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समाज

राफाल डील में क्या रिलायंस है विवाद की जड़?

विनम्रता चतुर्वेदी
१४ सितम्बर २०१८

मोदी सरकार ने जब 36 विमानों के लिए नया समझौता किया तो उनके जेहन में शायद जल्दी से एक बड़े सौदे को पूरा करने की बात थी. इस जल्दबाजी में उन्होंने पुराने सौदे के कुछ फायदों की अनदेखी की. शायद यही अनदेखी अब भारी पड़ रही है.

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Flugzeug Dassault Rafale
तस्वीर: picture-alliance/dpa

रक्षा विशेषज्ञ और विपक्षी दल सवाल उठा रहे हैं कि राफाल समझौते में कीमत कितनी चुकाई गई से बड़ा मुद्दा यह है कि जब 126 विमानों की जरूरत थी तो 36 क्यों खरीदे गए? वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा ने भी यह बात उठाई है कि भारत को 42 स्क्वाड्रन (756 विमान) की जरूरत है और बड़ी संख्या में जहाज रिटायर हो रहे, ऐसे में 126 की जगह 36 विमानों को इतनी ज्यादा कीमत पर खरीदना सवाल खड़े करता है.

हालांकि कुछ लोग इससे असहमत हैं. रिटायर्ड मेजर जनरल जीडी बख्शी ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, ''भारतीय वायुसेना आपातकालीन स्थिति से भी बुरे दौर से गुजर रही है. हमें 36 जहाज मिल गए और यह राहत की बात है.'' विमान की कीमत पर जनरल बख्शी का कहना है कि हमें ये जहाज साजोसमान के साथ मिल रहे हैं और वक्त के साथ कीमत बढ़ती है.   

'मेक इन इंडिया' को झटका

मनमोहन सरकार के समय जिस राफाल डील पर बातचीत चल रही थी, उसमें सरकारी कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को 108 जहाज भारत में बनाने थे. तकनीक भारत के पास आती तो भारत के लिए कई लिहाज से फायदा होता. नई डील में सारे जहाज सीधे फ्रांस में बनकर आएंगे, ऐसे में भारतीय कंपनी के पास नई तकनीक को सीखने का मौका हाथ से निकल गया. रक्षा विशेषज्ञ अजय शुक्ला सरकार के इस कदम को सरकार की मेक इन इंडिया मुहिम के विपरीत बताते हैं. वह कहते हैं कि मोदी सरकार का राफाल समझौता दरअसल मेक इन फ्रांस है और भारत को राफाल जहाज की हर जरूरत के लिए फ्रांस पर निर्भर रहना पड़ेगा.

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रिलायंस के साथ साठगांठ

इस मामले में एक बड़ा सवाल रिलायंस और दासो एविएशन के बीच हुए समझौते के कारण भी उठा है. विपक्षी पार्टियां खासतौर से कांग्रेस तो इसी डील को भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी निशानी बता रही है. दासो और रिलायंस एविएशन के बीच हुई एक डील में तय हुआ है कि दासो के बनाए जाने वाले जहाजों के कुछ पार्ट्स यह कंपनी भारत में बनाएगी. गौर करने वाली बात यह है कि रिलायंस को राफाल के पार्ट्स नहीं बनाने है बल्कि दूसरे जहाजों पर काम करना है, जिसमें सिविल जहाज भी होंगे. इसके लिए महाराष्ट्र के नागपुर में एक प्लांट का भूमिपूजन भी हो चुका है.

ऐसे में सवाल उठता है कि दासो ने रिलायंस के साथ ही करार क्यों किया? वो भी तब जब कि रिलायंस इस क्षेत्र में बिल्कुल नई कंपनी है कहीं, इसके पीछे सरकार की कोई भूमिका तो नहीं? क्या राफाल के लिए जल्दबाजी में हुई डील के अंदरखाने इसके लिए भी कोई बातचीत हुई होगी?

रक्षा विशेषज्ञ राहुल बेदी का कहना है, ''अंबानी की कंपनी हाल ही में शुरू हुई है और उसे डिफेंस तो क्या एविएशन सेक्टर में कोई भी अनुभव नहीं है. ऐसे में दूसरी कंपनियों को छोड़कर दासो का अंबानी को चुनना सवाल तो खड़े करता ही है.''

हालांकि इस डील में सरकार के जरिए रिलायंस को फायदा मिलने की बात पर वह कहते हैं कि यह साबित करना बहुत मुश्किल है कि दासो-रिलायंस डील में सरकार का हस्तक्षेप रहा होगा. मोदी सरकार का कहना है कि निवेश के सौदे पैरेंट कंपनी के होते हैं और दासो ने रिलायंस को चुनता है. यह उनका विशेषाधिकार है.