एशिया के दो नए शांतिदूत
ओस्लो में पाकिस्तान में लड़कियों के हक के लिए लड़ने वाली मलाला यूसुफजई और भारत में बच्चों के लिए लड़ने वाले कैलाश सत्यार्थी को शांति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. दोनों की दुनिया भर में सराहना हो रही है.
शांति के नए साझेदार
बचपन बचाओ आंदोलन के प्रणेता कैलाश सत्यार्थी और लड़कियों की शिक्षा की पक्षधर पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई को संयुक्त रूप से नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया. नोबेल पुरस्कार के इतिहास में यह पहला मौका है जब किसी भारतीय और पाकिस्तानी को संयुक्त रूप से इस पुरस्कार से नवाजा गया है.
'हर बच्चे को आजादी मिले'
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद कैलाश सत्यार्थी ने कहा, "हर बच्चे को स्कूल जाने, खेलने और बचपन जीने की आजादी होनी चाहिए." पुरस्कार पाने के बाद सत्यार्थी ने अपना संबोधन वेद के एक श्लोक से शुरू किया. उन्होंने कहा, "हम सब मिलकर चलें, मिलकर सोचें, मिलकर संकल्प करें."
सत्यार्थी को सलाम
सत्यार्थी भारत में बाल मजदूरी के खिलाफ 1990 से मुहिम छेड़े हुए हैं. अपनी इस मुहिम को संगठित रूप देने के लिए सत्यार्थी ने बचपन बचाओ आंदोलन की शुरूआत की. भारत के मध्य प्रदेश के विदिषा में 11 जनवरी 1954 को पैदा हुए कैलाश सत्यार्थी पेशे से इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर हैं. उन्होंने 26 साल की उम्र में ही करियर छोड़कर बच्चों के लिए काम करना शुरू कर दिया था.
मुश्किल सफर
सत्यार्थी का नोबेल पुरस्कार पाने तक का यह सफर आसान नहीं रहा है. इस दौरान उन्हें न केवल बड़ी परेशानियों का बल्कि जान का खतरा भी उठाना पड़ा. बाल श्रमिकों को छुड़ाने के दौरान उन पर कई बार जानलेवा हमले हुए हैं. दिल्ली की एक कपड़ा फैक्ट्री में 17 मार्च 2011 को छापे के दौरान उन पर हमला किया गया. इससे पहले 2004 में ग्रेट रोमन सर्कस से बाल कलाकारों को छुड़ाने के दौरान उन पर हमला हुआ.
दुनिया भर में सत्यार्थी का सम्मान
नोबेल शांति पुरस्कार से पहले उन्हें 1994 में जर्मनी का इंटरनेशनल पीस अवॉर्ड, 1995 में अमेरिका का रॉबर्ट एफ कैनेडी ह्यूमन राइट्स अवॉर्ड, 2007 में मेडल ऑफ इटैलियन सीनेट और 2009 में अमेरिका के डिफेंडर्स ऑफ डेमोक्रेसी अवॉर्ड समेत कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अवार्ड मिल चुके हैं.
कम उम्र में शांति का नोबेल
17 साल की उम्र में मलाला यूसुफजई नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाली सबसे कम उम्र की शख्सियत हैं. मलाला ने पुरस्कार पाने के बाद कहा यह सम्मान उन बच्चों का हक है जो शांति चाहते हैं. उन्होंने कहा कि उनके पास दो विकल्प थे चुप रहना या मरना लेकिन उन्होंने आवाज उठाना पसंद किया. मलाला ने पुरस्कार राशि को मलाला फंड में देने का एलान किया है.
गौरव का पल
मलाला ने कहा, "सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार पाना गौरव की बात है. यह सम्मान उन हर बच्चों की आवाज है जो बदलाव चाहते हैं. यह सम्मान सिर्फ मेरा नहीं, उन बच्चों का है जो शांति चाहते हैं. हम सब मिलकर बच्चों के अधिकार के लिए काम कर सकते हैं. मैं दुनिया के हर कोने में शांति चाहती हूं. मैं चाहती हूं हर बच्चे को शिक्षा मिले. महिलाओं को समाज में समान अधिकार मिले."
प्रेरणा है मलाला
तमाम असमानताओं के बावजूद लड़कियों की शिक्षा के लिए लगातार प्रयास कर मलाला ने यह दिखा दिया कि बच्चे और युवा अपनी खराब स्थिति में सुधार के लिए खुद भी आगे आकर प्रयास कर सकते हैं. मलाला ने जो भी काम किया अपनी जान को पूरी तरह से जोखिम में डालकर किया. अपने इस जांबाज संघर्ष की बदौलत ही वह सिर्फ 17 साल की उम्र में दुनिया भर में लड़कियों की शिक्षा की सबसे बड़ी पैरोकार के रूप में उभरी.
तालिबान का खौफ नहीं
मलाला पहली बार सुर्खियों में 2009 में आई जब 11 साल की उम्र में उन्होंने तालिबान के साए में जिंदगी के बारे में गुल मकाई नाम से बीबीसी उर्दू के लिए डायरी लिखना शुरू किया. डायरी किसी भी बाहरी के लिए स्वात इलाके और वहां के बच्चों की कठिन परिस्थितियों को समझने का बेहतरीन आईना है. इसके लिए मलाला को वीरता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला.