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राजस्थान के अस्पतालों में जारी है नवजातों की मौत का सिलसिला

क्रिस्टीने लेनन
१ जनवरी २०२०

भारत में हर साल हजारों बच्चे अस्पताल पहुंचने के पहले ही दम तोड़ देते हैं, लेकिन हर साल सैकड़ों बच्चे ऐसे भी होते हैं जिनकी मौत अस्पताल में होती है. कोटा के एक अस्पताल में पिछले एक महीने में 91 बच्चों की जान जा चुकी है.

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Indien Lifeline Express Krankenhaus auf Schienen
अप्रैल 2018 में राजस्थान के जालौन में पहुंची लाइफलाइन एक्सप्रेस के डॉक्टर से मिलने का इंतजार करती मांएं और बच्चे.तस्वीर: Getty Images/AFP/C. Khanna

एक अनुमान के मुताबिक 2020 के पहले दिन यानी 1 जनवरी को देश में 67 हजार से अधिक बच्चों का जन्म हुआ है. इसमें से सैकड़ों बच्चे अपना पांचवां जन्मदिन मनाने के पहले ही दम तोड़ देंगे. एक दिन में सबसे ज्यादा बच्चे पैदा होने के मामले में भारत दुनिया में सबसे आगे है. वैसे, मरने वाला हर छठा बच्चा भी भारत का होता है. यूनिसेफ के अनुसार हर 53 सेकेंड में एक नवजात बच्चे की मौत हो जाती है. इसकी एक बानगी राजस्थान के कोटा में देखने को मिली हैं जहां पिछले एक महीने में 91 बच्चों की मौत अस्पताल में हुई है. इतना बड़ा आंकड़ा होने के बावजूद यह सच है कि राज्य में ऐसी मौतें कोई नई बात नहीं है.

अस्पताल खुद ही बीमार

अस्पताल में शिशुओं की मौत की मुख्य वजह सुविधाओं का अभाव है. कोटा का जेके लोन अस्पताल इससे अलग नहीं है. आसपास के क्षेत्र का प्रमुख अस्पताल होने के बावजूद वैसी सुविधाएं नहीं है जो भर्ती होने वाले सभी शिशुओं को दी जा सके. इसी के चलते यहां पिछले कई साल से इस अस्पताल में शिशुओं की मौत का सिलसिला जारी है. पिछले 3 साल में ही इस अस्पताल में 2,300 से अधिक नवजात शिशु मौत का शिकार हो गए. प्रशासन अपने बचाव में इन मौतों को सामान्य बताता है. अस्पताल प्रशासन का कहना है कि अस्पताल में हर साल 15 हजार डिलीवरी होती है, ऐसे में इतने बच्चों की मौत अधिक नहीं मानी जा सकती.

अस्पताल के शिशु रोग विभाग से जुड़े डॉ. अमृत लाल बैरवा कहते हैं कि इस अस्पताल में न केवल पूरे संभाग बल्कि मध्यप्रदेश के बच्चे भी आते हैं. अधिकतर गंभीर शिशुओं को यहीं लाया जाता है, इसके बाद भी उनमें से अधिकतर को बचा लिया जाता है. उन्होंने बताया कि अस्पताल का सेंट्रलाइज्ड ऑक्सीजन सिस्टम काम नहीं कर रहा है.जिससे इलाज में दिक्कतें आती हैं. राज्य के स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा का कहना है कि इसकी व्यवस्था के लिए काम जारी है. अस्पताल में क्षमता से अधिक बच्चों के भर्ती होने से भी परेशानी होती है. एक बेड पर दो-तीन बच्चों को रखे जाने से संक्रमण फैलने का खतरा रहता है. हालांकि रघु शर्मा इसके बचाव में तर्क देते हुए कहते हैं कि कोई बच्चा गंभीर स्थिति में अस्पताल में आ जाता है तो उसे लौटाया नहीं जा सकता और उपलब्ध संसाधनों में ही उसका इलाज करना पड़ता है.

बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी

संयुक्त राष्ट्र के शिशु मृत्युदर आंकलन के लिए बाल मृत्युदर अनुमान एजेंसी यानी यूएनआईजीएमई की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में औसतन हर दो मिनट में तीन नवजातों की मौत हो जाती है. इसका कारण पानी, स्वच्छता, उचित पोषाहार या बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी है. युनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार अगर बच्चा पैदा होने के बाद एक महीने तक जीवित रहता है तो 5 साल की आयु तक पहुंचने से पहले निमोनिया और डायरिया उसके जीवन पर खतरा पैदा करते हैं. डॉ रमा सक्सेना का कहना है कि छोटे बच्चों में निमोनिया की वजहें कुपोषण, जन्म के समय कम वजन, उचित स्तनपान न मिलना है. निमोनिया के कारण होने वाली मौत और गरीबी के बीच भी मजबूत संबंध है. स्वच्छ पेयजल का अभाव, पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल की कमी और पोषण की कमी व भीतरी वायु प्रदूषण निमोनिया के खतरे को बढ़ा देता है.

हालात तो सुधरे लेकिन नाकाफी हैं

शिशु स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भारत प्रगति कर रहा है लेकिन यह प्रगति इतनी नहीं कि हजारों बच्चों को मौत से बचाया जा सके. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश भर में 2016 में साढ़े आठ लाख से अधिक नवजात बच्चों की मौत हो गयी थी, जो 2017 में घटकर लगभग आठ लाख रह गयी. यह आंकड़ा पिछले पांच वर्ष में सबसे कम है. लेकिन दुनिया के किसी भी देश से अधिक है.

यूएनआईजीएमई रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में भारत में शिशु जन्मदर और मृत्युदर के बीच अंतर लगभग खत्म हो गया है. 1990 में भारत की शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 पर 129 थी. 2005 में यह घटकर 58 रह गयी. 2016 में 44 और 2017 में थोड़ा और घटकर 39 ही रह गयी है. अगर इसमें उल्लेखनीय सुधार करना है तो डॉक्टरों की कमी को दूर करने साथ ही मातृत्व स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना होगा.

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