कैसे बनते हैं माजुली के मशहूर मुखौटे
असम में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच बसा दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली मुखौटा बनाने की अपनी कला के लिए मशहूर है.
किन चीजों से बनते हैं ये मुखौटे
इन मुखौटों को बनाने के लिए बांस, बेंत, कुम्हार की मिट्टी, गाय के गोबर, जूट के रेशे और कागज का इस्तेमाल किया जाता है.
कुदरती रंगों का इस्तेमाल
इन मुखौटों में जैविक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है. ये रंग पत्तियों, जड़ों और छालों से मिलते हैं. इन मुखौटों का इस्तेमाल नाटकों में पात्रों को चित्रित करने के लिए किया जाता है.
मुखा शिल्पो
माजुली के इन खास मुखौटों को बनाने की कला 'मुखा शिल्पो' कहलाती है. इस कला को प्रतिष्ठित भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग से भी सम्मानित किया गया है.
पौराणिक कथाओं के पात्रों का चित्रण
माना जाता है कि मजुली मुखौटों को बनाने की शुरुआत 15वीं से 16वीं सदी में हुई थी. इस कला के जरिए पौराणिक कथाओं के तमाम पात्रों के चेहरे बनाए जाते हैं.
"असम की सांस्कृतिक राजधानी"
बांस, मिट्टी, गोबर, कपड़ा, कपास और लकड़ी समेत विभिन्न वस्तुओं से बने मुखौटों का इस्तेमाल चेहरे से लेकर कलाकार के पूरे सिर और शरीर को ढकने के लिए भी होता है. माजुली द्वीप को असम की सांस्कृतिक राजधानी भी कहा जाता है.
विदेशों में भी भेजे जाते हैं मजुली के मुखौटे
वैष्णव संत शंकरदेव और माधवदेव के लिखे नाटकों में अभिनय करने के लिए माजुली के मुखौटों का सहारा लिया जाता है. मुखौटों को बनाने की प्रक्रिया काफी जटिल है. यहां बने मुखौटे देश-विदेश में भेजे जाते हैं. कई विदेशी संग्रहालयों में भी इनको जगह मिली है.
कलाकार हेमचंद्र गोस्वामी को मिला पद्मश्री
स्थानीय कलाकार हेमचंद्र गोस्वामी को इस कला के लिए 2023 में पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है. वह बताते हैं कि मुखौटों की यह कला संत शंकरदेव की ही देन है. हेमचंद्र गोस्वामी का परिवार सामागुड़ी सत्र में संगीत कला केंद्र संचालित करता है. इस सत्र या वैष्णव पूजा स्थल की स्थापना 1663 में की गई थी.
संत शंकरदेव को दिया जाता है श्रेय
वैष्णव परंपरा में बदलाव की लहर लाने वाले शंकरदेव ने रामायण, महाभारत और श्रीकृष्ण से जुड़ी कहानियों को कहने के लिए रंगमंच की कला का प्रयोग किया. उन्होंने इसे 'भावोना' कहा और इसके लिए मुखौटों का इस्तेमाल करना शुरू किया. माजुली को सत्रों की धरती भी कहा जाता है.