विदेशों में हजारों भारतीय डॉक्टर लेकिन भारत में कमी क्यों
२३ जून २०२१बड़ी संख्या में भारतीय स्वास्थ्यकर्मी दुनिया के विकसित देशों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. यूरोप, अमेरिका और अन्य अंग्रेजी भाषी देशों के अलावा कई अमीर खाड़ी देशों में भी हजारों भारतीय डॉक्टर और नर्सें हैं. जब खुद भारत में स्वास्थ्यकर्मियों की भारी कमी है, यहां से हजारों डॉक्टरों और नर्सों का हर साल विदेश जाना चौंकाता है. कोरोना की दूसरी लहर के दौरान भारत में सोशल मीडिया पर यह चर्चा चली कि स्वास्थ्य क्षेत्र में अगर यह डरावना 'ब्रेन ड्रेन' न हो रहा होता तो भारत कोरोना से बेहतर ढंग से निपट पाता. वैसे इन स्वास्थ्यकर्मियों के भारत से जाकर विदेश में बसने की मुख्य वजह अच्छी नौकरियां और बेहतर जीवनस्तर की तलाश बताई जाती है लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है.
भारत में सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र में बहुत कम निवेश करती हैं और यहां सरकारी नियुक्तियों की प्रक्रिया भी बहुत धीमी है, यह भी स्वास्थ्यकर्मियों के यहां से विदेश जाने की वजह बनता है. बंगलोर यूनिवर्सिटी में समाजशास्र के प्रोफेसर डॉ आर राजेश कहते हैं, "विदेश जाने वाले लोगों में सम्मान और पहचान की चाह भी महत्वपूर्ण वजह होती है. जातीय और सामाजिक भेदभाव के चलते भी कई लोग विदेश जाकर बसने के लिए प्रेरित होते हैं." जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर डॉ कृष्णा राव कहते हैं, "फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ये डॉक्टर देश में होते तो कुछ खास फर्क पड़ता. अगर हम अभी सारे डॉक्टर और नर्सों को वापस ले आएं तो क्या वे गांवों में जाकर इलाज करने के लिए राजी होंगे?"
डॉक्टरों को लुभाते भी हैं देश
ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकॉनमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) के आंकड़ों के मुताबिक 2017 में ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में ऐसे 69 हजार डॉक्टर काम कर रहे थे, जिन्होंने भारत में डॉक्टरी की पढ़ाई की थी. वहीं ऐसी नर्सों की संख्या 56 हजार थी. इसी तरह अमीर खाड़ी देशों में भी हजारों भारतीय स्वास्थ्यकर्मी हैं, हालांकि उनका कोई स्पष्ट डाटा अभी मौजूद नहीं है. कोरोना महामारी के दौर में विकसित देशों सहित दुनियाभर में डॉक्टरों की भारी मांग रही. इस दौरान विकसित देशों ने विदेशी स्वास्थ्यकर्मियों को आकर्षित करने के लिए कई सुविधाएं दीं. ब्रिटेन ने जहां योग्य प्रवासी स्वास्थ्यकर्मियों के वीजा की अवधि एक साल बढ़ा दी वहीं फ्रांस ने विदेशी फ्रंटलाइन कर्मियों को नागरिकता की पेशकश की.
डॉ आर राजेश कहते हैं, "डॉक्टरों और नर्सों को लुभाने की यह प्रक्रिया बहुत पहले ही शुरू हो जाती है. इन कोर्स में कई विदेशी फेलोशिप और स्कॉलरशिप देकर पहले ही सबसे अच्छे टैलेंट को चिन्हित कर लिया जाता है. यानी प्रभावशाली देश पहले ही भारत के सबसे अच्छे टैलेंट को अपने लिए छांट लेते हैं." डॉ कृष्णा राव कहते हैं, "यह बात पूरी तरह सही नहीं है लेकिन यह एक सच्चाई है कि अमेरिका और यूरोपीय देशों में स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए डॉक्टर और नर्सों की भारी जरूरत है, ऐसे में वे भारत, फिलीपींस और अन्य दक्षिण एशियाई देशों से इन्हें ले जाते हैं."
भारत की नीतियां हतोत्साहित करने वाली
इससे उलट भारत ने ब्रेन ड्रेन रोकने के लिए अब तक जो प्रयास किए गए हैं, वे डॉक्टरों को हतोत्साहित करने वाले हैं. यही वजह है कि इस समस्या का कोई दूरगामी हल नहीं मिल सका है. मसलन साल 2014 में भारत ने अमेरिका जाकर बसने वाले डॉक्टरों को नो ऑब्जेक्शन टू रिटर्न टू इंडिया (NORI) सर्टिफिकेट देने बंद कर दिए थे. जो डॉक्टर जे1 वीजा पर अमेरिका जाते हैं और वहां तीन साल से अधिक रहना चाहते हैं, अमेरिकी सरकार उनसे इस सर्टिफिकेट की मांग करती है.
भारत से बड़ी संख्या में मेडिकल स्टूडेंट यूरोप के देशों और चीन में पढ़ाई के लिए भी जाते हैं. वे पढ़ाई के बाद यूरोप, अमेरिका या विकसित देशों में ही नौकरी की तलाश करते हैं. भारत इन्हें भी लुभाने का प्रयास नहीं करता. डॉ कृष्णा राव समस्या के एक वित्तीय पहलू पर भी ध्यान दिलाते हैं. वे कहते हैं, "ये स्टूडेंट अपनी पढ़ाई पर भारी खर्च करते हैं. कई बार इन पर भारी लोन भी हो जाता है. अगर ये अमीर देशों में अवसर नहीं तलाशेंगे तो अच्छी कमाई कैसे करेंगे और लोन कैसे चुका सकेंगे."
इन्हें लुभाना थोड़ा मुश्किल है लेकिन उनके काम के लिए विदेश जाने को थोड़ा महंगा बनाया जा सकता है. डॉ. कृष्णा राव का मानना है कि फौरन यह किया जा सकता है कि जो मेडिकल स्टूडेंट भारत के सरकारी संस्थानों से मेडिकल की पढ़ाई करते हैं, अगर वे नौकरी के लिए विदेश जा रहे हैं तो उनपर टैक्स लगाया जाए और पढ़ाई का सरकारी खर्च चुकाने के लिए कहा जाए.
इस तरह रोका जा सकता है ब्रेनड्रेन
फिलहाल भारत में प्रति 1000 लोगों पर 1.7 नर्सें और प्रति 1404 लोगों पर 1 डॉक्टर है. विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO के मुताबिक 1000 लोगों पर 3 नर्सें और 1100 की जनसंख्या पर 1 डॉक्टर होना चाहिए. इनमें भी भारत में ज्यादातर डॉक्टर शहरी इलाकों में ही हैं. साल 2020 की ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर 10 हजार लोगों पर सिर्फ 5 हॉस्पिटल बेड हैं, यह आंकड़ा दुनिया में सबसे खराब है. ये आंकड़े साफ इशारा करते हैं कि भारत को स्वास्थ्य क्षेत्र में, खासकर सार्वजनिक स्वास्थ्य में निवेश बढ़ाना होगा. इससे इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे.
डॉ आर राजेश कहते हैं, "जब तक भारत में सामाजिक समानता के लिए जोर-शोर से प्रयास नहीं होंगे, अलग-अलग समुदायों और जातियों के लोग मेडिकल या अन्य पढ़ाई करके विदेश जाकर बसने के लिए प्रेरित होते रहेंगे और यह ब्रेन ड्रेन जारी रहेगा." जानकारों के मुताबिक धीरे-धीरे स्वास्थ्य क्षेत्र में ऐसे बदलाव करने होंगे कि स्वास्थ्यकर्मियों को भारत में रहना फायदेमंद लगे और यहां रहने के लिए वे प्रेरित हो सकें. सरकार को ऐसी नीतियां भी बनानी होंगी ताकि सर्कुलर या रिटर्न माइग्रेशन को बढ़ावा मिले. इसके लिए विदेशों में पढ़ाई या रिसर्च कर रहे स्वास्थ्यकर्मियों को लौटने के लिए प्रोत्साहन देना होगा. भारत को ऐसे देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते करने की भी जरूरत है, जहां ज्यादा भारतीय स्वास्थ्यकर्मी रहते हैं. समझौतों के जरिए इन डॉक्टरों और नर्सों की शेयरिंग को लेकर एक नीति बनाई जा सकती है.