स्टालिनग्राद की लड़ाई को यूक्रेन हमले से जोड़ रहा है रूस
३ फ़रवरी २०२३द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, नाजी जर्मन सेना वेयरमाख्त का इरादा औद्योगिक शहर स्टालिनग्राद को जीतने का था. शहर का नाम सोवियत संघ के तत्कालीन नेता जोसेफ स्टालिन के नाम पर रखा गया था. इस शहर को जीतने के बाद नाजी सेना का अगला लक्ष्य कॉकेशस तेल क्षेत्र पर कब्जा जमाना था. शहर के नाम को देखते हुए अडोल्फ हिटलर और जोसेफ स्टालिन, दोनों के लिए स्टालिनग्राद की लड़ाई प्रतीकात्मक तौर पर इतनी महत्वपूर्ण बन गई थी कि जिसने कूटनीतिक तौर पर इसका महत्व बढ़ा दिया.
हालांकि, स्टालिनग्राद पर जर्मनी की सेना के छठे कोर का हमला शुरू से ही जोखिम भरा था. वजह यह थी कि यहां पर युद्ध से जुड़े सामानों की आपूर्ति के लिए सेना को लंबी दूरी तय करनी पड़ती थी. नाजी जर्मनी द्वारा पहली बार सोवियत संघ पर हमला करने के लगभग एक साल बाद, जनरल फ्रेडरिक पॉलुस के नेतृत्व में वेयरमाख्त ने अगस्त 1942 के मध्य में स्टालिनग्राद पर हमला किया था. इसके बाद हिटलर ने दावा किया था, "रूसी थक चुके हैं.” हिटलर की यह सोच पूरी तरह गलत साबित हुई.
कड़े संघर्ष के बावजूद, वेयरमाख्त नवंबर 1942 के मध्य तक स्टालिनग्राद के अधिकांश इलाकों को जीतने में सफल रहा. हालांकि, इस समय तक सोवियत सेना ने जर्मन सैनिकों को घेरने के लिए दोतरफा हमला शुरू कर दिया था. नवंबर के अंत में, रेड आर्मी ने जर्मनी की छठी सेना और चौथी टैंक ब्रिगेड के करीब तीन लाख जर्मन सैनिकों को घेर लिया था. इसके बावजूद हिटलर का आदेश था कि वे अपनी जगह पर डटे रहें. इसी तरह, स्टालिन ने भी जुलाई में अपनी सेना से कहा था कि वे ‘अपनी जगह से एक इंच भी न हिलें.'
दोनों तरफ के सैनिक अपनी जगहों पर डटे रहे और जल्द ही चौतरफा घिर चुकी जर्मन सेना की स्थिति बिगड़ने लगी. कई हफ्तों तक जर्मन हवाई सेना लुफ्टवाफे ने जरूरी सामानों की आपूर्ति करने का प्रयास किया, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था. जैसे-जैसे सोवियत संघ की रेड आर्मी आगे बढ़ती गई, जर्मन सेना तक आपूर्ति कम होने लगी. फिर सर्दी आ गई. तापमान लुढ़ककर -30 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया. नतीजा ये हुआ कि जर्मनी के कई सैनिक लड़ाई में नहीं, बल्कि भूख और हाइपोथर्मिया की वजह से मर गए.
जर्मन सैनिकों का आत्मसमर्पण
जर्मन सेना ने अपने सैनिकों को बचाने के लिए राहत अभियान चलाने की कोशिश की, लेकिन यह प्रयास सफल नहीं हुआ. इन विकट परिस्थितियों के बावजूद, जनरल पॉलुस ने 8 जनवरी, 1943 को आत्मसमर्पण करने के सोवियत संघ के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और हिटलर के ‘डटे रहने और लड़ने' के आदेश का पालन किया. 29 जनवरी को पॉलुस ने हिटलर को संदेश भेजा, "सत्ता पर आसीन होने की 10वीं वर्षगांठ मुबारक हो. जर्मनी की छठी सेना अपने नेता (फ्यूरर) का अभिवादन करती है. स्वस्तिक झंडा अभी भी स्टालिनग्राद के ऊपर लहरा रहा है... मेरे फ्यूरर की जय हो!”
दरअसल, 30 जनवरी नाजी कैलेंडर का काफी महत्वपूर्ण दिन था. 30 जनवरी, 1933 को हिटलर सत्ता में आया था. यह दिन नाजी शासनकाल में काफी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता था. हालांकि, 31 जनवरी को रेड आर्मी ने एक डिपार्टमेंटल स्टोर के नीचे तहखाने में स्थित पॉलुस के मुख्यालय पर धावा बोलकर उसे जिंदा पकड़ लिया. उस समय पॉलुस ने अपने अधिकारियों को कैद से बचने के लिए आत्महत्या करने से मना कर दिया था, ताकि वे भी दूसरे जर्मन सैनिकों की तरह कैद में रहें.
इस दौरान, घिरे हुए जर्मन सैनिक दो टुकड़ी में बंटकर अलग-अलग शिविरों में रह रहे थे, एक उत्तरी स्टालिनग्राद में और दूसरा दक्षिण में. जनवरी के अंत तक, दक्षिणी हिस्से के सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया. 2 फरवरी, 1943 तक उत्तरी हिस्से के सैनिकों ने भी आत्मसमर्पण कर दिया. जब यह बात हिटलर को पता चली, तो वह आगबबूला हो गया.
लड़ाई में लाखों लोगों की मौत
स्टालिनग्राद की लड़ाई में सोवियत संघ के पांच लाख से ज्यादा लोग मारे गए. इनमें सैनिकों के साथ-साथ सामान्य नागरिक भी शामिल थे. इसकी वजह यह थी कि स्टालिन ने युद्ध क्षेत्र से आम नागरिकों को सुरक्षित जगहों पर नहीं भेजा था. लड़ाई के शुरुआती दिनों में जर्मन हवाई हमलों में 40 हजार से अधिक लोग मारे गए. जर्मनी के आत्मसमर्पण तक स्टालिनग्राद में रहने वाले करीब 75 हजार नागरिकों में कई भूख और हाइपोथर्मिया से मर गए.
वहीं, दूसरी ओर स्टालिनग्राद में 1,50,000 से लेकर 2,50,000 जर्मन मारे गए. युद्ध बंदियों के तौर पर सोवियत संघ में कैद किए गए 1,00,000 जर्मन में से महज 6,000 ही 1956 तक वापस जर्मनी लौटे. उनमें जनरल पॉलुस भी शामिल थे.
न्यूजर्सी के रटगर्स विश्वविद्यालय के इतिहासकार योखेन हेलबेक ने बताया कि नाजी जर्मन सेना वेयरमाख्त के लिए, स्टालिनग्राद की लड़ाई वह लड़ाई नहीं थी जिसमें सबसे ज्यादा लोग मारे गए और न ही इसका काफी ज्यादा कूटनीतिक महत्व था, लेकिन स्टालिनग्राद का मनोवैज्ञानिक प्रभाव काफी ज्यादा था. यही वजह थी कि इसने इस युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई. उनके अनुसार, "यह युद्ध इसलिए महत्वपूर्ण हो गया था, क्योंकि दोनों पक्षों ने इसे महत्वपूर्ण घोषित किया था.”
युद्ध के बाद रूसी प्रचार
स्टालिनग्राद की लड़ाई, जिसमें सोवियत संघ की जीत हुई वह मिथक बन गई. दूसरे शब्दों में कहें, तो पौराणिक कथा बन गई. लंबे समय तक दुनिया की सबसे मजबूत सेना मानी जाने वाली नाजी जर्मनी की सेना को निर्णायक हार का सामना करना पड़ा. आज एक बार फिर रूस यूक्रेन के खिलाफ चल रहे युद्ध में इस मिथक का सहारा ले रहा है. महीनों से रूस यूक्रेन के खिलाफ अपने हमले को सही ठहराते हुए कह रहा है कि यह एक बार फिर से ‘नाजियों' के खिलाफ छेड़ा गया युद्ध है.
रूसी राष्ट्रपति पुतिन यह इलजाम लगा रहे हैं कि यूक्रेनी सरकार पूर्वी यूक्रेन में रूसी भाषा बोलने वाली आबादी को खत्म करने की योजना बना रही है. हमले का आदेश देते समय पुतिन ने यह घोषणा की थी कि वह यूक्रेन को ‘नाजियों के प्रभाव से मुक्त' करेंगे. यूक्रेन के मौजूदा नेतृत्व पर ‘नाजी का लेबल' लगाना पुतिन के लिए युद्ध शुरू करने का एकमात्र बहाना माना जा सकता है.
उन्होंने आज और 80 साल पहले की स्थिति के बीच की जिस समानता की बात कही है वह ऐतिहासिक रूप से मेल नहीं खाती है. 1941 में नाजी सैनिकों ने सोवियत संघ पर हमला किया था और सोवियत ने अपनी आत्मरक्षा में वह लड़ाई लड़ी थी. जबकि 2022 की स्थिति बिल्कुल अलग है. इस बार रूस ने बिना किसी धमकी के पड़ोसी देश यूक्रेन पर हमला किया है.
स्टालिन का नया मूल्यांकन
वोल्गोग्राद में स्टालिनग्राद संग्रहालय भी पुतिन की कहानी में एक भूमिका निभाता है. यह रूस की सबसे लोकप्रिय पर्यटन जगहों में से एक है. फिलहाल, इस जगह पर यूक्रेन में मारे गए रूसी सैनिकों के परिवारों के लिए समारोह आयोजित किए जाते हैं. यहां रूसी रक्षा मंत्रालय की ओर से देशभक्त युवा आर्मी नामक एक समारोह का आयोजन भी किया गया जिसमें बच्चों को ‘स्टालिनग्राद के विजेताओं के वंशज' के तौर पर सराहा गया.
वोल्गोग्राद के प्रसिद्ध युद्ध स्मारक भी ऐसे लोकप्रिय स्थान बन गए हैं जहां रूसी सैनिक यूक्रेन जाते समय इकट्ठा होते हैं. रूस और यूक्रेन का अतीत कितना अलग दिखता है, यह जोसेफ स्टालिन के व्यक्तित्व के मूल्यांकन से भी स्पष्ट होता है. स्टालिनग्राद की लड़ाई की 80वीं वर्षगांठ पर वोल्गोग्राद में सोवियत संघ के पूर्व तानाशाह की एक नई प्रतिमा का अनावरण किया गया है. जबकि 1960 में स्टालिन की मृत्यु के बाद शहर का नाम बदलकर उन लाखों लोगों के सम्मान में वोल्गोग्राद रखा गया था, जिन्होंने स्टालिन के क्रूर शासन के दौरान अपनी जान गंवाई थी.
यूक्रेन में स्टालिन को ‘होलोडोमोर (भूख से मारना)' के लिए याद किया जाता है. 1932 और 1933 में सिर्फ यूक्रेन में 40 लाख लोग अकाल का शिकार हुए थे. इतिहासकारों का दावा है कि यूक्रेन के किसानों की एकता को तोड़ने के लिए यह अकाल जान-बूझकर पैदा किया गया था.
जर्मन और रूसी सैनिकों का कब्रिस्तान
वर्ष 2022 में जर्मन बुंडेस्टाग और यूरोपीय संसद दोनों ने होलोडोमोर को नरसंहार के तौर पर मान्यता दी. इस पर रूस ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. रूसी विदेश मंत्रालय ने कहा था, "बुंडेस्टाग के सदस्यों ने उस राजनीतिक और वैचारिक मिथक का समर्थन करने का फैसला किया जिसे यूक्रेनी अधिकारियों ने अति-राष्ट्रवादी, नाजी और रूस के खिलाफ काम करने वाली ताकतों की शह पर गढ़ा है.”
आज भी वोल्गोग्राद और उसके आसपास के इलाकों में निर्माण कार्यों के दौरान लाशों के अवशेष और सामूहिक कब्रिस्तान मिलते हैं. जर्मन वॉर ग्रेव्स कमीशन और रूसी अधिकारियों के सहयोग से अवशेषों को वोल्गोग्राद के बाहर रोसोस्का जैसे आधिकारिक सैन्य कब्रगाहों में दफन कर दिया जाता है.
यहां नाजी जर्मन सेना वेयरमाख्त के सैनिकों और रेड आर्मी के सैनिकों को एक ही कब्रिस्तान में दफनाया गया है. हालांकि, दोनों के बीच लकीर के तौर पर एक सड़क बना दी गई है, ताकि यह फर्क किया जा सके कि कहां पर किसे दफनाया गया है.