जर्मनी: सत्ताधारी पार्टी नेतृत्व में आधा हिस्सा महिलाओं को
८ जुलाई २०२०अंगेला मैर्केल 2005 से जर्मनी की चांसलर हैं. यानी जो बच्चे आज 15 साल के हैं उन्होंने मैर्केल के अलावा कभी कोई और चांसलर देखा ही नहीं. वे नहीं जानते कि हेल्मुट कोल का या गेरहार्ड श्रोएडर का दौर कैसा था. दरअसल, वे यही नहीं जानते कि किसी पुरुष का चांसलर होना कैसा होता है. इस लिहाज से मौजूदा दौर का जर्मनी बाकी की दुनिया से काफी अलग है. मैर्केल आज की पीढ़ी की लड़कियों के लिए एक मिसाल हैं कि राजनीति जैसे पेशे में भी वे अपना सिक्का जमा सकती हैं.
जर्मनी की पहली महिला चांसलर बनने से पहले मैर्केल अपनी पार्टी "सीडीयू" की पहली महिला अध्यक्ष भी बनीं. साल 2000 से 2018 तक उन्होंने यह पद संभाला और फिर उनके बाद भी पार्टी की जिम्मेदारी एक महिला को ही सौंपी गई. आनेग्रेट क्रांप कारेनबावर (जिन्हें एकेके के नाम से भी जाना जाता है) को मैर्केल के बाद जर्मनी की अगली चांसलर के रूप में भी देखा जाने लगा था.
मैर्केल के बाद अब उनकी जगह कौन लेता है, इसके लिए कम से कम एक और साल का इंतजार करना पड़ेगा. लेकिन जाने से पहले मैर्केल महिलाओं के लिए जगह पक्की करना चाहती हैं. वैसे भी, उन्होंने अपने चौथे मंत्रिमंडल में लगभग आधे मंत्रालय महिलाओं को देकर पूरी दुनिया को एक संदेश दिया था. पहले उर्सुला फॉन डेय लायन को और फिर एकेके को रक्षा मंत्रालय देना भी इसी संदेश का हिस्सा था.
लेकिन मैर्केल की पार्टी की इस सुनहरी तस्वीर के पीछे की सच्चाई कुछ और है. सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि सीडीयू पार्टी में महज एक चौथाई सदस्य ही महिलाएं हैं. यही वजह है कि मैर्केल पार्टी में महिलाओं को बेहतर मौके देकर इसे बदलना चाहती हैं. सालों तक चली बहस के बाद आखिरकार उनकी पार्टी ने 2025 तक पार्टी नेतृत्व महिलाओं और पुरुषों में बराबरी से बांटने का फैसला किया है. महिलाओं के लिए सीडीयू में अब कोटे की व्यवस्था होगी. अगले साल पार्टी के मुख्य पदों पर 30% हिस्सा महिलाओं का होगा. 2023 तक इसे 40% और 2025 तक 50% करने का लक्ष्य रखा गया है.
पार्टी के कुछ लोग इस फैसले से नाखुश हैं. विरोध करने वाले दो तरह के हैं. एक तो पार्टी का रूढ़िवादी हिस्सा तो दूसरी ओर युवा वर्ग. उनका मानना है कि महिलाओं को अपनी प्रतिभा के दम पर जगह मिलनी चाहिए, कोटे के जरिए नहीं. कुछ लोगों का यह भी कहना है कि चांसलर, पार्टी अध्यक्ष और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं की मौजूदगी के बाद इस तरह का फैसला सही नहीं है.
ऐसे में न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न का ख्याल आता है जिन्होंने अपने महज दो साल के कार्यकाल में कई सुर्खियां बटोरी हैं. पहली बार वे सुर्खियों में तब आईं जब वे प्रधानमंत्री का पद संभालते हुए मां बनने वाली दुनिया की पहली महिला बनीं. आर्डर्न ने अपने कार्यकाल के दौरान मां बनकर पूर्वाग्रहों को जरूर तोड़ा है लेकिन आज भी अधिकतर महिलाओं के लिए बच्चों का पालन पोषण करियर के रास्ते में आड़े आता है. और खासकर राजनीति को पेशा बनाने में यह एक बहुत बड़ी बाधा है. जिस तरह से आर्डर्न का मां बनना महिलाओं के सामने खड़ी होने वाली सामाजिक समस्याओं को खत्म नहीं करता, उसी तरह मैर्केल का 15 साल तक चांसलर रहना भी जर्मनी में महिलाओं के लिए राजनीति में सक्रिय होना आसान नहीं बना देता.
भारत में इंदिरा गांधी और ब्रिटेन में मारगरेट थैचर, दोनों ही ग्यारह ग्यारह साल तक सत्ता में रहीं. इन दोनों ने भले ही बतौर पहली महिला प्रधानमंत्री अपने अपने देशों में इतिहास रचा हो लेकिन उनके बाद क्या हुआ? ब्रिटेन को अगली महिला प्रधानमंत्री मिलते मिलते 25 साल लग गए और भारत तो 35 साल बाद भी एक और महिला प्रधानमंत्री के लिए तैयार नहीं दिखता. इसीलिए, मैर्केल के बाद जर्मनी में महिलाओं के लिए राह आसान हो जाएगी, यह सोचना गलत है.
हुनर और काबिलियत बेशक जरूरी हैं. लेकिन मौका मिलना भी उतना ही जरूरी है. मैर्केल महिलाओं के लिए वही मौके खोज रही हैं. इन मौकों के तहत पोलिटिकल पेरेंटल लीव की भी बात चल रही है. जर्मनी में बच्चा होने पर महिलाओं और पुरुषों को बराबरी से छुट्टी लेने का हक है लेकिन ज्यादातर मामलों में देखा जाता है कि महिलाएं ही बच्चों की परवरिश के लिए काम से एक साल तक दूर रहती हैं. राजनीति में एक साल जनता से दूर होना करियर का अंत माना जाता है. लेकिन अब इसे भी बदलने की कोशिश हो रही है. "बच्चा होना राजनीतिक प्रतिबद्धता के रास्ते में नहीं आ सकता" - इस ख्याल के साथ अब नेताओं के लिए भी साल भर की छुट्टी के बाद अपने पद पर लौटना मुमकिन हो सकेगा. महिलाओं को प्रोत्साहित करने की दिशा में यह एक बेहतरीन आइडिया है. दूसरे देश यकीनन इससे सीख ले सकते हैं.
अपनी पार्टी के साथ मिलकर मैर्केल राजनीति का माहौल बदलने की कोशिशों में लगी हैं. लेकिन जब तक समाज में सोच नहीं बदलेगी, जब तक परिवारों में महिलाओं और पुरुषों के अधिकार समान नहीं होंगे, जब तक घरों की जिम्मेदारियां सिर्फ महिलाओं के ही कंधों पर रहेंगी, तब तक इन कोशिशों का कोई फल नहीं मिलेगा. मैर्केल भले ही राजनीति के दरवाजे खोल दें लेकिन उन दरवाजों तक पहुंचना अपने आप में एक लंबा सफर है, जो महिलाओं को सामाजिक दिक्कतों से उलझते हुए, उन्हें दूर करते हुए खुद ही तय करना होगा.
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