भारत के हजार स्कूलों में जर्मन भाषा
७ मई २०१३चापलूसी, मान मनुहार और कठोर सौदेबाजी. भारत और जर्मनी के बीच अप्रैल 2013 में बर्लिन में हुए शिखर सम्मेलन के बारे में यही कहा जा सकता है. जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने बार बार औद्योगिक केंद्र के रूप में जर्मनी की वकालत की, भारतीय प्रधानमंत्री के साथ हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में मैर्केल रिझाने वाली के रूप में पेश हुईं और कहा, "मैं उन सब लोगों से जो यहां भारत से आए हैं कहूंगी, इस बीच जर्मनी में बहुत सारे कोर्स अंग्रेजी में पढ़ाए जाते हैं. जर्मनी में भारतीय छात्रों का बहुत स्वागत है."
इस समय जर्मनी में करीब 6,000 भारतीय छात्र पढ़ते हैं. तुलना के लिए चीन के 25,000 छात्र हैं. बहुत से लोगों के लिए जर्मन भाषा सबसे बड़ी बाधा है. और भारत का आईटी विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों और इंजीनियरों का अत्यंत कुशल वर्ग अंग्रेजी भाषी देशों को प्राथमिकता देता है, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया या कनाडा को, जहां ब्लू कार्ड जैसी यूरोपीय पहलकदमियों के बावजूद भारतीय डिग्रियों को आसानी से मान्यता मिलती है.
जर्मनी में कुशल कामगारों की कमी है. कुछ सर्वेक्षणों के मुताबिक आबादी के बहुत धीमे विकास की वजह से कुछ इलाकों में 2030 तक बहुत गंभीर स्थिति होगी, यह जर्मन अर्थव्यवस्था की कमजोर कड़ी है. जर्मन श्रम मंत्री उर्सुला फॉन डेअ लाएन ने हाल में इस बात की पुष्टि की है. खासकर गणित, इंफॉर्मैटिक्स और प्राकृतिक विज्ञान जैसे विषयों में अभी ही युवा प्रतिभाओं की कमी है.
स्कूलों का चुनाव
भारत में जर्मनी की छवि बहुत अच्छी है, यह कहना है नई दिल्ली के जर्मनी सांस्कृतिक केंद्र गोएथे इंस्टीट्यूट की पुणीत कौर का, "अच्छी क्वालिटी, इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अद्भुत उपलब्धियां, इन सबको जर्मनी के साथ जोड़ा जाता है." जर्मनी की संस्कृति में भी लोगों की दिलचस्पी है और स्वाभाविक रूप से खासकर युवाओं में जर्मन कारों के लिए.
कौर गोएथे इंस्टीट्यूट में "हजार स्कूलों में जर्मन" प्रोजेक्ट की प्रमुख हैं और उनकी जिम्मेदारी है कि 2017 तक सरकारी केंद्रीय विद्यालय की 1,000 शाखाओं में जर्मन भाषा की पढ़ाई शुरू हो. गोएथे इंस्टीट्यूट और जर्मनी का विदेश मंत्रालय इस परियोजना को मदद दे रहे हैं. हालांकि भारत के बहुत से पब्लिक और सरकारी स्कूलों में ऐच्छिक रूप से जर्मन, फ्रेंच या स्पैनिश भाषा पढ़ने की सुविधा है, लेकिन हिंदी और अंग्रेजी के साथ जर्मन को पहली विदेशी भाषा का दर्जा देना, इस पैमाने पर अनोखी परियोजना है.
पुणीत कौर का कहना है कि केंद्रीय विद्यालय भारत में अत्यंत लोकप्रिय हैं, "इन स्कूलों की निगरानी एक स्वायत्त संस्था करती है, जिसका मुख्यालय नई दिल्ली में है. इनकी स्थापना 50 साल पहले सरकारी कर्मचारी के बच्चों के लिए की गई थी, जिन्हें नियमित रूप से एक शहर से दूसरे शहर ट्रांसफर किया जाता है." इरादा यह था कि अलग अलग राज्यों में अलग कोर्स और टेक्स्ट बुक का खामियाजा बच्चों को न भुगतना पड़े.
उत्साही शिक्षकों की खोज
अब तक बहुत कम भारतीय हैं जो जर्मन भाषा बोलते हैं. पूरे देश में दस गोएथे इंस्टीट्यूट हैं. प्रोजेक्ट लीडर पुणीत कौर का कहना है कि प्रशिक्षित जर्मन टीचर ढूंढना सबसे बड़ी चुनौती है. "इस समय हमने 300 जर्मन शिक्षकों को ढूंढा है. 2013 के अंत तक उनकी संख्या 400 होगी." कौर विदेशी भाषाओं की शिक्षा देने वाले स्कूलों और यूनिवर्सिटी में जाती हैं और वहां के छात्रों में इस प्रोजेक्ट के लिए दिलचस्पी जगाने की कोशिश करती हैं. शिक्षक बनने का कुछ महीनों का प्रशिक्षण उनके लिए मुफ्त है. महत्वपूर्ण यह है कि उनका भाषा ज्ञान उनके छात्रों से बेहतर हो. शुरुआत में पर्याप्त आधारभूत ज्ञान काफी है.
इस परियोजना की एक बाधा यह हो सकती है कि भारत में स्कूल टीचरों का वेतन बहुत ज्यादा नहीं है. वह 25 से 30 हजार रुपये प्रति माह है. इसलिए भाषा सीखने वाले कम ही लोग शिक्षक बनना चाहते हैं, वे उद्यमों में काम करने लगते हैं. इसके अलावा बहुत से केंद्रीय विद्यालय छोटी जगहों पर हैं और क्लास 50 बच्चों के साथ बहुत बड़े हैं.
"जब हमने 14 महीने पहले इस प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया, तो पहले मैंने सोचा कि यह काम नहीं करेगा," पुणीत कौर याद करते हुए कहती हैं, "लेकिन अब मैं ऐसा नहीं सोचती. काम बहुत है, इसमें समय भी लगेगा, लेकिन हम कामयाब होंगे." भारत में जर्मन महोत्सव और जर्मनी में भारत महोत्सव के साथ इस पहलकदमी को समर्थन मिला है. 2017 तक भारत के 1,000 स्कूलों की भाषा होगी, हिंदी, अंग्रेजी और जर्मन.
रिपोर्ट: प्रिया एसेलबॉर्न/एमजे
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी