं में पांच मादाएं और तीन नर
भारत लाए गए तेंदुओं में पांच मादाएं और तीन नरतस्वीर: Denis Farrell/AP/picture alliance

प्रोजेक्ट चीता पर तकरार

चीतों को बचाने में बड़ा योगदान देने वाली डॉक्टर लॉरी मार्कर को लगता है कि कूनो में चीते अपनी जगह बना लेंगे. भारत के वन अधिकारियों को भी यही आशा है. लेकिन कुछ वन्यजीव विशेषज्ञों को लगता है कि अफ्रीकी चीतों को भारत लाना, एक फैंसी आइडिया के पीछे करोड़ों रुपये की बर्बादी है. मशहूर वाइल्डलाइफ एक्सपर्ट वाल्मीक थापर प्रोजेक्ट चीता को कुछ रिटायर्ड फॉरेस्ट अधिकारियों की परीकथा करार देते हैं. थापर के मुताबिक, "अगर आप तंजानिया या चीतों की आबादी वाले अफ्रीकी देशों को देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि वहां आहार किस मात्रा में मौजूद है. वहां प्राकृतिक परिवेश कैसा है. भारत में तो इतने बड़े स्तर पर गजेल कहे जाने वाले हिरण हैं ही नहीं."

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के मयूख चटर्जी भी कुछ शंकाएं जता रहे हैं. मुखर्जी कहते हैं, इसके "व्यापक और अनचाहे परिणाम" हो सकते हैं. मुखर्जी के मुताबिक जब किसी नए जीव को लाया जाता है तो परिस्थितिकी तंत्र में बदलाव होते हैं. बाघों का उदाहरण देते हुए मुखर्जी कहते हैं कि बाघों की संख्या बढ़ने के साथ साथ भारत में टाइगर और इंसान के बीच टकराव भी बढ़ा है क्योंकि जगह दोनों को चाहिए. मुखर्जी के मुताबिक अब यह देखना है कि चीतों को बसाने की प्रक्रिया को किस तरह अमल में लाया जाता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रिलीज हुए कूनो में चीते
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रिलीज हुए कूनो में चीतेतस्वीर: Press Information Bureau/Pib Pho/Planet Pix/ZUMA/picture alliance

ऐसा नहीं है कि भारत के वन अधिकारियों ने इन बिंदुओं पर ध्यान नहीं दिया. प्रोजेक्ट चीता पर कई साल से काम कर रहे भारत के प्रतिष्ठित वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के विशेषज्ञों के मुताबिक चीते कूनो नेशनल पार्क के इकोसिस्टम को दुरुस्त करने में बड़ी भूमिका निभाएंगे. चीतों के कारण वहां पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, जिसका फायदा आखिरकार स्थानीय इकोसिस्टम को होगा.

फिलहाल दुनिया में दक्षिण अफ्रीका मात्र एक ऐसा देश है, जहां के जंगलों में चीतों की संख्या बढ़ रही है. दक्षिण अफ्रीका में चीता संरक्षण से जुड़े वन्य जीव चिकित्सक डॉ. आड्रियान टोरडिफे के मुताबिक अफ्रीकी महाद्वीप के कई देशों में चीता संरक्षण की कोशिशें सफल नहीं हुई हैं, लेकिन भारत में संरक्षण से जुड़े कड़े कानून उम्मीद जगाते हैं. डॉ टोरिडिफे कहते हैं, "हम बैठे बैठे ये आशा नहीं कर सकते कि हमारी मदद के बिना चीता जैसी एक प्रजाति खुद को बचा लेगी."

बीते 100 साल में चीतों ने अपना 90 फीसदी इलाका खोया है और इसका असर सिर्फ उनकी आबादी पर ही नहीं बल्कि पूरे इकोसिस्टम पर पड़ा है. बड़े शिकारी जीव जिस इलाके में रहते हैं, वहां कई वनस्पतियों को फिर से पनपने का मौका मिलता है. अगर ये शिकारी खत्म होते हैं तो हिरण समेत तमाम जीव कई वनस्पतियों को पनपने का मौका ही नहीं देते हैं. भारत के जंगलों में बाघ, तेंदुए, शेर, भेड़िये, जंगली कुत्ते और अजगर यही भूमिका निभाते हैं. इस कड़ी में चीते के जुड़ने का मतलब होगा कि बड़े इलाके में ताजा वनस्पतियां चुगने वाले जीवों का पीछा अब जमीन पर सबसे तेज रफ्तार से दौड़ने वाली बड़ी बिल्ली भी कर सकेगी.