कैदियों के लिए रिहाई के बाद तकनीक बदल देती है दुनिया
२२ अप्रैल २०२४10 साल पहले, यानी 2014 में दुनिया कितनी अलग थी इसका अंदाजा स्मार्ट फोन के विकास को देखकर लगाया जा सकता है. फेसबुक ज्यादातर डेस्कटॉप पर देखा जाता था ना कि फोन पर. वॉट्सऐप मेसेजिंग का सबसे बड़ा जरिया था उसके बहुत कम विकल्प उपलब्ध थे. विकसित देशों में भी बसों में किराया देने के लिए कार्ड या कैश का इस्तेमाल होता था. अब ये सारे काम ऐप से हो रहे हैं और ऐसे दर्जनों ऐप हर फोन में मौजूद हैं.
सोचिए, 2014 में अगर किसी ने स्मार्ट फोन का इस्तेमाल बंद कर दिया हो, और अब उसे स्मार्ट फोन दिया जाए तो उसके लिए दुनिया के साथ तालमेल बनाने का अनुभव कैसा होगा. ऑस्ट्रेलिया के कुछ शोधकर्ताओं ने इसी मुद्दे को गहराई से समझने के लिए कैदियों पर शोध किया है.
ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय की ये इन वांग एक रिसर्च एसोसिएट हैं. उन्होंने और उनकी टीम ने कैदियों पर तकनीक से दूर रहने के असर पर शोध किया है. वह कहती हैं, "डिजिटल इन्क्लूजन यानी किसी व्यक्ति की तकनीक के साथ कदम से कदम मिलाने की क्षमता स्वास्थ्य और सामाजिक समानता का एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है, जो कोविड महामारी के बाद हुए तेज तकनीकी विकास के कारण और ज्यादा अहम हो गया है.”
जो लोग इस तकनीकी विकास के साथ नहीं चल पाए हैं, उनमें एक बड़ा समूह कैदियों का है. वे किसी एक समय पर जेल गए और उसके साथ ही स्मार्ट फोन से उनका नाता कट गया. उसके बाद जब वे रिहा होकर समाज में लौटते हैं तो तकनीक इतनी आगे जा चुकी होती है कि शोधकर्ताओं के मुताबिक वे अलग-थलग पड़ जाते हैं.
अजनबी हो जाती है दुनिया
अपने शोध के लिए इन शोधकर्ताओं ने 15 कैदियों के साक्षात्कार किए और जेल से लौटने के बाद तकनीक के साथ उनके अनुभवों का विश्लेषण किया. अपने शोध में ये इन वांग लिखती हैं कि अनजान तकनीक इन लोगों के आत्मविश्वास को नुकसान पहुंचाती है.
ये इन कहती हैं, "दुनियाभर में कैदियों की आबादी बूढ़ी हो रही है. इसके पीछे कई कारण हैं, मसलन आमतौर पर दुनिया की आबादी की औसत उम्र बढ़ रही है. इसके अलावा लोग ज्यादा उम्र में जेल जा रहे हैं या फिर ज्यादा समय तक जेल में रह रहे हैं."
ऑस्ट्रेलिया समेत दुनिया के अधिकतर देशों में सुरक्षा कारणों से जेल और कैदी तकनीक के लिहाज से बड़ी पाबंदियों में रहते हैं. इन शोधकर्ताओं ने 47 से 69 साल के 15 ऑस्ट्रेलियाई लोगों से बात की. इनमें से अधिकतर पुरुष थे. इन कैदियों ने बताया कि जब वे बाहर आए तो उन्होंने एक अजनबी दुनिया पाई, जहां जिंदा रहने के लिए हर कोई तकनीक पर निर्भर था.
शोध के मुताबिक एक कैदी ने बताया, "जिस व्यक्ति ने जेल में पांच से सात साल भी बिताए हैं, उसके लिए भी बहुत बड़ा फर्क आ जाता है. चीजें इतनी तेजी से बदल रही हैं कि उन्हें पता ही नहीं होता कि दुनिया कैसी दिखने लगी है."
तकनीक, एक और बाधा
ये इन वांग कहती हैं कि इस बदलाव ने लोगों के आत्मविश्वास को गहराई तक प्रभावित किया और जेल से लौटने से जुड़ी यातना और गहरी हो गई.
शोध के मुताबिक इन कैदियों ने कहा, "आप समाज का हिस्सा बनना चाहते हैं या फिर आप अदृश्य हो जाना चाहते हैं. चाहे भीड़ का हिस्सा बन जाओ या किसी को नजर ना आओ. क्योंकि जेल से छूटने के बाद भी लोगों के कंधों पर उनके अपराधों का बोझ होता है. और अगर किसी भी वजह से वे अलग नजर आएं तो लोगों की फिक्र बढ़ जाती है.”
ये इन वांग कहती हैं कि जेल से छूटने के बाद समाज में दोबारा शामिल होना अपने आप में चुनौतीपूर्ण है. फिर से अपराध की दुनिया में चले जाना, छूटे कैदियों की मृत्युदर, सामाजिक निष्कासन, बेरोजगारी और बेघर होने के तमाम चिंताजनक सबूत उपलब्ध हैं. ऐसे में डिजिटल एक्सक्लूजन उम्रदराज लोगों के लिए एक नई बाधा पैदा करता है.
ऐसा नहीं है कि जेलों में किसी तरह की तकनीक उपलब्ध नहीं है लेकिन कैदी बताते हैं कि वहां जो चीजें उपलब्ध हैं वे पुरानी पड़ चुकी हैं और उनका इस्तेमाल बहुत ही साधारण कामों के लिए किया जाता है.
हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स राज्य में टच-स्क्रीन वाली डिवाइस लगाने का फैसला किया गया है लेकिन बहुत से कैदियों के लिए इन्हें इस्तेमाल करना आसान नहीं होता.
शोधकर्ता कहते हैं कि इस दिशा में निवेश किए जाने की जरूरत है. ये इन वांग लिखती हैं, "डिजिटल साक्षरता या आबादी के इस हिस्से को जेल की बाहर की जिंदगी के लिए तैयार करने के लिए तकनीकी शिक्षा उपलब्ध कराने में निवेश किया जाना चाहिए.”
वह कहती हैं कि उपलब्ध सबूतों के आधार पर इस निवेश से निश्चित तौर पर 95 फीसदी कैदियों को फायदा होगा.