कोर्ट: सभी कामकाजी गर्भवती महिलाएं मातृत्व लाभ की हकदार
२८ अगस्त २०२३दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा है कि मातृत्व लाभ उस महिला की पहचान और गरिमा का मौलिक और अभिन्न अंग है, जो बच्चे को जन्म देना चुनती है. कोर्ट ने कहा कि कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाली महिलाकर्मी को भी मातृत्व लाभ अधिनियम 2017 के तहत राहत पाने का हक है.
हाई कोर्ट ने कहा है कि मातृत्व लाभ अधिनियम, 2017 के मुताबिक, सभी कामकाजी गर्भवती महिलाएं एक समान मातृत्व लाभ की हकदार हैं, भले ही उनकी नियोजन की प्रकृति कुछ भी हो. दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस चंद्र धारी सिंह ने कहा कि अधिनियम कामकाजी महिलाओं को उनके रोजगार की प्रकृति के आधार पर राहत देने से रोकने का सुझाव नहीं देता है.
मातृत्व लाभ महिला की पहचान
जस्टिस सिंह ने कहा कि मातृत्व लाभ केवल कानूनी दायित्वों या रोजगार अनुबंधों से प्राप्त नहीं होते हैं, परिवार शुरू करने का निर्णय लेते समय वे एक महिला की पहचान का मूलभूत हिस्सा होते हैं. कोर्ट ने इस बात पर प्रकाश डाला कि माता-पिता बनने की स्वतंत्रता एक संवैधानिक अधिकार है, और उचित कानूनी प्रक्रियाओं के बिना इस अधिकार को बाधित करना संविधान और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों दोनों के विपरीत है.
जस्टिस सिंह ने कहा कि अगर एक महिला को अपने करियर और पारिवारिक जीवन के बीच चयन करना पड़े, तो यह सामाजिक प्रगति के लिए हानिकारक है. उन्होंने कहा कि अधिनियम मातृत्व लाभ को "लाभ" के रूप में परिभाषित करता है, लेकिन इसकी बजाय इसे ऐसी स्थितियों में महिला कर्मचारियों के लिए एक उचित अधिकार माना जाना चाहिए, जिससे परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक बदलाव और मातृत्व लाभ प्रदान करने के लिए अधिक अनुकूल दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है.
महिला का मौलिक अधिकार
हाई कोर्ट की यह टिप्पणी दिल्ली राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण (डीएसएलएसए) के साथ कॉन्ट्रैक्ट के तहत कार्यरत एक गर्भवती महिला के मामले की सुनवाई के दौरान आई. स्थायी कर्मचारियों को मातृत्व लाभ देने के बावजूद, डीएसएलएसए ने संविदा कर्मचारियों को इससे वंचित कर दिया. डीएसएलएसए ने उस महिला के मातृत्व लाभ के लिए उसके अनुरोध को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि कानूनी सेवा प्राधिकरणों के लिए मातृत्व लाभ देने का कोई प्रावधान नहीं है.
हाई कोर्ट ने डीएसएलएसए को याचिकाकर्ता को मातृत्व लाभ अधिनियम के अनुसार सभी चिकित्सा, वित्तीय और अन्य प्रासंगिक लाभ प्रदान करने का निर्देश दिया.
जस्टिस सिंह ने कहा, "एक महिला को, जो बच्चे के जन्म की प्रक्रिया के दौरान इस तरह के गतिशील परिवर्तनों से गुजर रही है, उन लोगों के बराबर काम करने के लिए मजबूर करना, जो शारीरिक और/या मानसिक श्रम के समान स्तर पर नहीं हैं, गंभीर अन्याय के समान है और किसी भी तरह से उचित नहीं है. यह निश्चित रूप से समानता और अवसरों की समानता की वह परिभाषा नहीं है जो संविधान निर्माताओं के दिमाग में थी."
याचिकाकर्ता महिला डीएसएलएसए में कॉन्ट्रैक्ट पर काम करती है और उसने मातृत्व लाभ का अनुरोध खारिज होने के बाद हाई कोर्ट में याचिका दी थी.