न्याय-व्यवस्था के लिए चुनौती बन गई है एआई
१३ मार्च २०२४2023 में अमेरिका के न्यूयॉर्क की अदालत में एक मामला आया. माटा बनाम एविआंका नाम से जाने जाने वाले इस केस में एक पक्ष के वकीलों ने जो हलफनामे पेश किए वे चैटजीपीटी पर रिसर्च करके निकाले गए थे. शायद वकीलों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि चैटजीपीटी अक्सर मनगढ़ंत तथ्य भी रिसर्च के रूप में पेश कर देता है.
वकीलों ने जिन मामलों का हवाला दिया था, असल में वे कभी हुए ही नहीं थे बल्कि चैटजीपीटी ने अपने मन से बना लिए थे. इस गलती को पकड़ लिया गया और नतीजा विनाशकारी हुआ. ना सिर्फ जज ने उनके पक्ष का मामला खारिज कर दिया बल्कि वकीलों पर भी बेइमानी से काम करने के लिए प्रतिबंध लगा दिया. उन पर और उनकी फर्म पर भी जुर्माना किया गया.
यह अकेला ऐसा मामला नहीं है जबकि वकीलों को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की रिसर्च के आधार पर फर्जी मामले पेश करते हुए पकड़ा गया है. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के वकील रहे माइकल कोहेन पर जब मुकदमा चला तो उन्होंने अपने वकीलों को गूगल बार्ड से पुराने केस निकालकर दे दिए.
उन्हें लगा था कि वे असली केस थे और उन्हें यह भी भरोसा था कि उनका वकील भी एक बार फिर से सब कुछ जांच लेगा. लेकिन उनके वकील ने ऐसा नहीं किया और संघीय अदालत में उन मामलों को पेश कर दिया.
न्याय-व्यवस्था के लिए चिंता
कनाडा और ब्रिटेन में भी ऐसे कई मामले उजागर हो चुके हैं. इस वजह से कानूनविदों में चिंता है कि एआई कानून-व्यवस्था के लिए खतरनाक साबित हो सकती है और इस पर किसी तरह का नियंत्रण होना चाहिए.
ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्व विद्यालय में कानून पढ़ाने वाले प्रोफेसर माइकल लेग और रिसर्च एसोसिएट विकी मैकनमारा ने कन्वर्सेशन पत्रिका में एक लेख में लिखा है, "अगर ऐसा ही चलता रहा तो कैसे सुनिश्चित होगा कि जेनरेटिव एआई का लापरवाही भरा इस्तेमाल कानून-व्यवस्था में लोगों के भरोसे को तोड़ नहीं देगा? वकीलों का बार-बार लापरवाही भरा व्यवहार ना सिर्फ अदालतों को गुमराह कर सकता है और वहां (मुकदमों की) भीड़ लगा सकता है बल्कि वकीलों के पक्ष के लिए भी हानिकारक है और न्याय-व्यवस्था का अपमान भी है.”
जेनरेटिव एआई के उभार के बाद कानून के पेशे में बड़े बदलावों की आहट पिछले कुछ समय से सुनाई दे रही है. इन बदलावों को आमतौर पर सकारात्मक और जनता के हक में ही माना जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र की संस्था युनेस्को के मुताबिक दुनियाभर में न्याय-व्यवस्थाएं एआई का इस्तेमाल कानूनी डेटा का विश्लेषण करने में कर रही हैं.
दुनियाभर में इस्तेमाल
युनेस्को कहती है, "एआई का इस्तेमाल भारी-भरकम कानूनी डेटा के विश्लेषण के जरिए वकीलों की मदद में हो रहा है, जिससे वे कानूनी मिसालें निकाल सकते हैं. प्रशासन को भी प्रक्रिया को व्यवस्थित करने में मदद मिल रही है. साथ ही जजों को भी मामलों पर अनुमान लगाने में सहायता हो रही है.”
भारत में 2021 से ही सुप्रीम कोर्ट में एआई-नियंत्रित टूल का इस्तेमाल हो रहा है जो सूचनाओं को जमा करने में जजों की मदद करता है. हालांकि इसका इस्तेमाल फैसले देने की प्रक्रिया में नहीं होता है. ज्यादातर टूल सहायक हैं, मसलन सुप्रीम कोर्ट विधिक अनुवाद सॉफ्टवेयर (SUVAS) जो अंग्रेजी में लिखे गए दस्तावेजों का हिंदी और अन्य भाषाओं में अनुवाद करता है.
हालांकि जजों ने फैसले देने में भी चैटजीपीटी जैसे एआई टूल्स की मदद ली है. जसविंदर सिंह बनाम पंजाब मामले में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने एक मामले में आरोपी की जमानत याचिका तब खारिज कर दी थी जब प्रतिपक्ष के वकीलों ने आरोप लगाया कि आरोपी एक हत्या में बेहद क्रूरता से शामिल था.
उस मामले के जज ने चैटजीपीटी से यह समझना चाहा कि जब किसी मामले में क्रूरता शामिल हो तो जमानत पर क्या रवैया होना चाहिए. हालांकि यह स्पष्ट किया गया कि चैटजीपीटी की भूमिका मात्र मामले का विस्तृत पक्ष समझने में थी.
लेकिन युनेस्को चेतावनी भी देती है कि लीगल एनालिटिक्स और अनुमानित न्याय का उभार मानवाधिकारों के लिए खतरनाक हो सकता है क्योंकि एआई की अपारदर्शिता स्वतंत्र न्याय के मूल सिद्धांतों, प्रक्रिया और न्याय-व्यवस्था और के खिलाफ काम कर सकती है.
ठोस कदमों की जरूरत
दरअसल, न्यायविदों की चिंता है कि एआई के साथ अभी बहुत सी चुनौतियां हैं, मसलन वे एक खास तरह के चलन को पकड़ने के लिए डिजाइन किए गए सिस्टम हैं. एआई आधारित एल्गोरिदम में कई तरह के भेदभाव होने का खतरा रहता है और यह पूरी तरह पारदर्शी भी नहीं है.
यही वजह है कि विभिन्न देशों की सरकारें और न्यायिक प्रशासन ऐसे नियम बना रहे हैं, जिनसे एआई का सुरक्षित इस्तेमाल सुनिश्चित किया जा सके. मसलन, यूरोपीय संघ ने ऐसे कानून लागू किए हैं जो आपराधिक मामलों में एआई के इस्तेमाल की सीमाएं तय करते हैं.
अमेरिका में कई राज्यों की अदालतों और वकील संगठनों ने एआई के इस्तेमाल को लेकर दिशा-निर्देश जारी किए हैं. इनमें से कुछ ने तो एआई का इस्तेमाल पूरी तरह प्रतिबंधित भी कर दिया है. ब्रिटेन और न्यूजीलैंड में भी वकीलों की संस्थाओं ने ऐसे ही कदम उठाए हैं.
प्रोफेसर माइकल लेग और रिसर्च एसोसिएट विकी मैकनमारा कहते हैं कि एक ठोस रुख की जरूरत है. वे कहते हैं, "जो वकील एआई का इस्तेमाल करते हैं वे अपनी समझ के विकल्प के तौर पर इसे इस्तेमाल नहीं कर सकते और उन्हें सूचनाओं की तथ्यात्मकता और सत्यता को दोबारा जांचना ही होगा.”