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बिहार में क्यों मरे सबसे ज्यादा डॉक्टर

मनीष कुमार, पटना
१५ नवम्बर २०२१

कोरोना महामारी की दोनों लहरों में बिहार में करीब सौ चिकित्सकों की जान चली गई, जो देश के किसी भी राज्य से ज्यादा है. ऐसी कौन सी परिस्थितियां थीं जिनकी वजह से उन्हें बचाया नहीं जा सका और वे काल के गाल में समा गए?

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तस्वीर: DW/M. Kumar

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के अनुसार कोरोना की दोनों लहरों में देशभर में 280 डॉक्टरों की मौत हुई. जान गंवाने वालों में अधिकतर 50 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के थे. जानकारी के मुताबिक इनमें सबसे ज्यादा मौतें बिहार में हुईं जहां पहली लहर में 39 तथा दूसरी लहर के दौरान करीब 90 चिकित्सकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.

इसके बाद उत्तर प्रदेश और फिर दिल्ली में चिकित्सकों की मौत हुई. आईएमए के अनुसार कोरोना की दूसरी लहर डॉक्टरों पर ज्यादा भारी पड़ी. पहली लहर में कम मौतें हुईं, किंतु दूसरी लहर में संख्या तेजी से बढ़ गई. अधिकतर मौतें एक मार्च से 19 मई के बीच हुईं. इसका कारण जानने के लिए आइएमए की बिहार शाखा ने एक टीम बनाई.

तस्वीरों मेंः बिहार को खास बनाने वाली बातें

इस टीम के मुखिया प्रख्यात चिकित्सक डॉ. सहजानंद प्रसाद सिंह बनाए गए तथा डॉ. अजय कुमार इसके संयोजक हैं. बिहार शाखा कोरोना काल में मरने वाले एक-एक चिकित्सकों के बारे में जानकारी जुटा रही है. यह टीम मौत का कारण जानने की कोशिश तो कर ही रही है, साथ ही यह भी जानने का प्रयास कर रही है कि बिहार में अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक चिकित्सकों की मौत क्यों हुई. जैसे कि कोरोना संक्रमितों के इलाज के दौरान सरकार द्वारा दिए गए संसाधन में तो कोई कमी नहीं रह गई. जब डॉक्टर संक्रमित हुए तो उनके इलाज में कोताही तो नहीं की गई या फिर उन्हें ऑक्सीजन या बेड की व्यवस्था करने में परेशानी तो नहीं हुई.

डॉक्टरों को भी नहीं मिली ऑक्सीजन

आईएमए की जांच में इस संबंध में चौंकाने वाली जानकारी सामने आई है. सर्वप्रथम तो चिकित्सकों को भी गंभीर हालत में ऑक्सीजन तथा बेड के लिए आम लोगों की तरह भटकना पड़ा. यह भी पता चला कि दूसरी लहर में कुछ डॉक्टरों ने कोविड प्रोटोकॉल का जमकर उल्लंघन करते हुए चिकित्सा के दौरान लापरवाही बरती. इलाज के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग को लेकर भी डॉक्टर सख्त नहीं रहे.

एक अन्य जानकारी यह भी सामने आई कि कोरोना ड्यूटी में सरकार ने चिकित्सकों की उम्र का ख्याल नहीं रखा. अधिकतर उम्रदराज थे तथा वे म्यूटेट कर रहे वायरस के नए वेरिएंट के खतरे से भी वाकिफ नहीं थे. इसके अलावा इन्हें दिए गए सुरक्षा उपकरण यथा, मास्क व पीपीई किट की गुणवत्ता भी मापदंड के अनुरूप नहीं थी.

आईएमए की जांच चल रही है. अंतिम रिपोर्ट में इन वजहों की विस्तार से चर्चा की जाएगी. डॉ. अजय कुमार कहते हैं, ‘‘कोरोना के पहले फेज में हमलोग पूरी तरह तैयार नहीं थे, वहीं सेकंड फेज में चिकित्सक थोड़े निश्चिंत भी हो गए. पीपीई किट पहन कर जिन्होंने इलाज नहीं किया, उनमें मरने वालों की संख्या ज्यादा है. इसी तरह प्राइवेट चिकित्सकों में मौतों की संख्या सरकारी डॉक्टरों से ज्यादा है. प्राइवेट चिकित्सक अधिकतर मास्क पर निर्भर रहे.''

कर्जे में डूबी दिल्ली के सेक्स वर्कर

 पहले फेज में पीपीई किट की कमी थी तो दूसरे फेज में इसकी क्वॉलिटी की समस्या थी. वहीं 60 से अधिक उम्र के चिकित्सकों को काम नहीं करना था, किंतु सरकार ने भी इन से ड्यूटी लेने से परहेज नहीं किया, प्राइवेट डॉक्टर भी काम करते रहे. समझा जाता है कि आईएमए की यह कमेटी पटना में आयोजित होने वाले अपने राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद दिसंबर के आखिरी या फिर जनवरी के पहले सप्ताह में अपनी रिपोर्ट जारी करेगी.

काम का अत्यधिक दबाव

आईएमए के नेशनल प्रेसिडेंट डॉ. सहजानंद प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘‘इलाज के क्रम में चिकित्सक संक्रमित मरीजों के संपर्क में आए. अगर वे भी संक्रमित हो गए तो उनमें वायरल लोड काफी अधिक हो गया. इससे उनकी स्थिति अपेक्षाकृत जल्द खराब हुई.''

उनका मानना है कि देशभर के चिकित्सक अपने कर्तव्य के प्रति काफी जवाबदेह व समर्पित हैं. किंतु बिहार के डॉक्टर थोड़े भावुक हैं और मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी के बीच विपरीत परिस्थितियों में भी काम करते रहे हैं. शायद यही वजह रही कि महामारी की दूसरी लहर के दौरान भी प्रदेश में सभी क्लीनिक खुले रहे.
जानकारी के मुताबिक राज्य में करीब तीस हजार रजिस्टर्ड चिकित्सक हैं जिनमें 18,000 सरकारी अस्पतालों में तथा शेष निजी क्षेत्र में काम करते हैं. बिहार की जनसंख्या 12.5 करोड़ है. राष्ट्रीय स्तर पर प्रति एक हजार की आबादी पर 1.4 चिकित्सक का अनुपात है, वहीं बिहार में 2400 लोगों पर एक चिकित्सक है.

कोरोना के ऊपर से स्मॉग की मार

आईएमए की बिहार शाखा के कार्यवाहक अध्यक्ष डॉ. अजय कुमार का कहना था, ‘‘कमी के कारण चिकित्सकों पर काम का अत्यधिक दबाव पड़ा. महामारी के दौरान संक्रमितों की भारी संख्या के कारण लगभग साल भर तक उन्हें आराम का मौका नहीं मिला. इससे उनकी खुद की इम्युनिटी पर बुरा असर पड़ा. कई मामलों में जब वे स्वयं संक्रमित हुए तो उनकी स्थिति अपेक्षाकृत ज्यादा खराब हो गई जिससे उनकी मौत हो गई.''

जानकारों का यह भी मानना है कि उन डॉक्टरों के लिए स्थिति अपेक्षाकृत ज्यादा अच्छी रही जो सरकारी अस्पतालों में कार्यरत थे. परेशानी उन्हें अधिक हुई जो प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे थे. संक्रमित होने की स्थिति में उन्हें आमलोगों की तरह परेशान होना पड़ा. फिर उम्रदराज होने के कारण भी उन पर कोरोना का असर जल्द और ज्यादा हुआ.
उठते रहे हैं सवाल
कोरोना लहर के दौरान चिकित्सकों की मौत पर इस बात पर बहस होती रही है कि आखिर डॉक्टरों को जब संक्रमण का शिकार होने से बचाया नहीं जा सका है तो आम आदमी का इलाज कैसे होगा.

आईएमए की बिहार शाखा के पूर्व अध्यक्ष डॉ. एस.एन.सिंह ने उस दौरान चिकित्सकों की मौत का कारण संसाधनों की कमी तथा ओवरड्यूटी को बताते हुए कहा था डॉक्टरों की कमी के कारण उस दौरान उन पर काम का अत्यधिक दबाव था. कोविड के लिए विशेष रूप से नियुक्त अस्पताल एनएमसीएच (नालंदा मेडिकल कॉलेज अस्पताल) के जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन (जेडीए) के अध्यक्ष डॉ. रामचंद्र ने भी कहा था कि ड्यूटी के दौरान संक्रमितों के सीधे संपर्क में आने वाले चिकित्सकों की सुरक्षा पर सरकार का विशेष ध्यान नहीं था.

वहीं जेडीए के ही डॉ. देवांशु ने डॉक्टरों को दिए जाने वाले मास्क को संक्रमण का कारण बताते हुए कहा था कि मास्क तो एन-95 दिया जा रहा है किंतु उसमें नोज क्लिप नहीं लगी थी केवल डिजाइन बना हुआ है, उसकी मेटल गायब थी जिससे संक्रमण का खतरा बना रहता था. डॉ. देवांशु के मुताबिक इसके नहीं होने से नाक के पास गैप हो जाता है, जिससे संक्रमण को रोकना मुश्किल है. उन्होंने कहा, "जब नाक ही संक्रमण से सुरक्षित नहीं रहेगा तो पीपीई किट का कोई मतलब नहीं रह जाता है.”

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