इंस्टीट्यूट आफ साउथईस्ट एशियन स्टडीज, युसूफ इशाक इंस्टीट्यूट सामरिक और क्षेत्रीय राजनय के मामलों में एशिया और दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों में एक है. सिंगापुर के इस संस्थान की स्टेट आफ साउथईस्ट एशिया सर्वे रिपोर्ट को क्षेत्र का सामरिक और कूटनीतिक बैरोमीटर कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. सालाना पेश की जाने वाली यह रिपोर्ट संस्थान के आसियान स्टडीज सेंटर ने तैयार की है.
2020 में पहली बार लांच होने के बाद से इस सर्वे रिपोर्ट ने दुनिया भर के कूटनीतिज्ञों, विदेश सेवा के नौकरशाहों, राजनेताओं, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जानकारो, और मीडिया का ध्यान अपनी और खींचा है. हाल ही में लांच हुए बहुप्रतीक्षित तीसरे संस्करण ने दक्षिणपूर्व एशिया के साथ-साथ आसियान और इंडो-पैसिफिक क्षेत्रों में बढ़ती कूटनीतिक और सामरिक गतिविधियों और तमाम ट्रेंड का व्यापक विश्लेषण किया है.
रिपोर्ट में कई दिलचस्प परिणामों का जिक्र है जिसमें चीन- अमेरिका के बीच बढ़ता तनाव एक प्रमुख मुद्दा है. साथ ही जापान और यूरोपीय संघ की बड़ी भूमिका से जुड़े रुझान भी सामने आये हैं.
कोरोना महामारी के बीच नवम्बर 2020 से जनवरी 2021 के बीच हुए इस सर्वे में एक हजार से ज्यादा प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया. इस सर्वे की दो और खास बातें यह रहीं कि इनमें आसियान देशों में रहने वाले लोगों को ही सर्वे में भाग लेने का मौका मिला. साथ ही, पहली बार इस सर्वे को अंग्रेजी के अलावा इंडोनेशियाई और वियतनामी भाषा में भी पेश किया गया. यह एक अच्छा कदम था क्योंकि इन दोनों ही देशों में अंग्रेजी भाषा का उतना चलन नहीं है. खास तौर पर इन देशों के छोटे शहरों और कस्बों में.
यूक्रेन पर हमले से बेपरवाह
कोविड महामारी के दौरान बेरोजगारी, गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई के मुद्दे भी इस रिपोर्ट में प्रमुखता से छाये हैं. साफ है आसियान देशों की जनता कोविड से उपजी स्वास्थ्य, नौकरी, और तमाम सामाजिक आर्थिक चिंताओं को लेकर हताश है. दिलचस्प बात यह है कि कुल मिलाकर अपने देशों की सरकारों से इन्हें कोई खास शिकायत नहीं है. वैसे ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि दुनिया भर के लिए आसियान से जुड़े दो सबसे बड़े मुद्दे - आतंकवाद और मानवाधिकारों का बढ़ता हनन दस प्रतिशत से ज्यादा लोगों का ध्यान नहीं आकर्षित कर सके. जाहिर है, आसियान वासियों के लिए स्वस्थ, आत्मनिर्भर, और अभाव-रहित जीवन बड़ी प्राथमिकताएं हैं. पश्चिमी देशों को इन बातों पर ध्यान देना चाहिए.
इस बात का दूसरा उदाहरण है कि रूस के यूक्रेन पर हमले की सिंगापुर को छोड़ कर किसी दक्षिणपूर्व एशियाई देश ने निंदा नहीं की. कुछ कारणवश इस बार के सर्वे से रूस को हटा दिया गया लेकिन अगर रूस को स्थान दिया गया होता और शायद कुछ और दिलचस्प बातें निकल कर सामने आतीं. रूस के यूक्रेन पर सैन्य हमले से दुनिया भर में कोहराम मचा हुआ है लेकिन दक्षिणपूर्व एशिया में इस बात को लेकर कोई खास चिंता नहीं है. बातचीत के जरिये समस्या का समाधान करने जैसे औपचारिक बयानों के अलावा कुछ खास बातें निकल कर नहीं आयी हैं. वजह साफ है: आम तौर पर महाशक्तियों के बीच घमासान में यह दसों देश और इनका प्रतिनिधि संगठन - आसियान - पड़ना नहीं चाहते हैं. दक्षिणपूर्व एशिया के देशों के रूस से सम्बन्ध भी अच्छे ही रहे हैं.
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सत्ता और नौकरशाही के गलियारों में हो रही कानाफूसी पर गौर किया जाय तो शायद दक्षिणपूर्व एशिया का हर देश यही सोच रहा है कि चीन, रूस और यूक्रेन के प्रकरण से क्या सन्देश लेगा? कहीं रूस की मनबढ़ई से चीन के हौसले भी तो बुलंद नहीं हो जायेंगे? कहीं चीन भी अपनी अतिक्रमणवादी गतिविधियों में इजाफा ना कर दे, और अगर ऐसा होता है तो क्या अमेरिका पर भरोसा किया जा सकता है? यह यक्षप्रश्न कम से कम वियतनाम, मलेशिया, ब्रूनेई, फिलीपींस, और ताइवान के नीतिनिर्धारकों की नींद तो हराम कर ही रहा है.
यह सभी देश दक्षिण चीन सागर में अपने-अपने जमीनी और जलसीमा सम्बन्धी कब्जे बढ़ाने की कोशिश में हैं और चीन से इनकी रस्साकशी पिछले कई दशकों से चलती रहती है. ताइवान के लिए चिंता की वजह ज्यादा बड़ी है क्योंकि कहीं न कहीं रूस-यूक्रेन जैसे समीकरण चीन और ताइवान के बीच भी हैं, और अमेरिका/पश्चिमी देशों की भूमिका भी कमोबेश ऐसी ही है.
चीन और अमेरिका की तनातनी
बहरहाल, आसियान देशों की दूसरी बड़ी चिंता अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती तनातनी है जो समय के साथ बढ़ती ही जा रही है. दक्षिणपूर्व एशिया में एक कहावत बड़ी लोकप्रिय है, 'जब दो हाथी लड़ते हैं तो लड़ाई में पिसती घास ही है.' दक्षिणपूर्व एशिया के देश और उनके निवासी इसी बात को लेकर चिंतित हैं. लेकिन सर्वे रिपोर्ट से यह भी साफ है कि बीते वर्षों के मुकाबले चीन को लेकर चिंताएं बढ़ी हैं और इसके चलते अमेरिका की छवि में सुधार हुआ है. चीन के लिए यह शुभ संकेत नहीं है.
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आर्थिक तौर पर सबसे बड़ी और सबसे प्रभावशाली शक्ति होने के बावजूद चीन आसियान में उतनी पसंदीदा महाशक्ति नहीं है. अगर यह ट्रेंड आगे आने वाले वर्षों में बढ़ता है तो चीन के दक्षिणपूर्व एशिया में कूटनीतिक दबदबे पर असर पड़ेगा.
सर्वे की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि इसकी प्रक्रिया के दौरान दुनिया के तमाम हिस्सों की तरह दक्षिणपूर्व एशिया के देश भी कोविड महामारी की चपेट में आ गए. कई देशों की अर्थव्यवस्थाएं इस दौरान चरमरा गयीं. ऐसा होना लाजमी था क्योंकि दक्षिणपूर्व एशिया के तमाम देश पर्यटन और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर पर निर्भर हैं. कोविड के दौरान उपजी चिंताएं रिपोर्ट में साफ दिखती हैं.
महामारी ने बढ़ाई स्वास्थ्य की चिंता
कोविड महामारी ने अमेरिका, जापान, और जर्मनी समेत दुनिया की तमाम बड़ी ताकतों को स्वास्थ्य-सम्बन्धी इंफ्रास्ट्रक्चर, वैक्सीन, और महामारी से उपजी सामाजिक समस्याओं के जाल में लपेटा है. आसियान देशों के लिए यह स्थिति पश्चिम के मुकाबले ज्यादा बड़ी रही है क्योंकि इन देशों की आर्थिक क्षमता और सुशासन उतना सुदृढ़ नहीं रहा है. इन चिंताओं की साफ झलक रिपोर्ट में भी दिखती है जहां तीन चौथाई से ज्यादा प्रतिभागियों ने कोविड से स्वास्थ्य पर होने वाले हमले को सबसे प्रमुख माना है.
दुनिया के तमाम बड़े देशों के लिए आसियान क्या मायने रखता है. कौन से देश ज्यादा भरोसेमंद हैं और कौन से देशों की मदद चीन-अमेरिका के बढ़ते विवादों के बीच ली जा सकती है - ऐसे तमाम मुद्दों पर भी इस रिपोर्ट में चर्चा की गई है.
इस सर्वे में आसियान के डायलॉग पार्टनर के तौर पर भारत का भी जिक्र हुआ है. अधिकांश मुद्दों पर भारत जापान, और यूरोपीय संघ की तुलना में पीछे ही रहा है. आसियान देशों को भारत से उम्मीदें तो बहुत हैं लेकिन कहीं न कहीं उन्हें लगता है कि भारत अपने वादों को निभाने में लचर प्रदर्शन कर रहा है. भारत के नीतिनिर्धारकों को यह देखना होगा कि वह इस सर्वे से क्या सबक ले सकते हैं और किस तरह आसियान क्षेत्र में भारत की स्थिति और उपस्थिति को मजबूत बना सकते हैं.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)