मामला केरल के कोरिकोड का है जहां निचली अदालत के एक न्यायाधीश ने यौन शोषण के एक मुल्जिम को इसलिए अग्रिम जमानत दे दी क्योंकि उनके अनुसार शिकायत करने वाली महिला ने 'भड़काऊ कपड़े' पहने हुए थे.
सिविक चंद्रन केरल में एक जाने माने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, लेकिन इस सेशंस अदालत के सामने वह एक आरोपी थे. उन पर एक नहीं बल्कि दो महिलाओं ने अलग अलग मौकों पर उनका यौन शोषण करने का आरोप लगाया है. शिकायतकर्ताओं में से एक महिला दलित समुदाय से आती हैं.
एक महिला का आरोप है कि 17 अप्रैल को चंद्रन ने एक कार्यक्रम में जबरदस्ती उन्हें चूमने की कोशिश की. दूसरी महिला का आरोप है कि एक और कार्यक्रम के दौरान चंद्रन ने उन्हें गलत तरीके से छुआ और उनका यौन शोषण किया.
पुलिस ने चंद्रन के खिलाफ शिकायत 17 जुलाई को ही दर्ज कर ली थी लेकिन उन्हें अभी तक गिरफ्तार नहीं कर पाई है. मीडिया रिपोर्टों में बताया जा रहा है कि चंद्रन फरार हैं. उन्होंने कोरिकोड सेशंस अदालत में अग्रिम जमानत की अर्जी दी थी जिसे अदालत ने अब स्वीकार कर लिया है.
पीड़िता ही कटघरे में
लेकिन अर्जी स्वीकार करने के पीछे जज ने जो दलीलें दीं हैं वे बेहद निराशाजनक हैं. चंद्रन के वकील ने अपनी अर्जी के साथ शिकायतकर्ता की कुछ तस्वीरें अदालत को दी थीं, जिन्हें देख कर जज एस कृष्ण कुमार ने महिला के खिलाफ ही टिप्पणी कर दी.
जज ने कहा कि तस्वीरों में दिखाई दे रहा है कि शिकायतकर्ता ऐसे कपड़े पहनती हैं जो 'यौन संबंधी रूप से भड़काऊ' हैं और इस वजह से मुल्जिम के खिलाफ आईपीसी की धारा 354ए नहीं लगाई जा सकती. इस धारा में यौन शोषण की परिभाषा और उसके लिए सजा का उल्लेख है.
जज एस कृष्ण कुमार को संभवतः यह अच्छी तरह से मालूम होगा कि इस धारा में 'भड़काऊ कपड़े' पहन कर या किसी भी रूप में महिला द्वारा यौन शोषण को आमंत्रित करने का कोई उल्लेख नहीं है, क्योंकि यह महिलाओं के यौन शोषण के इतिहास और समझ से बिल्कुल परे एक विषय है.
मानसिकता का असर
अब तो शायद महिला अधिकार कार्यकर्ता भी यह कह कह कर थक गए होंगे कि यौन शोषण का पीड़िता के कपड़ों से कोई लेना देना नहीं है. अगर ऐसा होता तो छोटी छोटी बच्चियों से लेकर बुजुर्ग महिलाओं का बलात्कार और यौन शोषण नहीं होता.
दरअसल अग्रिम जमानत देने का फैसले सुनाने वाले शब्द जरूर जज एस कृष्ण कुमार के हैं, लेकिन उनमें आवाज शायद समाज के एक बड़े हिस्से की है. वही समाज जहां महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ते जा रहे हैं और जो आज भी महिलाओं को या तो वासना या दासता के उद्देश्य से ही देखता है.
लड़कियां आज भी कोख में ही मार दी जा रही हैं, जो जन्म ले ले रही हैं उन्हें पढ़ाया लिखाया नहीं जा रहा है, जो पढ़ लिख भी ले रही हैं उन्हें आगे बढ़ने नहीं दिया जा रहा है और जो आगे बढ़ भी जा रही हैं उन्हें कदम कदम पर रुकावटों और शोषण का सामना करना पड़ रहा है.
बीते दशकों में महिलाओं की सुरक्षा और अधिकारों में बराबरी के लिए कई कानून भी लाए गए हैं लेकिन जब तक अदालतें खुद ही पितृसत्तात्मक सोच की गिरफ्त में रहेंगी तब तक किताबों में बंद कानून महिलाओं की क्या मदद कर पाएगा. कानून की विवेचना सही हो और महिलाओं को न्याय मिले यह अदालतों की बड़ी जिम्मेदारी है. उन्हें यह समझना ही होगा.
जब जज भी न समझें
शायद सुप्रीम कोर्ट इस मामले में हस्तक्षेप कर सके और निचली अदालतों को कानून फिर से समझा सके. लेकिन सिर्फ इससे काम नहीं चलेगा. जज एस कृष्ण कुमार इस तरह के पहले जज नहीं हैं जिनके फैसले से महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को धक्का लगा हो. ऐसे फैसले और टिप्पणियां आए दिन आते रहते हैं.
बॉम्बे हाई कोर्ट का 'स्किन-टू-स्किन' फैसला याद कीजिए जिसमें न्यायमूर्ति पुष्प गनेड़ीवाला ने फैसला दिया था कि कपड़ों के ऊपर से किए गए स्पर्श को सेक्सुअल असॉल्ट नहीं माना जाएगा. फैसले का काफी विरोध हुआ था.
ऐसे और भी कई फैसले हैं जो दिखाते हैं कि जजों को महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों का संदर्भ समझाए जाने की जरूरत है और यह बताए जाने की भी कि मीलॉर्ड, यौन शोषण से बचने का कोई ड्रेस कोड नहीं है.