भारत से दुनिया भर में ऐसे फैला शतरंज
११ नवम्बर २०१६वैसे तो पौराणिक चीन और मिस्र में भी शतरंज से मिलते जुलते कुछ खेल खेले जाते थे. उनमें भी शतरंज की तरह अलग अलग रंगों वाले घर होते थे. लेकिन चालें अलग थीं और मोहरे भी कम होते थे. 64 खानों और कुल 32 मोहरों वाला शतरंज तब सिर्फ भारत में खेला जाता था. विशेषज्ञों के मुताबिक छठी शताब्दी में शतरंज का खेल भारत से ईरान पहुंचा. तब खेल को चतुरंगा कहा जाता था. बाद में ईरान पर अरबों ने हमला किया. ईरान को कब्जे में लेने वाले अरब भी शतरंज के मुरीद बन गये. पहली बार शतरंज की बारीकी समझाने वाली किताब अरबी में लिखी गई. साथ ही बगदाद के खलीफ ने शतरंज प्रतियोगिताएं भी कराईं.
इसके बाद जैसे जैसे दुनिया पर अरब का प्रभाव बढ़ता गया और वैसे वैसे शतरंज का खेल भी नए नए इलाकों में पहुंचता गया. खेल उत्तरी अफ्रीका और भूमध्यसागर के इलाके तक पहुंचा. मौजूद दौर में दक्षिणी स्पेन के आन्दालुसिया में इस्लामिक संस्कृति का विश्वविद्यालय खुला. शतरंज उसके सिलेबस का हिस्सा बना.
10वीं शताब्दी के अंत में चेस ईसाई बहुल वाले पश्चिम में पहुंचा. इससे कुछ समय पहले खेल चीन और जापान तक भी पहुंच गया. कारोबार के जरिये 11वीं शताब्दी में खेल पश्चिम यूरोप से उत्तरी ध्रुवों के करीबी देशों (स्कैंडिनेविया) और रूस पहुंचा. इसके बाद खेल में कई बदलाव भी आए. यही वजह है कि आज भारतीय शतरंज और इंटरनेशनल चेस की कुछ चालें अलग अलग हैं, जैसे पैदल की पहली चाल, राजा व हाथी की कैसलिंग आदि. 12वीं शताब्दी की किताबों में इसका जिक्र मिलता है. 1315 में इटली के डोमिनिक जैकेस दे केसोलेस ने बाकायदा "द मोरेलाइज्ड गेम ऑफ चेस" नाम की किताब लिखी. मध्यकाल के अंत और पुर्नजागरण काल की शुरुआत के दौरान नया शतरंज सामने आया. वजीर सबसे ताकतवर मोहरा बन गया.
17वीं शताब्दी के बाद से शतरंज के खेल में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है. थोड़ा बहुत अंतर बस गोटियों की बनावट में किया गया ताकि वे सुंदर और स्पष्ट रूप से एक दूसरे से अलग दिख सकें. शतरंज का चस्का लगने के बाद 19वीं शताब्दी में पश्चिम में शतरंज की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाने लगीं. खेल की बढ़ती लोकप्रियता को देख 1929 में वेनिस में पहली बार खेल की इंटरनेशनल रेगुलेशन गवर्निंग बॉडी बनाई गई. इसी दौरान वर्ल्ड चेस फेडरेशन का भी जन्म हुआ.
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ओएसजे/आरपी (एएफपी)