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कानून और न्यायभारत

पुलिसिया मुठभेड़ का जश्न मनाने वाला समाज

१४ अप्रैल २०२३

पुलिसिया मुठभेड़ का जश्न मनाने वाला समाज शायद न्याय का शॉर्टकट ढूंढ रहा है. कानून का शासन ही हर नागरिक की ढाल है लेकिन बंदूक की गोली से वो स्थापित नहीं होता, बल्कि खतरे में पड़ जाता है.

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बंदूक और गोलियां
मुठभेड़ के जश्न का सचतस्वीर: JIRI HERA/Zoonar/picture alliance

कानून के शासन या रूल ऑफ लॉ को लेकर कई भ्रांतियां हैं. उनमें से एक यह भी है कि न्याय तुरंत होना चाहिए. न्याय में देरी न्याय से वंचित जरूर कर देती है लेकिन न्याय एक प्रक्रिया है जिसका पालन सभ्यता की नींव है.

अमेरिका के 34वें राष्ट्रपति ड्वाइट डी आइजनहावर ने कहा था, "हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में कानून के शासन के क्या मायने हैं इसे दिखाने का सबसे स्पष्ट तरीका है यह याद करना कि जब वो नहीं था तब क्या हुआ था." 

कानून के राज के पहले जंगल का राज था. जब इंसान जंगल से निकला और समाज में रहने लगा तब उसे अपने समाज में व्यवस्था कायम रखने के लिए कुछ नियमों की जरूरत महसूस हुई. इन्हीं नियमों ने आगे चल कर न्याय व्यवस्था का रूप लिया.

उत्तर प्रदेश पुलिस
यह उत्तर प्रदेश पुलिस की छह सालों में 183वीं मुठभेड़ हैतस्वीर: IANS

कानून का इतिहास सभ्यता के इतिहास से जुड़ा हुआ है. एक तरह से सभ्यता शुरू ही कानून से हुई. न्याय के लिए कानून का शासन जरूरी है. अब जरा इतिहास के पन्नों से निकल कर आज के उत्तर प्रदेश में आइए, जहां गैंगस्टर अतीक अहमद के 19 साल के बेटे असद अहमद के एक पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने का जश्न मनाया जा रहा है.

मुठभेड़ पर गर्व

बीजेपी ने मुठभेड़ की खबर के साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का विधान सभा में दिया भाषण ट्वीट किया है, जिसमें उन्होंने एलान किया था कि "माफिया को मिट्टी में मिला देंगे." ट्वीट में लिखा है, "जो कहते हैं, कर दिखाते हैं."

स्पष्ट है कि राज्य सरकार इस मुठभेड़ पर गर्व महसूस कर रही है और गर्व भरा यह एलान इस बात की स्वीकृति है कि यह मुठभेड़ इरादतन थी. मुठभेड़ पर आदित्यनाथ सरकार का गर्व उनकी राजनीति के दृष्टिकोण से समझ में आता है.

उत्तर प्रदेश पुलिस के आला अफसरों ने खुद बताया है कि यह मार्च 2017 से शुरू हुए आदित्यनाथ सरकार के कार्यकाल में पुलिस की 183वीं मुठभेड़ है. यह एक ही मामले में पुलिस कार्रवाई के दौरान की गई तीसरी मुठभेड़ है और उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा अप्रैल के 13 दिनों में की गई तीसरी मुठभेड़ भी है.

इंडियन एक्सप्रेस अखबार के मुताबिक इसके अलावा सरकारी आंकड़े दिखाते हैं कि इन्हीं छह सालों में प्रदेश में 5,046 अपराधी पुलिस की कार्रवाई में घायल होने के बाद गिरफ्तार किए गए. सिर्फ अपराध ही नहीं बल्कि अपराधियों का "सफाया" आदित्यनाथ का चुनावी वादा था और वो अपने कई भाषणों और साक्षात्कारों में इसे दोहरा चुके हैं.  

जाहिर है पुलिसिया मुठभेड़ आदित्यनाथ सरकार के लिए एक आवश्यक राजनीतिक हथकंडा है. लेकिन सरकार से बाहर जो लोग इन मुठभेड़ों का जश्न मना रहे हैं उनका क्या स्वार्थ है?

लोग मनाते हैं जश्न

असद और उसके साथी गुलाम के मारे जाने पर एक पत्रकार ने ट्वीट किया कि अपराधी को पालने पोसने से बेहतर है अपराधी का खत्म हो जाना.

एक और पत्रकार हैं जो कह रही हैं कि गुलाम को आसान मौत मिली. एक और पत्रकार ने तो गुलाम की लाश की तस्वीर ट्वीट कर डाली और साथ में लिखा कि जब मौत सामने होती है तो पेशाब छूट जाता है.

यह इरादतन मुठभेड़ का जश्न नहीं तो और क्या है? लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है और यह इरादतन मुठभेड़ कराने वाली पहली सरकार भी नहीं है. बीजेपी के ही मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सर्मा की असम सरकार भी इस तरह की मुठभेड़ के बढ़ते मामलों को लेकर कटघरे में है.

जम्मू-कश्मीर में तो मुठभेड़ों का लंबा इतिहास है. पंजाब में तो माना जाता है कि मिलिटेंसी का अंत ही मुठभेड़ों के जरिए किया गया. हैदराबाद में 2019 में एक महिला के बलात्कार और उसे जला कर मार देने के आरोपों का सामना कर रहे चार संदिग्ध तेलंगाना पुलिस की कार्रवाई में इसी तरह मारे गए थे.

उस समय भी कई लोगों ने इसी तरह सोशल मीडिया पर खुशी जाहिर की थी. राज्य चाहे कोई भी हो, अपराध चाहे किसी भी किस्म का हो, सरकार चाहे किसी की भी हो, लोगों को मुठभेड़ से एक तरह की संतुष्टि मिलती है.

सभ्यता या जंगल राज?

मुमकिन है कि इस संतुष्टि की जड़ में न्याय व्यवस्था की कमजोरियों की वजह से व्यवस्था से लोगों के विश्वास का उठ जाना हो. जब मुकदमे महीनों, सालों और दशकों तक चलते रहें और न्याय का इंतजार खत्म ही ना हो, ऐसे में न्याय व्यवस्था से विश्वास उठना स्वाभाविक है.

कोरोना ने बदला भारत की पुलिस को

लेकिन विश्वास के उठ जाने को मंजूर कर लेना और फिर न्याय की सरहदों को लांघ कर उठाए जाने वाले कदमों को स्वीकृति दे देना बेहद खतरनाक है. जो पुलिस अपराधी को गिरफ्तार कर अदालत के सामने लाने की जगह गोली मार देती है उसे किसी मासूम को भी गोली मार देने में कितना समय लगेगा?

ऐसे में कहां रह जाएगा कानून का शासन और कैसे सुनिश्चित होगी एक-एक नागरिक की सुरक्षा? कैसे ताकत के नशे में मदमस्त लोगों को यह सबक दिया जा सकेगा कि कानून उनसे भी ऊपर है?

यह भी सोच कर देखिए कि लिंचिंग क्या है? क्या सोच कर हमारे-आपके जैसे आम लोगों का एक समूह किसी व्यक्ति को किसी अपराध के संदेह में पकड़ लेता है और उसे पुलिस के हवाले करने की जगह खुद पीट पीट कर जान से मार देता है?

क्या फर्क है लिंचिंग करने वाली इस भीड़ और फर्जी मुठभेड़ करने वाली पुलिस में? मुठभेड़ों का जश्न मनाने वाले बताएं कि वो कानून के शासन और लिंचिंग के शासन में से किसको चुनेंगे? जवाब देने के लिए फिर से इतिहास के पन्नों में लौटना होगा और सोचना होगा कि सभ्यता बेहतर है या हम वापस जंगल में जाना चाहते हैं.