चुनावी बॉन्ड बंद हों, सुप्रीम कोर्ट ने दिया आदेश
१५ फ़रवरी २०२४सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की एक संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से यह फैसला दिया. पीठ ने स्पष्ट रूप से चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक बताया और कहा कि इसे रद्द कर देना चाहिए.
अदालत ने इन बॉन्ड को जारी करने वाले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) को आदेश दिया कि वह तुरंत इन्हें जारी करना बंद करे. इसके अलावा एसबीआई को यह भी आदेश दिया गया कि वह अभी तक किस राजनीतिक दल को कितने चुनावी बॉन्ड मिले हैं इसके बारे में विस्तृत जानकारी छह मार्च तक चुनाव आयोग को दे.
अदालत ने चुनाव आयोग को आदेश दिया कि वह 13 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर इस जानकारी को जारी करे. साथ ही अदालत ने आदेश दिया कि जो चुनावी बॉन्ड अभी भी वैध हैं लेकिन जिस राजनीतिक दल के लिए उन्हें जारी किया गया था उसने अभी तक उन्हें भुनाया नहीं है, उन बॉन्ड को जारी करने वाले बैंक को वापिस दे दिया जाए. उसके बाद बैंक को बॉन्ड की धनराशि खरीदने वाले के खाते में वापस जमा करानी होगी.
क्या है चुनावी बॉन्ड
चुनावी बॉन्ड की घोषणा 2017 के केंद्रीय बजट में की गई थी और इन्हें लागू 2018 में किया गया था. यह मूल रूप से भारत में राजनीतिक दलों को चंदा देने की एक योजना है.
यह एक किस्म का वित्तीय इंस्ट्रूमेंट है जिसके जरिये कोई भी राजनीतिक दलों को गुमनाम रूप से चंदा दे सकता है. इन पर कोई ब्याज भी नहीं लगता. यह 1,000, 10,000, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ रुपयों के मूल्य में उपलब्ध होते हैं. इन्हें सिर्फ स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) से खरीदा जा सकता है.
चंदा देने वाले को बॉन्ड के मूल्य के बराबर की धनराशि एसबीआई की अधिकृत शाखा में जमा करवानी होती है. यह भुगतान सिर्फ चेक या डिजिटल प्रक्रिया के जरिए ही किया जा सकता है.
बॉन्ड कोई भी व्यक्ति और कोई भी कंपनी खरीद सकती है. कोई कितनी बार बॉन्ड खरीद सकता है, इसकी कोई सीमा नहीं है. जिस पार्टी के नाम से बॉन्ड लिए गया है उसे 15 दिनों में इसे भुना लेना होता है.
15 दिनों के बाद एसबीआई बॉन्ड की धनराशि को प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा करा देती है. 2017-18 से 2022-23 तक कुल 8,970.3765 करोड़ मूल्य के बॉन्ड जारी किए गए.
इनमें से बीजेपी को 6566.1259 करोड़ रुपए, कांग्रेस को 1123.3155 करोड़, तृणमूल कांग्रेस को 1092.988 करोड़ रुपए मिले.इसके खिलाफ याचिका सीपीएआई और गैर सरकारी संस्थाओं कॉमन कॉज और एडीआर ने दायर की थी.
याचिकाओं में कहा गया था कि यह योजना एक "गुप्त फंडिंग प्रणाली है जिस पर किसी भी संस्था का नियंत्रण नहीं है." याचिकाकर्ताओं का कहना था कि इस योजना की वजह से राजनीतिक दलों की फंडिंग अपारदर्शी हो गई है, जबकि केंद्र सरकार की दलील थी कि राजनीतिक दलों की फंडिंग के बारे में जानने का नागरिकों को कोई अधिकार नहीं है.
कैसे काम करती थी योजना
सरकार में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017 के अपने बजट भाषण में कहा था कि इस योजना को राजनीतिक दलों की फंडिंग में पारदर्शिता लाने के लिए लाया जा रहा है.
मुख्य रूप से केंद्र सरकार आज भी योजना का समर्थन इसी आधार पर करती है. इसका लाभ पाने के लिए केवल वही पार्टी योग्य होती है जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत पंजीकृत होती है.
इसके अलावा एक और शर्त अनिवार्य होती है कि उस पार्टी को पिछले लोक सभा या विधान सभा चुनावों में कुल पड़े मतों का कम से कम एक प्रतिशत मिला हो. योग्य पार्टियों को अपने बैंक खाते की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है.
बॉन्ड के जरिए पाए हुए पैसों को पार्टी ने कैसे खर्च किया, इसकी जानकारी भी चुनाव आयोग को देनी होती है. यानी किसको, कितने पैसे मिले और उन पैसों को कैसे खर्च किया गया उसकी पूरी जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है. सरकार की दलील है कि इससे पारदर्शिता आती है.
आलोचकों की दलीलें
लेकिन बॉन्ड के खिलाफ मुकदमा करने वाले याचिकाकर्ताओं का कहना है कि असलियत इसके ठीक विपरीत है. उनका कहना है कि एक तरफ तो चुनावी बॉन्ड आम लोगों को चंदा देने वालों की कोई जानकारी नहीं देते और दूसरी तरफ सरकारी बैंक के शामिल होने की वजह से सरकार के पास हमेशा यह जानकारी हासिल करने का विकल्प मौजूद रहता है.
ऐसे में सत्तारूढ़ पार्टी यह पता कर सकती है कि विपक्षी पार्टियों को कौन चंदा दे रहा है और उन पर दबाव बना सकती है. इसके अलावा कंपनियां कितना राजनीतिक चंदा दे सकती हैं इसकी सीमा को भी हटा दिया गया था.
कंपीज एक्ट, 2013 के तहत कोई भी कंपनी पिछले तीन साल के औसत नेट लाभ के 7.5 प्रतिशत मूल्य के बराबर ही राजनीतिक चंदा दे सकती थी.
लेकिन चुनावी बॉन्ड लाते समय इस सीमा को हटा दिया गया, जिसकी वजह से अब बड़े कॉर्पोरेट घराने असीमित राजनीतिक चंदा दे सकते हैं, जिससे याराना पूंजीवाद के और पनपने की संभावनाएं मजबूत हो सकती थी.