क्या दुनिया की भूख मिटा सकती हैं जीएम फसलें?
७ जुलाई २०२४सदियों से किसान फलों, अनाजों या सब्जियों को आपस में मिलाकर नई किस्में तैयार करते आ रहे हैं, जो ज्यादा स्वादिष्ट या ज्यादा पैदावार वाली होती हैं. हालांकि, 1970 के दशक में वैज्ञानिकों ने पहली बार किसी जीव से दूसरे जीव में जीन डालने के लिए बायो-इंजीनियरिंग का इस्तेमाल किया और 'ट्रांसजेनिक' फसलें तैयार की.
जब 1990 के दशक में आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव (जीएमओ) वाली फसलों से तैयार भोजन पहली बार बाजार में आया, तो उन्हें फ्रेंकेंस्टीन फूड कहा गया. आनुवंशिक रूप से बदली हुई फसलों को लेकर यह चिंता लगातार जाहिर की गई कि ये हमारी सेहत के लिए हानिकारक हो सकती हैं. भले ही लंबे समय तक किए गए कई अध्ययनों में यह पाया गया है कि इन्हें खाना पारंपरिक फसलों जितना ही सुरक्षित है.
अब 2020 के दशक में एक नई 'जीन क्रांति' की शुरुआत हुई है, जहां डीएनए सीधे तौर पर बदला जा सकता है. अब किसी दूसरे जीव से जीन लेकर उन्हें अन्य जीव में डालने की जरूरत नहीं है. इस तकनीक का इस्तेमाल करके बायोटेक फसल उद्योग यह दावा कर रहा है कि इससे दुनिया की बढ़ती आबादी की भूख मिटाई जा सकती है. अनुमान है कि 2050 तक दुनिया की आबादी 10 अरब तक पहुंच जाएगी.
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) जीएम तकनीक का लगातार समर्थन करता रहा है. इसका कहना है कि शोध से चावल, मक्का, गेहूं, आलू और कसावा की नए किस्में विकसित करने में मदद मिलेगी. ये नई किस्में लगातार गर्म हो रहे वातावरण में चरम मौसम और 'जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली बीमारियों' से लड़ने में सक्षम होंगी. इस तरह ये जरूरी खाद्य पदार्थ भविष्य में भी हमारे लिए उपलब्ध रह पाएंगे.
डब्ल्यूईएफ इस ओर भी इशारा करता है कि नई बायो-इंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी से पौधों और मिट्टी को वातावरण में मौजूद कार्बन को बेहतर तरीके से सोखने और जमा करने में मदद मिलती है.
अमेरिका का एक शोध प्रोजेक्ट प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को बेहतर बनाने में मदद कर रहा है, ताकि मक्का और चावल जैसे मुख्य खाद्य पदार्थ सूरज की रोशनी, पानी और कार्बन डाईऑक्साइड को और बेहतर तरीके से ऊर्जा में बदल सकें. इससे फसल की पैदावार तो बढ़ेगी ही. साथ ही, वातावरण में मौजूद कार्बन भी कम होगा.
रियलाइजिंग इनक्रीज्ड फोटोसिंथेटिक एफिशिएंसी की वेबसाइट पर कहा गया है, "हमारे पास अब वह ज्ञान और तकनीक मौजूद है, जिसकी मदद से हम अगली हरित क्रांति ला सकते हैं. इससे किसान इस सदी में इतना अधिक उत्पादन कर सकेंगे, जितना मानवजाति के इतिहास में कभी नहीं हुआ." इस शोध प्रोजेक्ट को 2012 से बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन से लगभग 115 मिलियन डॉलर की आर्थिक मदद मिली है.
जीएम फसलों से जुड़ी आशंकाएं
कई वैज्ञानिक और पर्यावरण कार्यकर्ता इस बात से सहमत नहीं हैं कि जीएम फसलों से पूरी दुनिया की भूख मिटाई जा सकती है या जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा होने वाली अत्यधिक सूखे और बाढ़ की स्थिति से लड़ने में मदद मिल सकती है. इन स्थितियों की वजह से कृषि पर बुरा असर पड़ रहा है.
लंदन स्थित ब्रुनेल यूनिवर्सिटी में राजनीतिक पारिस्थितिकी और पर्यावरण न्याय की व्याख्याता एनेलीन केनिस ने डीडब्ल्यू को बताया, "जीएम तकनीक खेती करने के बड़े कारखानानुमा तरीकों को बढ़ावा देंगी, जो कि जलवायु संकट के लिए बहुत ज्यादा जिम्मेदार हैं."
फिलहाल पूरी खाद्य प्रणाली से जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाली ग्रीनहाउस गैसों के लगभग एक-तिहाई हिस्से का उत्सर्जन होता है. वहीं अमेरिका में उगाई जाने वाली आधी से ज्यादा फसलों के बीज जेनेटिक बदलाव वाले होते हैं.
केनिस के शोध में कहा गया है कि आमतौर पर जीएम फसलों को उगाने के लिए बड़े खेतों में एक ही तरह की फसल की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है. साथ ही, इन फसलों के लिए काफी ज्यादा खाद, कीटनाशक और सिंचाई की जरूरत पड़ती है.
वह कहती हैं, "इन फसलों के लिए काफी ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होती है. जीएम फसलों को खेती के उद्योग से जुड़े वही दिग्गज बढ़ावा देते हैं, जो बीज, खाने का सामान, कीटनाशक और खाद बाजार के बड़े हिस्से को नियंत्रित करते हैं और उससे मुनाफा कमाते हैं."
केनिस का दावा है कि अब तक यह प्रणाली दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाली आबादी के बड़े तबके को भोजन उपलब्ध कराने में नाकाम रही है. वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के मुताबिक लगभग 60 देशों के 25 करोड़ से ज्यादा लोग खाने की भारी कमी का सामना कर रहे हैं.
बायोइंजीनियर्ड फसलों पर प्रतिबंध लगाने की मांग
जीएम फसलों को लेकर इसी तरह की आलोचनाओं को आधार बनाकर फिलीपींस में एक सफल अभियान चलाया गया था. इस अभियान की वजह से इस साल अप्रैल में जीएम (आनुवंशिक रूप से बदले हुए) गोल्डन राइस और बैंगन को उगाने पर रोक लगा दी गई. गोल्डन राइस को आंशिक रूप से मक्के के प्रोटीन से बनाया गया, ताकि उसमें बीटा-कैरोटीन बन सके, जिससे ज्यादा विटामिन ए मिले. इसे साल 2021 में उगाने की अनुमति दी गई थी.
ग्रीनपीस फिलीपींस की कंट्री डायरेक्टर ली गुएरेरो ने इस अभियान का नेतृत्व किया था. उन्होंने बताया कि अदालत ने 'स्वास्थ्य और स्वस्थ पारिस्थितिकी के संवैधानिक अधिकार को बनाए रखने की जरूरत' के आधार पर यह प्रतिबंध लागू किया.
गुएरेरो ने डीडब्ल्यू को बताया कि अदालत ने पाया कि गोल्डन राइस और बैंगन के सुरक्षित होने या इसके नुकसान के बारे में वैज्ञानिक अब तक एक राय नहीं बना पाए हैं.
वहीं दूसरी ओर जर्मनी की बॉन यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर डेवलपमेंट रिसर्च की निदेशक और खाद्य अर्थशास्त्र की विशेषज्ञ माटिन कैम ने कहा कि फिलीपींस के कई लोगों में विटामिन ए की कमी है और विटामिन वाले गोल्डन राइस के बिना उनकी मौत हो सकती है. कैम प्रो-जीएम गोल्डन राइस ह्यूमैनिटेरियन बोर्ड में भी शामिल हैं.
हालांकि, ग्रीनपीस की गुएरेरो का कहना है कि यह प्रतिबंध विभिन्न फसलों को उगाने और प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने की क्षमता को बढ़ावा देने की जीत है. यह जीएमओ मोनोकल्चर से जीत है, जो बीज और खेती से जुड़ी ज्यादातर कंपनियों को फायदा पहुंचाता है. इन कंपनियों में बायर, कॉर्टेवा, केमचाइना-सिंजेन्टा और बीएएसएफ जैसी खाद्य और कृषि कंपनियां शामिल हैं. ये कंपनियां दुनियाभर में बीजों के बाजार का 60 फीसदी से ज्यादा हिस्सा नियंत्रित करती हैं.
जीएम जीन क्रांति का समर्थन
यूनिवर्सिटी ऑफ केप टाउन में मॉलिक्यूलर और सेल बायोलॉजी की एमेरिटस प्रोफेसर जेनिफर थॉमसन सूखे जैसी स्थिति को भी सहन करने वाले ट्रांसजेनिक मक्का विकसित कर रही हैं. इसके लिए वह 'फिर से जीवित होने वाले पौधों' से जीन ले रही हैं. इस पौधे को जेरोफाइटा विस्कोवा के नाम से जाना जाता है, जो पानी की 95 फीसदी तक की कमी को भी सहन कर सकता है.
थॉमसन दशकों से जीएम फसलों पर वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और संयुक्त राष्ट्र को सलाह दे रही हैं. उनका कहना है कि इसे लेकर काफी ज्यादा विवाद है और यह आगे भी जारी रहेगा. हालांकि, वह दक्षिण अफ्रीका के छोटे खेतों के लिए बायो-इंजीनियरिंग से विकसित की गई 'कीट प्रतिरोधी' फसलों को किसानों के लिए वरदान मानती हैं.
वहीं ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक लोबिया यानी राजमा का उत्पादन बढ़ाने के लिए एक परियोजना चला रहे हैं. इसके तहत वे बायो-इंजीनियरिंग की मदद से राजमा में कीटों से बचाव की क्षमता पैदा कर रहे हैं. गौरतलब है कि राजमा सदियों से पूरे अफ्रीका में भोजन का मुख्य हिस्सा है.
जेनिफर थॉमसन कहती हैं, "अगर इन फसलों में कीटों से बचने की क्षमता न हो, तो कई बार फसल ही नहीं होती." उन्होंने आगे बताया कि जीएम मक्का की खेती करने से कुछ अफ्रीकी किसानों की पैदावार दोगुनी हो गई है.
क्या पारंपरिक फसलें हैं समाधान?
नई जीएम फसलों की बढ़ती क्षमता के बावजूद जीन के बदलाव का विरोध जारी है. साथ ही, लोगों में संदेह भी बना हुआ है. दरअसल साल 2020 में दुनियाभर में कराए गए एक सर्वेक्षण में लगभग आधे लोगों ने माना कि जीएम खाद्य पदार्थ खाने के लिए सुरक्षित नहीं हैं.
ग्रीनपीस फिलीपींस का कहना है कि स्थानीय वैज्ञानिकों के लिए गर्म होते वातावरण में पारिस्थितिकी के अनुकूल, बिना-जीएम वाले बीज, भोजन और पोषण प्रणाली विकसित करना मुश्किल है. गुएरेरो के अनुसार इसकी वजह यह है कि ज्यादातर शोध एग्री-बायोटेक से जुड़ी बड़ी कंपनियां ही कराती हैं.
इस दौरान कृषि विज्ञान के शोधकर्ताओं ने ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ताओं द्वारा विकसित और नाइजीरिया में खेती के लिए मंजूरी दिए गए जीएम राजमा से होने वाले नुकसान के आकलन में कमियों का भी उल्लेख किया है. उन्हें चिंता है कि ये ट्रांसजेनिक पौधे, पौधों को कीटों से बचाने के लिए एक विषैला पदार्थ पैदा करते हैं, जिससे कीटनाशकों की जरूरत कम हो जाती है. लेकिन, इन 'विषैले तत्वों' की वजह से सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं बनी हुई हैं.
थॉमसन का दावा है कि अफ्रीका के लोगों ने जीएम मक्का खाने की वजह से कभी भी स्वास्थ्य से जुड़ी हुई किसी तरह की चिंता जाहिर नहीं की. वहीं एनेलीन केनिस का मानना है कि बायोटेक कंपनियां अक्सर 'जलवायु कार्ड खेलती हैं', भले ही वर्तमान में कुछ जीएम फसलें वास्तव में जलवायु परिवर्तन से लड़ने के उद्देश्य से विकसित की जा रही हैं.
इस चुनौती का सामना करने के लिए वैज्ञानिक ऐसे फल और सब्जियां विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, जो लंबी दूरी तय करने के बाद भी खराब न हों. इसका एक लक्ष्य जलवायु को नुकसान पहुंचाने वाले खाने की बर्बादी को कम करना है. हालांकि, केनिस को लगता है कि इससे फायदा कम है, क्योंकि इन फलों और सब्जियों को दूर-दूर तक ले जाने में परिवहन के साधनों का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे प्रदूषण बढ़ता है.
उनका कहना है कि किसी भी टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल फसल विकल्प का लक्ष्य न केवल 'जहरमुक्त भोजन' पैदा करना होना चाहिए, बल्कि 'समृद्ध जैव विविधता वाली जगहों' को पोषित करना भी होना चाहिए, जो जलवायु परिवर्तन से लड़ने और उसे घटाने में सक्षम हों.