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राजनीतितुर्की

तुर्की में अब कितने जरूरी रह गये हैं एर्दोवान

११ मई २०२३

रेचप तैयप एर्दोवान के लिए इस बार लड़ाई कठिन है. आर्थिक दिक्कतें और मानवाधिकार का मसला उनके लिए बड़ी चुनौती बन गये हैं. दो दशकों से एर्दोवान को सिर पर बिठाने वाला तुर्की क्या अब उनसे छुटकारा चाहता है?

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दो दशकों से तुर्की की सत्ता एर्दोवान की मुट्ठी में है
इस बार का चुनाव एर्दोवान के लिए कठिन हैतस्वीर: Turkish Presidency/XinHua/dpa/picture alliance

कमाल अतातुर्क के सेक्यूलर और उदार संविधान के साये में 50 साल तक तुर्की ने पश्चिमी देशों की संस्कृति का लबादा तो ओढ़े रखा लेकिन देश का एक बड़ा तबका अपने दिल से इस्लामी रीति रिवाजों और रिवायतों को बाहर नहीं निकाल सका. तुर्की को उस्मानी साम्राज्य का गौरव वापस दिलाने के नाम पर रेचप तैयप एर्दोवान ने पहले इस तबके और फिर देश की सियासत में अपने पैर जमाए. ये बात है 1990 के दशक के आखिरी चंद सालों की.

यह वो तुर्की था जो धर्मनिरपेक्षता के साये में पीढ़ियों को अपनी संस्कृतियों से दूर जाते और पश्चिमी संस्कारों में सिमटता देख रहा था. पर्दे से लेकर तमाम इस्लामी संस्कारों का लोप एक वर्ग को परेशान कर रहा था और बहुत हद तक वो इसे अपने साथ अन्याय मान रहे थे. रेचप तैयप एर्दोवान ने इन्हीं भावनाओं को मजबूत कर अपनी सियासत की जमीन तैयार की.

हाया सोफिया के साथ तुर्की को भी कई साल पीछे ले गए एर्दोवान

हालांकि देश में धार्मिक उदारवाद भी अपनी जड़ें जमा चुका था. एर्दोवान को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी. एक सभा में पढ़ी गई कविता की कुछ पंक्तियों को अदालत ने "नफरती और भड़काऊ" माना. इसकी वजह से उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी गई. एर्दोवान ने यहीं अपनी राजनीति की नींव तलाश कर ली.

मध्यपूर्व और इस्लामी जगत के जानकार डॉ फज्जुर रहमान कहते हैं, "एर्दोवान ने धर्मनिरपेक्षता का विरोध करने की बजाय इस्लाम को न्याय और बराबरी का दर्जा दिलाने की बात कही. उनका हमेशा यह रुख रहा कि वह मुसलमानों को सिर्फ वो हक लौटा रहे हैं जो उनसे छीन लिए गए थे. अब वह चाहे पर्दे को गैरकानूनी बनाने वाले नियम को बदलना हो या हाया सोफिया में नमाज पढ़ने की इजाजत. इसी रुख ने तुर्की में उनकी कामयाबी की इबारत लिखी."

तुर्की ने एर्दोवान के शासन में बड़े बदलाव देखे हैं
दो दशकों से तुर्की पर एर्दोवान एकक्षत्र राज करते आ रहे हैंतस्वीर: Stf/Presidency Press Service/AP/dpa/picture alliance

निवेश विदेशी संस्कृति तुर्क

एर्दोवान का कहना है कि तुर्की को पश्चिमी देशों या अमेरिका से आर्थिक सहयोग और निवेश चाहिए संस्कृति नहीं. उस्मानी साम्राज्य वाले अतीत को वह अपने देश की स्वाभाविक विरासत मानते हैं. पश्चिमी देशों के अलावा रूस और अमेरिका के सहयोग से एर्दोवान ने देश में आर्थिक सुधारों को लागू किया और इसके नतीजे में देश का मध्यमवर्ग उनके साथ चला आया.

डॉ. रहमान बताते हैं, "इसमें एक बड़ा तबका उन लोगों का था जिन्होंने तुर्की के ग्रामीण इलाकों से काम की तलाश में शहरों का रुख किया था. ये लोग अपनी संस्कृति भी साथ लाए और आर्थिक विकास ने उन्हें देश और समाज में प्रमुख स्थान दिया. ये लोग एर्दोवान के बड़े वोट बैंक बने."

तुर्की के राष्ट्रपति चुनाव में सीरियाई शरणार्थी सबसे बड़ा मुद्दा कैसे बने

उस वक्त के युवा भी इस ताजा बयार के साथ चले और एर्दोवान का समर्थन करने वाले वर्ग का दायरा बढ़ता गया. देश में पक्की सड़कों का जाल, हाई स्पीड ट्रेन नेटवर्क, चमचमाते एयरपोर्ट, लक दक करती राजधानी, ये सब अब तक तुर्की का समाज बाहर यूरोपीय देशों में देखता आया था जो अब उन्हें अपने घर में नजर आने लगा. आर्थिक विकास और इस्लाम के गठजोड़ से एर्दोवान की साख और सत्ता पर पकड़ मजबूत होती चली गई.

घरेलू मोर्चे पर एक और कामयाबी एर्दोवान ने सेना को बैरकों में वापस भेज कर हासिल की. उनसे पहले और उनके शुरुआती दौर में तुर्की की सेना का सत्ता प्रतिष्ठान में गहरा दखल था. धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र का सख्ती से पालन हो इसके लिए सेना को संविधान के जरिये जिम्मेदार बनाया गया था. धीरे धीरे एर्दोवान ने ना सिर्फ सेना को इस भूमिका से आजाद कराया बल्कि खुद के लिए सर्वोच्च सेनापति की भूमिका भी हासिल कर ली. 

चुनाव से पहले एक रैली में एर्दोवान के समर्थक
तुर्की में एर्दोवान का समर्थन खत्म नहीं हुआ लेकिन कमजोर जरूर हुआ हैतस्वीर: Umit Bektas/REUTERS

देश विदेश में एर्दोवान का दबदबा

यह वही समय था जब एक तरफ इराक में सद्दाम हुसैन धीरे धीरे कमजोर पड़ कर फांसी पर लटका दिए गए तो ईरान अयातोल्लाह खमेनेई के दबदबे और अमेरिकी प्रतिबंधों में बुरी तरह जकड़ा जा चुका था. सऊदी अरब शाही परिवार की खींचतान तो पाकिस्तान राजनीति की उठा पटक से जूझ रहा था.

बाकी रही सही कसर अरब वसंत ने पूरी कर दी जिसकी चपेट में आ कर मिस्र से मुबारक और लीबिया से गद्दाफी की विदाई हुई. यमन और सीरिया एक ऐसी जंग में घिर गए जो अब तक जारी है. साझी सीमा और रूस के साथ अमेरिका की भी नजदीकियों ने एर्दोवान को इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ाई में एक प्रमुख भूमिका दे दी.   

इस्लामिक जगत में अब एर्दोवान अकेले ऐसे नेता बच गए जो ना सिर्फ अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ बल्कि रूस और चीन के साथ भी सहयोग कर रहे थे और घरेलू मोर्चे पर सफल थे. यूरोपीय संघ में शामिल होने की कोशिश में उन्होंने सहयोग का रास्ता अपनाया जिसके उन्हें खूब फायदे भी हुए. इसके साथ ही वह इस्लाम के नाम पर और इस्लाम के बगैर भी अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए तैयार थे. जिस उस्मानी साम्राज्य के गौरव की बहाली का सपना उन्होंने अपने देश की जनता को दिखाया था लोगों को उसकी तामीर दिखने लगी.

जर्मन तुर्कों को क्यों भाते हैं एर्दोवान

इन सब के साथ तुर्की में एर्दोवान अपनी ताकत बढ़ाते गए. 1994 में इस्तांबुल के मेयर का चुनाव जीतने के बाद 2001 में अपनी पार्टी बनाई, चुनाव जीता और फिर 2002 में प्रधानमंत्री बनने के बाद एर्दोवान ने 2007 और 2011 के चुनाव भी अपने दम पर जीते. 2014 में उन्होंने पार्टी प्रमुख का पद छोड़ा और राष्ट्रपति बने.

एर्दोवान और पुतिन ने आपसी सहयोग को आगे बढ़ाया है
एर्दोवान के दौर में तुर्की के रूस के साथ रिश्ते भी बेहतर हुए तस्वीर: Sputnik/Vyacheslav Prokofyev/Pool via REUTERS

इसके बाद संवैधानिक सुधारों के जरिये देश में नयी व्यवस्था लागू की, जनमतसंग्रह कराया और देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की नींव डाली. अब तुर्की में राष्ट्रपति को संसद नहीं सीधे जनता चुनती है और उसी के हाथ में कार्यपालिका और सेना की शक्ति होती है. प्रधानमंत्री का पद खत्म कर दिया गया.

कुल मिला कर देश का शासन पूरी तरह से एक आदमी के हाथ में आ गया है. फिलहाल यह ताकत एर्दोवान के पास है लेकिन चुनाव सिर पर है और अगर एर्दोवान हारे तो यह सारी ताकतें उनके विरोधी और विपक्षी दल के नेता केमाल कुरुचदारो के पास चली जाएंगी.

एर्दोवान की मुश्किलें

तुर्की की राजनीति के पूरे सफर में एर्दोवान को अपने पैर जमाने में बड़ी मदद मिली फतेउल्लाह गुलेन और उनके गुलेन मूवमेंट से. फतेउल्लाह गुलेन नवउस्मानीवाद के प्रवर्तक और इस्लाम के विचारक हैं. भारत समेत पूरी दुनिया में गुलेन के स्कूल चलते हैं. नई दिल्ली के लाजपत नगर में भी उनका स्कूल है. तुर्की की सेना, नौकरशाही, कारोबार, राजनीति, शिक्षा, समाज सेवा शायद ही कोई ऐसा वर्ग है जहां गुलेन के वैचारिक समर्थक ना हों. गुलेन के साथ ने एर्दोवान के सफर में अहम भूमिका निभाई लेकिन दोनों के काम के तरीके में थोड़ा फर्क है.

डॉ. रहमान का कहना है, "एर्दोवान चाहते थे कि देश में इस्लाम के पैर जमीनी स्तर से मौजूद हों जबकि गुलेन का मानना रहा है कि सरकार के स्तर पर ऊपर से इस्लाम को मजबूत किया जाए." लंबे समय तक गुलेन ने एर्दोवान का साथ दिया मगर जब उन्हें यह यकीन हो गया कि एर्दोवान उनके बताए रास्ते पर नहीं चलेंगे तो उन्होंने एर्दोवान से दूरी बना ली.

अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एर्दोवान की पूछ घटी है
कश्मीर पर बयान दे कर एर्दोवान ने भारत से रिश्ते बिगाड़ लिएतस्वीर: TUR Presidency/Murat Cetinmuhurdar/Handout/AA/picture alliance

आर्थिक मुश्किलों के चलते सऊदी अरब के आगे झुके एर्दोवान

इसी दौरान तुर्की में तख्तापलट की कोशिश हुई. माना जाता है कि इसमें गुलेन की बड़ी भूमिका थी. गुलेन 1999 से अमेरिका में रह रहे हैं, एर्दोवान को उनके इरादों की भनक समय रहते मिल गई और उन्होंने बहुत क्रूर तरीके से तख्तापलट की कोशिश को नाकाम कर दिया.

उनके पास सत्ता की ताकत थी जिसका एर्दोवान ने जम कर इस्तेमाल किया और गुलेन के समर्थक होने के संदेह में एक लाख से ज्यादा प्रोफेसरों, पत्रकारों और दूसरे लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया. संदेह के दायरे में आने वालों पर सख्ती से कार्रवाई हुई. गुलेन पर भी मुकदमा चला और उनकी नागरिकता छीन ली गई.

2016 में इस तख्तापलट की कोशिश और उसके बाद एर्दोवान की कार्रवाई ने सालों से बनाई एर्दोवान की छवि पूरी तरह ध्वस्त कर दी. ना सिर्फ देश बल्कि विदेश में भी एर्दोवान की लोकतांत्रिक निष्ठा और देश में मानवाधिकारों की स्थिति पर सवाल उठे. यूरोपीय संघ की सदस्यता नहीं मिलने के बाद उनका जर्मनी और यूरोप के साथ असहयोग बढ़ा. जर्मनी में चुनाव प्रचार और तख्तापलट की कोशिशों के बाद हुई कार्रवाइयों पर जर्मनी के विरोध के बाद एर्दोवान का यूरोप से मोहभंग हो गया.

यूरोप का मोहभंग

तुर्की की सत्ता पर पकड़ बनाए रखने की कोशिशों और इस्लाम के प्रति बढ़ते प्रेम से 2014 से ही यूरोप में उनके लिए नापसंदगी बढ़ने लगी थी. एक के बाद एक हुई घटनाओं के कारण यूरोप से उनका मनमुटाव बढ़ने लगा. ग्रीस के साथ जलसीमा का विवाद, सीरिया के शरणार्थियों का मामला और कुर्दों को यूरोप का समर्थन, कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें लेकर एर्दोवान यूरोप के साथ टकराव की मुद्रा में हैं.

रूस के साथ निरंतर सहयोग ने भी उन्हें पश्चिमी देशों से दूर किया है. कभी यूरोप के चहेते रहे एर्दोवान को इस बीच यूरोपीय नेताओं ने नजरअंदाज करना शुरू कर दिया है.

इस बार तुर्की में राष्ट्रपति चुनाव का मुकाबला दिलचस्प है
रेचप तैयप एर्दोवान और केमाल कुरुचदारोतस्वीर: Murat Kula/Sercan Kucuksahin/AA/picture alliance

कितना गंभीर है तुर्की यूरोपीय संघ से रिश्ते सुधारने के लिए

इन सब के बीच देश की अर्थव्यवस्था बुरे हाल में है. तुर्की की मुद्रा लीरा विदेशी मुद्रा में बढ़ते कर्ज के कारण 2013 से ही लगातार नीचे जा रही है. बतौर राष्ट्रपति एर्दोवान के दूसरे कार्यकाल में लीरा की कीमत 76 फीसदी गिर गई. इसके नतीजे में देश भारी महंगाई झेल रहा है और ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है जिनके लिए खर्च चलाना मुश्किल हो गया है.

सरकार को उम्मीद थी कि रियल स्टेट और मुनाफे में चल रहे कुछ अन्य उद्योगों की बदौलत वो दूसरे सेक्टरों की कमियों से उबर जाएंगे. इस्लाम के नाम पर देश में ब्याज की दरें बहुत नीचे कर दी गईं, इसका बड़ा खामियाजा बैंकों और दूसरे संस्थानों को उठाना पड़ा. अंतरराष्ट्रीय निवेश कम होता गया और एर्दोवान को इन स्थिति को टालने का कोई रास्ता नहीं मिला. शासन के करीब डेढ़ दशक में एर्दोवान ने जो आर्थिक प्रगति की रफ्तार हासिल की थी उसका एक बड़ा हिस्सा बीते डेढ़ साल में वह गंवा चुके हैं.

इस बार का चुनाव कठिन

रेचप तैयप एर्दोवान ने तुर्की में कम से कम दर्जन भर चुनावों और जनमत संग्रहों का सामना किया है और हर बार विरोधियों को धूल चटाते आए हैं. बीते 10 सालों में तुर्की के भीतर और बाहर जो हालात रहे हैं उनमें एर्दोवान का समर्थन कम होता गया है. घरेलू मोर्चे पर उनके लिए विरोध बढ़ रहा है और वो कोई समाधान पेश करने में नाकाम हैं. सत्ता के निरंकुश इस्तेमाल ने देश में उन्हें अलोकप्रिय बना दिया है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी वैसी पूछ नहीं रही. मलेशिया और पाकिस्तान के साथ इस्लामी धुरी बनाने की कोशिश और कश्मीर का मुद्दा उठाने के बाद भारत के साथ भी रिश्ते खराब हुए हैं.

एर्दोवान और पुतिन ने आपसी सहयोग को आगे बढ़ाया है
एर्दोवान के दौर में तुर्की के रूस के साथ रिश्ते भी बेहतर हुए तस्वीर: Sputnik/Vyacheslav Prokofyev/Pool via REUTERS

इन सबके बीच विपक्ष एकजुट हो रहा है. छह राजनीतिक दलों ने मिल कर उनके सामने केमाल कुरुचदारो को उम्मीदवार बनाया है जो लोगों को लुभा रहे हैं. डॉ. रहमान कहते हैं, "कुरुचदारो कोई करिश्माई नेता भले ना हो लेकिन तुर्की की जनता ने अगर एर्दोवान को हटाने का फैसला कर लिया तो इसका फायदा उन्हें जरूर मिलेगा और लोगों में नाराजगी है. हालांकि एर्दोवान इतनी आसानी से हार मानेंगे यह संभव नहीं है."

एर्दोवान की मुश्किल ये है कि अब तक उनके साथ रहे रुढ़िवादी वर्ग में उनका समर्थन घटा है. युवा तबका और पहली बार के वोटर मानवाधिकारों की खराब स्थिति और आर्थिक मुश्किलों के बीच धार्मिक मुद्दों को महत्व नहीं दे रहे. पिछले दिनों आए भारी भूकंप की तबाही और राहत के उपायों से असंतुष्टि ने भी लोगों को निराश किया है. 

विपक्षी उम्मीदवार कुरुचदारो की लोकप्रियता ताजा सर्वेक्षणों में 50 फीसदी के ऊपर जा चुकी है और निश्चित रूप से वह एर्दोवान को कड़ी टक्कर देंगे. दूसरी तरफ दो दशकों से देश को अपने तरीकों से चला रहे एर्दोवान आसानी से अपनी मुट्ठी खोल देंगे इसकी भी जरा भी उम्मीद नहीं है. 69 साल की उम्र में भी 18 घंटे काम करने वाले एर्दोवान जिंदगी और राजनीति के खेल में कई बार मुश्किलों और विरोधियों को परास्त कर चुके हैं. नतीजा कुछ भी हो ये लड़ाई दिलचस्प है. तुर्की का भविष्य बहुत कुछ इस चुनाव से तय होगा.