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'विज्ञान से लोगों की सेवा करूंगा'

२८ जून २०१३

पैनी आंखों वाले स्नेहल विश्वास शर्मा हनोवर के मेडिकल स्कूल में रिसर्चर हैं. वह जेनेटिक्स के विशेषज्ञ हैं और पता लगा रहे हैं कि शरीर में कौन से जीन कौन सी एलर्जी के कारक हैं.

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तस्वीर: Chandrajit Basu

इलाहबाद में पैदा हुए विश्वास ने विज्ञान में मास्टर्स जौनपूर के पूर्वांचल विश्वविद्यालय से किया. आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने हैदराबाद की ओर कदम बढ़ाया. यहां उन्होंने अपनी रिसर्च कोशिकीय और जीवविज्ञान आण्विक केंद्र में की. यहां उन्हें पद्मश्री डॉ लालजी सिंह के साथ काम करने का मौका मिला. पेश हैं उनसे बातचीत के कुछ अंश.

डॉयचे वेले: हनोवर में आपके रिसर्च का विषय क्या है?

विश्वास शर्माः आम भाषा में अगर कहूं तो मैं एलर्जी पर शोध कर रहा हूं. एलर्जी कई तरह से हो सकती है. लेकिन इसके लिए जिम्मेदार होता है इम्यूनोग्लोबिन एनटीबॉडी. 2010 में हमारे टीचर और दूसरे साथियों ने होल जिनोम सिक्वेंसिंग किया. यानी पूरे जीन को सिक्वेंस में लाकर यह बताया कि इसमें कौन से म्यूटेशन या पॉलिफॉर्फिज्म होते हैं. इन्हीं के कारण ये जटिल बीमारियां होती हैं. मैं और सूक्ष्म अध्ययन कर रहा हूं कि कौन से जीन कौन सी एलर्जी के लिए जिम्मेदार होते हैं.

यानी आपके अध्ययन से पता चल सकेगा कि कौन सी एलर्जी किस कारण होती है?

हां, देखिए जटिल बीमारियों में कई जीन्स काम करते हैं. इनका पता लगाना मुश्किल होता है और इसलिए एलर्जी का कोई इलाज भी नहीं है. अब जैसे समंदर है तो हम इसका पानी तो इकट्ठा नहीं कर सकते. लेकिन दो चार बूंद जरूर ले सकते हैं. तो जो बूंदे यानी जीन्स हमें मिले हैं, हो सकता है कि इनमें से कुछ एलर्जी का कारण हों. तो और फाइन मैपिंग करके हम पता लगाते हैं कि एलर्जी में जीन्स कैसे जिम्मेदार हो सकते हैं. आने वाले सालों में सफलता की हमें पूरी उम्मीद है.

शोधकर्ता बनने के पीछे आपका क्या उद्देश्य रहा. आप किसी कंपनी में काम कर सकते थे या कहीं पढ़ा भी सकते थे.

ऐसा नहीं है कि मैंने ऐसा नहीं सोचा कि मुझे पीएचडी करके प्रोफेसर बनना है या करियर में आगे जाना है. सब सोचा लेकिन मुझे शोध करना अच्छा लगता है, इसलिए मैंने ये रास्ता चुना. मुझे लगता है कि ईश्वर ने मुझे ज्ञान दिया, जिसके कारण मैं इतनी पढ़ाई कर सका. तो अगर मैं विज्ञान के जरिए मानव सेवा कर सकूं तो जरूर करूंगा.

भारत से जब आप जर्मनी आए तो आपकी फील्ड में क्या था जो आपको बिलकुल अलग लगा?

हैदराबाद में जहां मैं शोध कर रहा था वह सिर्फ शोध संस्थान था. उससे अस्पताल जुड़ा हुआ नहीं था. और जिस विषय में मैं शोध करना चाहता था वह मेडिकल से जुड़ा हुआ था. इसलिए मुझे ऐसे संस्थान की जरूरत थी जहां शोध और मेडिकल स्कूल साथ साथ हों. तभी मैं अच्छे से रिसर्च कर सकता था. हनोवर का मेडिकल स्कूल दुनिया के कुछ संस्थाओं में से है जहां अस्पताल भी है और रिसर्च की सारी सुविधाएं भी. इसलिए मैं हनोवर पहुंचा.

युवा शोधकर्ताओं या स्नातक के छात्र जो बायोटेक या जेनेटिक्स में शोध करना चाहते हैं, उन्हें आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

भारत में छोटे शहरों में बुद्धिमान लोग बहुत हैं, ज्ञान की कोई कमी नहीं है, लेकिन समस्या यह है कि वे जानते नहीं कि जाना कहां है और कैसे जाना है. मैं अपने अनुभव से यह बात कह सकता हूं. इंटरनेट बहुत अच्छा माध्यम है. अंतरराष्ट्रीय स्कॉलरशिप पर ध्यान देना चाहिए. उनके बारे में जानकारी ध्यान से पढ़नी चाहिए. हर देश की स्कॉलरशिप है. जापान की जीएसपीएस है. जर्मनी की डीएएडी है. मेरी क्यूरी स्कॉलरशिप हैं. तो कुछ छात्रवृत्तियों के बारे में पढ़ें. इससे बहुत मदद मिलती है.

आपने बताया कि आप बनारस, इलाहबाद, हैदराबाद से जुड़े रहे हैं. भारत के इन बड़े शहरों के बाद जर्मनी का हनोवर, कैसा अनुभव था?

बनारस की गंगा से मुझे बहुत लगाव है. वो मैं मिस करता हूं. मां और परिवार भी बहुत याद आता है. बनारस के कुछ व्यंजनों को मैं मिस करता हूं.

आपका लक्ष्य क्या है, क्या सपना है?

अगर मैं जिंदगी में मानव सुधार के लिए कुछ कर सका, तो मेरी जिंदगी का सपना, उम्मीदें पूरी हो जाएंगी.

इंटरव्यूः आभा मोंढे

संपादनः ईशा भाटिया

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