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समाज

"बिट्टी चाकरी" पर प्रतिबंध से सुधरेगी दलितों की हालत

२५ जनवरी २०२१

कर्नाटक ने पिछले साल बिट्टी चाकरी पर प्रतिबंध लगा दिया था. इससे दलितों की हालत सुधरने की उम्मीद है क्योंकि वे जमींदारों के घरों में मामूली पैसे पर काम करने को मजबूर थे. हालांकि कई दलित अब भी कर्ज के बोझ तले दबे हैं.

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तस्वीर: Pete Pattison

इंदुमती शिवराज की दिनचर्या एक दशक से अधिक समय से एक जैसी है. तड़के वह उठकर अपने "मालिक" के घर जाती हैं और मवेशियों को बाड़े से बाहर करती हैं. वह अहाते और उपकरणों को साफ करती हैं. चार घंटे बाद वह घर की ओर लौट जाती हैं. हर दिन 45 वर्षीय शिवराज को एक कप चाय मिलती है. उन्हें साल में तीन हजार रुपये और कुछ बोरी अनाज बतौर मजदूरी मिलते हैं.

शिवराज उन हजारों दलितों में शामिल हैं जो कर्नाटक राज्य में ऊंची जाति के लोगों के घरों में बिना पैसे या ना के बराबर पैसे लिए "बिट्टी चाकरी" नामक एक प्रथा के तहत काम करते हैं, जिसे हाल ही में गैरकानूनी घोषित किया गया है. सरकार ने पिछले साल नवंबर में इस प्रथा पर लंबे अर्से की मांग के बाद प्रतिबंध लगा दिया था. गुलामी विरोधी समूह लंबे समय से "बिट्टी चाकरी" को बंधुआ मजदूरी करार देने की मांग कर रहे थे.

"बिट्टी चाकरी" के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाली जीविका संस्था के किरण कमल प्रसाद कहते हैं, "तथ्य यह है कि आज भी इस तरह की बंधुआ मजदूरी हमारे देश में मौजूद है." भारत में बंधुआ मजदूरी के खात्मे के लिए पहली बार कानून 1976 में बना था. कानून में बंधुआ मजदूरी को अपराध की श्रेणी में रखा गया था. साथ ही बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराए गए लोगों के आवास व पुर्नवास के लिए दिशा निर्देश भी इस कानून का हिस्सा हैं.

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बंधुआ मजदूरी कर कर्ज चुकाने की कोशिश करते हैं लोग. तस्वीर: Bharat Patel

लेकिन आज भी लाखों लोग बतौर बंधुआ मजदूर ईंट भट्टों, खेत, चावल मिलों में काम कर कर्ज चुकाने की कोशिश करते हैं. प्रसाद कहते हैं बिट्टी चाकरी में आमतौर पर चुकाने के लिए कर्ज नहीं होता है, बल्कि एक रिवाज को पूरा करने का दायित्व होता है. मुफ्त श्रम पीढ़ियों से चला आता रहता है, नतीजतन यह दशकों तक बंधुआ मजदूरी में बदल जाता है.

प्रसाद के मुताबिक, "गुलामी का यह रूप कर्ज से जुड़ा नहीं होता है जहां लोगों को काम करके अपना कर्ज चुकाना होता है. यहां पर तो कोई कर्ज ही नहीं होता है. यहां एक समझ है कि दलित व्यक्ति जमींदार के यहां काम करने को बाध्य है. वह भी व्यावहारिक रूप से मुफ्त में."

कर्नाटक में बंधुआ मजदूरी रोधी विभाग के निदेशक रेवनप्पा के कहते हैं, "यह सदियों पुरानी प्रथा थी जहां जमींदार निचली जाति के लोगों को काम करने के बदले में उन्हें अनाज दिया करते थे." थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन से उन्होंने कहा, "आज के समय में हम इसको एक बंधुआ मजदूरी के रूप में देख रहे हैं. सिर्फ अनाज नहीं, उचित वेतन मिलना चाहिए."

शिकायत करने से डरते हैं

जीविका ने कर्नाटक के 15 जिलों में तीन हजार से अधिक दलित परिवारों को "मुफ्त में काम" करता पाया. संस्था की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 10 हजार लोग बिना मजदूरी के शादी, अंतिम संस्कार और अन्य कार्य करने को मजबूर थे. इसके बदले में उन्हें मक्का, गेहूं या दालें दी गईं और कुछ मौकों पर बहुत कम पैसे दिए गए. सामाजिक कार्यकर्ता इंदुमती सागर बीदर जिले के गांवों का दौरा करती हैं और दलितों के घर जाकर पूछती हैं कि वे कहां काम करते हैं और कितना कमाते हैं.

सागर कहती हैं, "बिट्टी चाकरी में अब भी बहुत लोग फंसे हुए हैं. वे जमींदारों के खिलाफ शिकायत करने से डरते हैं." बीदर से फोन पर सागर ने बताया, "वे जानते हैं कि उनका शोषण हो रहा है, वे अपने अधिकार को समझते हैं लेकिन परंपरा तोड़कर बाहर आना उनके लिए बहुत मुश्किल है."

शिवराज अपने "मालिक" के यहां काम करने के अलावा कम वेतन पर दूसरी जगह पर भी काम करती हैं. उनका कहना है कि बिट्टी चाकरी पर प्रतिबंध लगने के बाद उन्हें इस प्रथा से बाहर आने का रास्ता मिलेगा और परिवार को ज्यादा पैसे कमा कर कर्ज चुकाने का मौका मिलेगा. शिवराज कहती हैं, "हमने इसे वास्तविकता के रूप में स्वीकार कर लिया था लेकिन उम्मीद है कि प्रतिबंध से भविष्य में शायद चीजें बदल जाएंगी. अगर हमें उचित मजदूरी मिलती है तो हम फिर से कर्ज लेने के लिए मजबूर नहीं होंगे."

एए/सीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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