जंगलों की आग से निकला धुआं सेहत के लिए बड़ा खतरा
२५ अक्टूबर २०२४दुनियाभर के जंगलों में बढ़ती आग से ग्लोबल वॉर्मिंग और कार्बन उत्सर्जन का संकट और अधिक गहराता जा रहा है. इसकी वजह से हो रहे वायु प्रदूषण के कारण भी लाखों लोगों की जान खतरे में है. 'नेचर क्लाइमेट चेंज' नाम के जर्नल में प्रकाशित दो अध्ययनों में जंगलों की आग से बढ़ते ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे और स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों के बारे में बताया गया है. ये अध्ययन पोट्सडैम इंस्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च (पीआईके) की ओर से प्रकाशित किए गए हैं.
बर्लिन की फ्राय यूनिवर्सिटी के सेप्पे लांप इनमें से एक अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता हैं. उनके अध्ययन से पता चला कि बीते कुछ दशकों में आग लगे हुए क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का असर अधिक हुआ है. जापान के सुकुबा में स्थित नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर इंडस्ट्रियल साइंस एंड टेक्नोलॉजी के चाई योन पार्क ने दूसरे अध्ययन में मुख्य भूमिका निभाई है. उन्होंने आग लगने से स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों की जांच की है.
जलवायु परिवर्तन का असर
पहला अध्ययन यह उजागर करता है कि हाल के दशकों में जलवायु परिवर्तन के चलते आग लगने वाले इलाकों की तादाद बढ़ी है. 2003 से 2019 के बीच बिना जलवायु परिवर्तन वाले प्रभाव की तुलना में 16 फीसदी अधिक वन आग की चपेट में आए. अध्ययन के अनुसार ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका, उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी इलाके और साइबेरिया को विशेष रूप से इसका नुकसान उठाना पड़ रहा है. हालांकि इस अवधि में आग की चपेट में आने वाले इलाकों का दायरा 19 प्रतिशत घट गया. इसके पीछे मुख्य वजह वन क्षेत्र में कृषि और अन्य उपयोग के लिए होने वाला रूपांतरण जिम्मेदार है, जिसकी वजह से आग को फैलने की जगह नहीं मिल पाई.
ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण आग की तीव्रता बढ़ गई है. शोधकर्ताओं का कहना है कि गर्मी और सूखा न केवल जंगलों में आग भड़काते हैं, बल्कि जंगलों में आग लगने का जोखिम भी बढ़ा देते हैं.
धुएं से हो रही हैं अधिक मौतें
आग से धुआं उठता है और उससे निकलने वाले पार्टीकुलेट मैटर फेफड़ों में आसानी से चले जाते हैं और कभी-कभी खून में भी मिल जाते हैं. ताजा रिसर्च में पाया गया कि आग के कारण हुए वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों की संख्या तेजी से बढ़ी है. 1960 के दशक में इस तरह की मौतों की संख्या 46,400 प्रति वर्ष थी, जो 2010 के दशक में 98,750 तक पहुंच गई.
अध्ययन के अनुसार आग-जनित वायु प्रदूषण से 2010 के दशक में हर साल करीब 12,500 मौतें दर्ज की गईं जबकि 1960 के दशक में इससे होने वाली मौतों का यह आंकड़ा सालाना 670 था. यानी इसमें बहुत भारी इजाफा हुआ है. इससे दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप खास तौर पर प्रभावित हुए.
चाई योन पार्क ने डीपीए एजेंसी को बताया, "जलवायु परिवर्तन लोगों के स्वास्थ्य पर खतरा लगातार बढ़ा रहा है क्योंकि धुआं घनी आबादी में अधिक असर डालता है." हालांकि अध्ययन यह भी कहता है कि इसमें दक्षिण एशिया जैसे कुछ अपवाद भी हैं, जहां जलवायु परिवर्तन के कारण नमी बढ़ी और इस वजह से आग से जुड़ी घटनाओं में कम लोगों की मौत हुई.
यह विश्लेषण महामारी अध्ययन से जुड़ा हुआ है, जो पार्टिकुलेट मैटर पॉल्यूशन जैसे जोखिम कारकों और और कार्डियोवैस्कुलर बीमारियों जैसे स्वास्थ्य प्रभावों के बीच सांख्यिकीय संबंधों की पड़ताल करता है. हालांकि अध्ययन अंतरसंबंधों को तो स्थापित करते हैं, लेकिन मौतों की संख्या के मामले में उतने प्रभावी नहीं है. यह मुख्य रूप से सांख्यिकीय अनुमानों पर जाकर खत्म होते हैं. इनसे क्लिनिकली चिन्हित मौतों का कोई सटीक आंकड़ा नहीं मिलता है. यही कारण है कि जो वास्तविक संख्या है उसमें विसंगति या अंतर देखने को मिल सकता है.
इन दोनों अध्ययनों के निष्कर्ष हाल ही में साइंस नाम के जर्नल में छपी एक स्टडी से मेल खाते हैं. एक अंतरराष्ट्रीय रिसर्च टीम द्वारा किए गए इस शोध के मुताबिक, जंगल की आग का स्वभाव तेजी से बदल रहा है. उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों की जगह अब ये जंगलों को अपनी जद में ले रहे हैं. जंगल ज्यादा बड़े स्तर पर आग पकड़ते हैं और इनसे काफी बड़ी मात्रा में धुआं निकलता है, जो कि सेहत के लिए बहुत नुकसानदेह है. यह बदलाव इंसानी सेहत के लिए बड़ा जोखिम है.
भारत के जंगलों में खतरे की घंटी
भारत में भी गर्मी के मौसम में अलग-अलग क्षेत्रों के जंगलों में आग भड़कती है. उत्तराखंड वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि नवंबर 2023 से अप्रैल 2024 के बीच आग की 606 घटनाएं सामने आईं. इसके कारण 700 हेक्टेयर से अधिक वन्य क्षेत्र प्रभावित हुआ.
राज्य में बीते 10 वर्षों में जंगलों में आग लगने की 14,000 से भी अधिक घटनाएं सामने आ चुकी हैं. इससे 23 हजार हेक्टेयर के इलाके में वन संपदा का नुकसान हुआ है. भारतीय वन सर्वेक्षण की 2021 की रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के कुल वन क्षेत्र के लगभग 36 फीसदी हिस्से में अक्सर आग लगने का खतरा होता है. इनमें चार प्रतिशत हिस्सा 'अत्यधिक खतरे' और छह फीसदी हिस्सा 'बहुत ज्यादा खतरे' वाली श्रेणी में रखा गया है.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट मैनेजमेंट और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) इंदौर ने 22 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण कर एक अध्ययन किया है. इसमें यह पता चला है कि मध्य भारत के खंडवा के 45 प्रतिशत और 50 प्रतिशत उत्तरी बैतूल के जंगलों में आग लगने का खतरा सबसे अधिक है. यह अध्ययन अगस्त 2024 में एनवायरनमेंट मॉनिटरिंग एंड असेस्मेंट नाम के जर्नल में प्रकाशित हुआ है.
आरएम/वीके (डीपीए, एपी)